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( महावीरत्व की खोज में महावीर ) प्रीतंकर
. श्री मिश्रीलाल जैन एडवोकेट
__ पृथ्वीराज मार्ग, गुना (देव लोक के अनेकों देवता उन्हें घेरे खड़े थे प्रीतंकर देव उठे । नियत देवांगना ने कहामृत्यु प्राई, निश्शब्द पदचाप से आई, किसी को अायो देव ! प्रथम मिलन को सार्थकता प्रदान उसके पाने की आहट तक नहीं हुई और वह प्रीतंकर
करें। प्रीतंकर-देवि ! प्रथम मिलन ! नहीं नहीं को साथ लेकर चली गई। शेष रह गई देवताओं . के मध्य प्रीतंकर की कीर्ति जो देवलोक में भी तुम्हें भ्रम है। मिलन की समस्त उपलब्धियों से मृत्यु से अभय होने का वरदान दे रही थी। पर हृदय परिचित है, फिर प्रथम मिलन कैसा ? महावीरत्व अभी एक अनावृत रहस्य था, दुर्लभ प्राकर्षण अज्ञात सुखों के प्रति होता है और देवि ! यात्रा थी।)
उपलब्ध होते ही आकर्षण टूट जाता है । भोगों की
प्रक्रिया भोगों का परिणाम सभी स्मृति में हैं । तीर्थङ्करत्व की खोज में सम्राट् हरिषेण की
.. लगता है हम भोगों को भोग रहे हैं, पर भोग स्वयं संज्ञा से विभूषित जीव प्रीतकर बना। स्वर्गलोग उसके लिये कोई नया लोक नहीं था। स्वर्गों की
हमें भोगना प्रारम्भ कर देते हैं । वह यात्रा कर चुका था, सागरों की आयु बिता देवाङ्गना ने कहा-स्वामी ! जन्म के प्रथम चुका था। जब वह स्वर्ग लोक की शैया पर जागा दिवस में-मिलन की बेला में यदि विरक्ति का तो सब कुछ भोगा हुआ लगा। स्वर्गलोक में सब का सूत्र लिया तो सागरों की आयु कैसे कुछ पूर्ववत् था, किन्तु सौन्दर्य, कला, साज-सज्जा . बीतेगी ? पूर्व से भी अधिक मनोहर थी। प्राकृतिक दृश्य देव-देवि! तुम्हें भ्रम है, कि सागरों की आयु सरितारों के निर्मल जल से ध्वनित संगीत, पक्षियों बिताने के लिये पुरुषार्थ करना पड़ता है, बहती हुई का कलरव, संगीतमय था । पग पग पर सौन्दर्य का सरिता का जल और बीतती हुई आयु क्या कभी भ्रम-जाल, पग पग पर प्रलोभन ! ... रुकती है । गति उसका धर्म है। रन्ध्रमय पात्र में
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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