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का बाह्य रूप नष्ट हो जाता है किन्तु 'कोयला' कार कर जीवों को परमात्मा के अश रूप में स्वीमें जो द्रव्य तत्व है वह सर्वथा नष्ट कभी नहीं हो कार किया जा सकता है ? सकता।
प्रात्मवादी दार्शनिक आत्मा को अविनाशी विश्व जिन जीवों (चेतनाओं) एवं पूदगल मानते हैं । श्री मद् भगवत् गीता में भी इसी पिटा का ममच्चय के तत्वत: अविनाशी प्रकार की विचारणा का प्रतिपादन हुआ है। यह प्रांतरिक हैं । इस कारण जगत को मिथ्या स्वप्न
व जीवात्मा न कभी उत्पन्न होता है, न कभी मरता वत् एवं शून्य नहीं माना जा सकता। किसी भी
है, न कभी उत्पन्न होकर प्रभाव को प्राप्त होता नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती। किसी भी है, अपितु यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है,
पुरातन है और शरीर का नाश होने पर भी नष्ट प्रयोग से नये जीव अथवा नए परमाणु की उत्पति।
नहीं होता । इस जीवात्मा को अविनाशी नित्य नहीं हो सकती । पदार्थ में अपनी अवस्थानों का
अज और अव्यय अर्थात् विचार रहित समझना रूपान्तर होता है । इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड के
चाहिए । जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके प्रत्येक मूल तत्व की अपनी मूल प्रकृति है। कार्य
नवीन वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही यह कारण के नियम के आधार पर प्रत्येक मूल तत्व
जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नवीन शरीरों अपने गुणानुसार बाह्य स्थितियों में प्रतिक्रियाए
को ग्रहण करता रहता है। इसे न तो शस्त्र काट करता है। इस कारण जगत मिथ्या नहीं है।
सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो संसार के पदार्थ अविनाशी हैं इस कारण विश्व को
सकता है और न वायु सुखा सकती है । यह अच्छेस्वप्नवत् नहीं माना जा सकता। ब्रह्माण्ड के
द्य, अदाह्य एवं अशोष्य होने के कारण नित्य, उपादान या तत्व अनादि, आन्तरिक एवं अविनाशी
सर्वगत, स्थिर, अचल एवं सनातन है। इस दृष्टि होने के कारण अनिमित हैं । शून्य से किसी वस्तु से किसी को प्रात्मा का कर्ता स्वीकार नहीं कर का निर्माण नहीं होता । शून्य स जगत मानन पर सकते । यदि प्रात्मा अविनाशी है तो उसके निर्माण जगत का अस्तित्व स्थापित नहीं किया जा सकता।
या उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। इसका जो वस्तु है उसका प्रभाव कभी नहीं होता । इस कारण यह है कि यह सम्भव नहीं कि कोई वस्तु प्रकार जगत सत्य है तथा उसका शून्य से सद्भाव निर्मित हो किन्तु उसका विनाश न हो। इस सम्भव नहीं है। इस प्रकार ईश्वर को अनादि कारण जीव ही कर्ता तथा भोता है क.मनिसार अनन्त मानना तर्क संगत है।
अनेक रूप धारण करता रहता है ।10। विज्ञान का भी यह सिद्धांत है कि पदार्थ जैन दर्शन की भांति चार्वाक, निरीश्वर सांख्य, अविनाशी है । वह ऐसे तत्वों का समाहार है मीमांसक एवं बौद्ध इत्यादि भी ईश्वर के अस्तित्व जिनका एक निश्चित सीमा के आगे विश्लेषण में विश्वास नहीं करते । न्याय एव वैशेषिक दर्शन नहीं किया जा सकता।
मूलत : ईश्वरवादी प्रतीत नहीं होते। वैशेषिक
सूत्रों में ईश्वर का कहीं उल्लेख नहीं है । न्याय प्रब प्रश्न शेष रह जाता है कि क्या परमात्मा सूत्रों में कथंचित है । इन दर्शनों में परमाणु को ही या ईश्वर को समस्त जीवों के अशी रूप से स्वी. सबसे सूक्ष्म और नित्य प्राकृतिक मूल तत्व माना
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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