________________
है । वह दुःख और वेदना से थककर चूर चूर हो कर विस्तृत भूभाग में विमुक्ति का पथ संवारते हुये
रहा है । पर न अांखें खुलती हैं, न अधंकार हटता सुदृढ़ चरणों से समता के धरातल पर शांति पूर्वक .. है । दिन प्रतिदिन वासनामों का उन्माद बढ़ता ही उतर आयें । जा रहा है । तन के शृगार में मन का शृगार ही
हे मानवता के संरक्षक ! तुम्हारी मानवता छूट गया।
भयभीत है। अहिंसा, सत्य की यहां खिल्ली उड़ - आज मानव के कारूण्य को चुनौती दी है रही है। अपरिग्रहवाद का उपहास किया जा रहा भयंकर सर्वग्रासी भयंकर हिंसक वृत्ति ने । महा- है। मानव में ऐश्वर्य का उन्माद जो जागा है । नाश के प्रलयंकर बादल विश्व के प्रांगण में सदैव लज्जा निर्लज्जता की मार खाकर अर्धनग्न सी मंडराते रहते हैं। उनकी अांशिक वर्षा ही मनुष्य बिक्षिप्त पड़ी है। मेरे प्रभु ! क्या उसे सहारा को संत्रस्त किये हैं । विज्ञान के संहारक प्रगतिशील दे न उठायोगे? चरणों से धरासंतप्त और प्रकंपित है। क्षमामयी की सहिष्णुता अमर्यादित हो उसमे किनारा कर
___ करुणामय ! मानव की अज्ञानता चरम सीमा रही है। उसकी असहनशीलता के परिचायक आज पार कर गई है । वह शांति पाने के मिस रणचण्डी के विकराल भूकंप, हहराता हुया तूफान, विनाश- का आह्वान करता है । पारस्परिक सौहार्द हेतु लीला करती हुई जड़ जंगम को लीलती बाढ़ हैं। युद्ध सज्जा का प्रदर्शन एवं समानता लाने के लिये क्या करे बेचारी ? उसकी घबराहट प्राणियों की
वैभव का संचयन करता है। वह मृतको के लिये मौत बन गई है। प्रायो प्रभु! धरित्री को समता तो
संजीवनी की खोज तो कर रहा है, परन्तु जीवित बंधा जायो। मानवता अपलक तुम्हारा पथ जोह रही है।
प्राणियों के विध्वंस में प्रतिक्षण संलग्न है । सुधाकर ! मानव मानव के प्राणों का ग्राहक
देव ! तुम जियो और जीने दो का शाश्वत बन बैठा है। वह उन्मत्त हो ऐसे अस्वाभाविक सुमधुर जीवन-संगीत सुनाकर क्या एक बार पुनः कार्यों में प्रवृत्त है, जो उसके भाल पर अमिट
समां न बांध दोगे ? तुम्हारी ही स्वर-लहरी कलंक की भांति लग चुके हैं । कहां पाऊँ वह
समष्टि के त्राण-हरण मे समर्थ । तुम्हारे स्मरण विवेक का सद्वारि ? कौन सा है वह अथाह मात्र
___ मात्र से मेरी हृत्तंत्री के तार तार झनझना उठते सागर ? जहां प्रायश्चित के निर्मलजल से यह कलंक ह । विह्वल हा अस्फुट स्वरा म अधर तुम्हारा धोकर बहाद। मानव का भाल पनः दिव्य दीप्ति जय जयकार का उद्घोष करने लगते हैं। रक्त की से दमक उठे।
एक बूद प्रतिपल सौ सौ चक्कर खाती हुई
अद्भुत लास्परत हो जाती है । लगता है कब पूजीपति शोसकों के निगड़ में अखिल विश्व तुम्हारे प्रत्यक्ष दर्शन करू । पधारो देव ! मैं चंद्र के शोषित मानव कराह रहे हैं। प्रभु ! उन्हें के थाल में नक्षत्रों के मोतियों की झालर लगा सूर्य तुम्हारे आश्वासन, उद्बोधन की नितांत आवश्य- की प्रखर ज्योति से तुम्हारी प्रारती उतारूगी। कता है । ताकि वे अहिंसात्मक क्रांति का जयघोष ज्योतिर्मय ! तुम्हारी प्रतीक्षा है ।
1-14
महाबीर जयन्ती स्मारिका 78
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org