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अर्थात् जो मनुष्य धन को अमृत मानकर यही नहीं वरनविविध पाप कर्मों द्वारा धन की प्राप्ति करता है, वभचेर उत्तमतव, नियम, नाण सण वह कर्मों के दृढ़ पाश में बंध जाता है और अनेक चरित्र, सम्मत, विणयमूल" जीवों के साथ वैरानुबन्ध कर अन्ततः सारा धन ऐश्वर्य यहीं छोड़ नरक में जाता है जो धन दौलत .
अर्थात् ब्रह्मचर्य ही उत्तम तप, नियम, ज्ञान, संसार को पागल बना कर मदमत्त कर देती है।
दर्शन, चारित्र, संयम, और विनय का मूल है।
: ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले की महत्ता के विषय तथ्यता वह विष के समान है। महावीर ने
में महावीर ने कहा है - कहा हैवित्तण ताणं न लभे पमत्त ।
देवदाणवगंधव्वा, जक्खरनखसकिन्नरा । इम्माम्मिा लोह अदवा परत्था ॥
वमयारि नमसंति, दुक्कट जे करेति ते ॥ दीवप्पणठेव अणंत मोहे ।
अर्थात् अत्यंत दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत की साधना न माड्य दट्ठ मद्दमेव ॥ करने वाले ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, इस लोक व परलोक दोनों में शोषण से कमाया
राक्षस, किन्नरादि सभी देवी देवता नमस्कार करते
र है। विश्व में ब्रह्मचर्य ही स्थायित्व प्रदान करता हुआ धन सुखदायक नहीं है। अन्धकार में जैसे दीपक बुझ जाय तो दिखा हुआ मार्ग भी अनदीखा है। तभी तो कहा गया है-- हो जाता है। उसी प्रकार पौदगलिक वस्तुओं के एस धम्मे धुवे निच्चे, (धनादि) अंधकार में न्याय मार्ग को देखना असं.
सासए जिणदेसिए । भव हो जाता है । अतः महावीर के इस उपदेश का सिद्धा सिज्झन्ति चाणेरण, पालन आवश्यक है।
सिज्मस्सन्ति तहावरे ॥ ब्रह्मचर्य
यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्र व है, शाश्वत है, और
जिनदेशित है अर्थात जिनों द्वारा उपदिष्ट है इसी ब्रह्मचर्य की वरीयता का तो बखान जितना
धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध बन गये बन रहे भी किया जाए थोड़ा है । इस व्रत से ही तो मानव ईश्वर की श्रेणी में पहुंच सकता है । महावीर ने
है और भविष्य में भी बनेंगे। भी कहा है--
अतः महावीर प्रतिपादित पांच महावतों की
वरीयता को परख अपनाने की नितांत प्रावश्यकता "लोगुत्तमं च क्यमिणं"
है। इसी सम्वल से हम आधुनिक युग को संवार अर्थात् यह ब्रत लोकोत्तर है।
सकते हैं । इति
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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