________________
प्रस्तुत किया गया है। एक स्थान पर लिखा हैवृष शब्द धर्मवाचक है और त्रिभुवनगुरु ! आप उस धर्म से शोभायमान हैं, इसलिये इन्द्र ने
वृषभ
नाम रक्खा -
वृषो धर्मस्तेन त्रिभुवनगुरुर्भाति यदयं । ततो नाकाधीशो वृषभ इति नामास्य विदधे ॥15
'सुप्रभात स्तोत्र' में भगवान ऋषभदेव की वन्दना करते हुए भक्त कवि का कथन है कि है प्रभो ! महान आत्मस्वरूप प्राप वृषभ के स्मरण से ही प्रभात सुप्रभात बन जाता है । आपने भव्य प्राणियों को सुख देने वाले तीर्थ की प्रवृत्ति की है—
सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तितं तीर्थं भव्य सत्व सुखावहम् ॥16
भगवान ने धर्म का उपदेश दिया क्योंकि व स्वयं धर्मरूप थे, तीर्थ का प्रवर्तन किया, क्योंकि स्वयं तीर्थंकर थे, यह सब कुछ सत्य है, किन्तु उन्होंने प्रजा को ससार में जीने का उपाय भी बताया। उन्होंने सब से पहले क्षात्रधर्म की शिक्षा दी। महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा है- क्षात्रधर्म भगवान आदिनाथ से प्रवृत्त हुआ और शेषधर्म इसके पश्चात् प्रचलित हुए
क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्तः 1 पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्माः
1117
8
भगवज्जिनसेनाचार्य के महापुराण में भी 'आद्य ेन वेधसा सृष्टः सर्गाऽयं क्षत्रपूर्वक:' लिखा हुआ है। ब्रह्माण्ड पुराण में पार्थिवश्रेष्ठ ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा है- "ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥ प्रजानों का रक्षण क्षात्र धर्म है । अनिष्ट से रक्षा तथा जीवनीय उपायों से प्रतिपालन, ये दोनों गुण प्रजापति ऋष
2-46
Jain Education International
भदेव में विद्यमान थे । उन्होंने स्वयं दोनों हाथों में शस्त्र धारण कर जिन लोगों को शस्त्रविद्या सिखाई, उन्हें क्षत्रिय नाम भी प्रदान किया । क्षत्रिय संज्ञा का अन्तर्निहित भाव यही था कि जो हाथों में शस्त्र लेकर दुष्टों और सबल शत्रुओं से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय हैं । उन्होंने शस्त्रविद्या की शिक्षा ही नहीं दी, अपितु सर्वप्रथम क्षत्रियवर्ण की स्थापना भी की
''स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभुः । क्षतत्रारणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपारणवः ॥ ४०
ऋषभदेव का यह कथन अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि केवल शत्रुओं और दुष्टों से युद्ध करना ही क्षात्र धर्म नहीं है, अपितु विषय-वासना, तृष्णा और मोह प्रादि जीतना क्षात्रधर्म है। उन्होंने दोनों काम किये । शायद इसी कारण आज क्षत्रियों को अध्यात्मविद्या का पुरस्कर्त्ता माना जाता है । जितना और जैसा युद्ध पृथ्वी जीतने के लिए प्रावश्यक है, उतना ही, उससे भी अधिक मोहादिक जीतने के लिए श्रनिवार्य है । ऋषभदेव ने सागरपर्यन्त पृथ्वी जीती, व्यवस्थित की, और फिर मोहादि शत्रु का विनाश करने में भी विलम्ब नहीं किया । इस सन्दर्भ में प्राचार्य समन्तभद्र ने भावभीना संस्कृत श्लोक लिखा है
"विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधां वधू सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभु प्रवव्राज सहिष्णरच्युतः ॥ 21
इसका अर्थ है कि सागर वारि ( समुद्र जल ) ही है दुकूल जिसका (समुद्र पर्यन्त विस्तृत), ऐसी वसुधा रूपी सती वधू को छोड़ कर, मोक्ष की इच्छा रखने वाले, इक्ष्वाकुवंशीय, श्रात्मवान्, सहिष्णु और अच्युत प्रभु ने दीक्षा ले ली ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org