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निहित जल की भाँति यह प्रायु भी रीत जाती
उस मरणभीत देवता को संबोधित करने वे उसके समीप गये और बोले-देव दुःखी क्यों
देवाङ्गना-देव ! मर्त्यलोक के भीरु पुरुषों ।
देवता-देखते नहीं मेरे गले की माला मुरझा की सी बातें करते हो। वहाँ पुरुष दिगम्बर वेष में विचरण करते हैं, तप्त शिलानों पर तपते हैं " और कहते हैं हम मुक्ति को खोज रहे हैं । आपकी
प्रीतंकर–तो क्या ? मुरझाने दो ! बातें ऐसे भीरु मनुष्यों से ऋण ली हुई प्रतीत होती हैं । प्रीतंकर देव ने दिगम्बर श्रमण की चर्चा देव-मुरझाने दू? यह देवलोक, देवलोक सुनी तो उनके नयन में स्वयं की आकांक्षायें साकार हो उठीं ! नयन-क्षितिज पर दिगम्बर मति मति- का यह वैभव क्या सब स्वप्न हैं ।-वह फिर मान हो उठी। उनके हाथ श्रद्धा से उठ गये- चीत्कार करने लगा ।उन्होंने विनत स्वर में कहा-साहूसरणं पव्वज्जामि, प्रीतंकर ने कहा-देवि ! तुमने श्रमण का बहुत
प्रीतंकर–सुनो, कब तक रुदन करोगे, अधिक बिकृत, अवांछनीय रूप प्रस्तुत किया है । स्वर्गलोक से अधिक 6 माह । मृत्यु मित्र है। उससे इतने का वैभव उनके चरणों की धूलि है। बिना भीत होने की आवश्यकता नहीं। दिगम्बरत्व धारण किये मुक्ति कहाँ ? धन्य हो देवि, तुम्हारे कारण उन पवित्र आत्माओं का देवता-क्या मृत्यु मित्र है ? स्मरण करने का सौभाग्य मिला।
प्रीतंकर-मृत्यु मित्र भी है और शत्रु भी । सहसा समीप से करुण चीत्कारों की ध्वनि मित्र उनकी है, जो निर्भय हैं, शत्रु उनकी है जो सुनाई पड़ने लगी। एक देव चीख रहा था, जैसे
__ तुम्हारे सदृश भयभीत हैं । बन्धु ! क्या तुम्हें ज्ञात
है, पूर्वभव में कहां थे? तुम सदैव से देवलोक में उसे कोई पीड़ा पहुंचा रहा हो । देवाङ्गना चकित नहीं हो, कोई भी सदैव से देवलोक में नहीं है । होकर उसे देखने लगी और बोली स्वामि ! यह जब थे नहीं-तब आये, और जब आये हो तो स्वर्गलोक है, आधि-व्याधि का कोई भय नहीं। जानोगे अवश्य । प्रज्ञा को जागृत करो ! सम्यक् भूख-प्यास को यहाँ स्थान नहीं, फिर यह किस
दर्शन का सूत्र पकड़ो। मृत्यु तुम्हारी मित्र बन पीड़ा से दुःखी है।
जायेगी । अपनी मानसिक शांति के लिये इस मंगल
सूत्र का स्मरण करो प्रीतंकर-देवि, सबसे बड़ा दुख है मृत्यु । और
नमस्कार श्री अरिहंतों को यह मृत्यु के भय से दुःखित है। जीवन की समाप्ति का संकेत देने वाली इसकी माला का सुरभित सुमन
सिद्धि प्रदाता सिद्धों को प्राचार्यों
को आज म्लान हो गया है। प्रायु की समाप्ति में अब उपाध्यायों ... को केवल 6 माह शेष हैं।
सर्व लोक के सन्तों को
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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