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बात रह जाती है प्राचीन होने की। इस "स्व-दोष-मूलं स्व-समाधि तेजसा सम्बन्ध में विद्वानों का अभिमत है कि श्रमण निनाय यो निर्दय-भस्मसात्क्रियाम् । संस्कृति वैदिक ही नहीं, प्राग्वैदिक थी। भारतरत्न जगाद् तत्वं जगतेऽथिनेऽञ्जसा लोकमान्य तिलक ने १३ दिस०, सन् १९०४ के बभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वरः ।।" केसरी में लिखा था, "ग्रन्थों तथा सामाजिक
-स्वयम्भूस्तोत्रं, १४ व्याख्यानों से जाना जाता है कि जैनधर्म अनादि इसका अर्थ है-जिन्होंने अपने प्रात्म-दोषों के है । यह विषय निर्विवाद तथा मतभेद रहित है। मूलकारण को अपने समाधि-तेज से निर्दयता-पूर्वक सुतरां इस विषय में इतिहास के दृढ़ सबूत हैं ।” पूर्णतया भस्मीभूत करदिया, तथा जिन्होंने तत्त्वाभिडॉ० विशुद्धानन्द पाठक ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय लाषी जगत को तत्त्व का सम्यक् उपदेश दिया और इतिहास और संस्कृति' में लिखा है, “विद्वानों का जो ब्रह्म पद रूपी अमृत के ईश्वर हुए। अभिमत है कि यह धर्म प्रागैतिहासिक और ऋषभदेव की भाँति ही अन्य तेईस तीर्थकरों ने प्राग्वैदिक है । सिन्धुघाटी की सभ्यता से मिली भी इस अहिंसारूप-ब्रह्मपद को प्राप्त किया था । योगमूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मन्त्रों में ऋषभ उन्होंने अहिंसा के गीत ही नहीं गाये, अपितु उसे तथा अरिष्टनेमि जैसे तोर्थंकरों के नाम इस विचार अपने जीवन में प्रतिफलित कर दिखाया । इसका के मुख्य आधार हैं। भागवत और विष्ण पुराण प्रभाव पडा। वह भारतीय इतिहास और संस्कृति के में मिलने वाली जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा शताब्दियों के पृष्ठों पर देखा जा सकता है । वेदों भी जैनधर्म की प्राचीनता को व्यक्त करती है।"51 के ऋषि इन्द्र से प्रार्थना करते ही रह गये कि इन श्री रामधारीसिंह दिनकर का 'संस्कृति के चार नग्न देवों से हमारे यज्ञों की रक्षा करो, किन्तु रक्षा अध्याय' में कथन है, "कई विद्वानों का यह मानना न हो सकी। शनैः शनैः इन्द्र का देव-पद और अयुक्ति-युक्त नहीं दीखता कि ऋषभदेव, वेदोल्लिखित पाराध्य-पद समाप्त हो गया । कृष्ण ने इन्द्र के होने पर भी, वेदपूर्व हैं।"52 मेजर जनरल फरलांग विरुद्ध क्रांति की और उसे समूल नष्ट कर दिया । ने तो 'Studies in Science of Comparative जैन साहित्य में वह जीवित तो रहा, किन्तु नग्नदेव
Religions' में यहां तक लिखा है, "It is का भक्त बन कर। उसे जिनेन्द्र की गर्भावस्था से impossible to find a biginning for निर्वाण-पर्यन्त जै-जै के गीत गाने पड़े। समयJainism. Jainism thus appears an समय पर समारोहों का आयोजन करना पड़ा । earliest faith of India." महामहोपा- अाज भारतीय धरा पर यज्ञ और उनमें होने वाली ध्याय सतीशचन्द का अभिमत है, "जैनमत तब से पशु-बलि और नर-बलि का समूलोच्छेद हो प्रचलित हुआ है, जब से संसार में सृष्टि का गया है। प्रारम्भ हुआ है। मुझे इसमें किसी प्रकार उजू मध्यकाल में एक वैष्णव आन्दोलन चला, नहीं है कि जैनधर्म वेदों से पूर्व का है ।"54 जो अत्यधिक सामर्थ्यवान और व्यापक था। उसने
जातिवाद को चुनौती दी तो हिंसा को भी निरर्थक श्रमण-परम्परा का मूलमंत्र था-'अहिंसा प्रमाणित किया। अहिंसा उसका मूलमन्त्र बना। परमोधर्मः ।' अहिंसा ब्रह्म है, ऐसी उनकी मान्यता केवल हिन्दुनों ने ही नहीं, मुसलमानों ने भी थी। ऋषभदेव ने अपनी साधना से वह ब्रह्मपद समवेत स्वर में अहिंसा को मान्यता दी। उनका प्राप्त किया था। प्राचार्य समन्तभद्र ने एक चित्र साहित्य इसका. साक्षी है । सभी मुसलमान भक्त खींचा है
कवि अहिंसक थे । क्या रसखान, क्या कबीर और
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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