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प्रीतंकर देव इस अनादि मंगल सूत्र को दोहराते रहे । मरणभीत देव उसका अनुसरण करता रहा । उसका कंपम बन्द हो गया। पीड़ा विलीन हो गई ।
देवांगना मंत्र के प्रभाव से प्रभावित थी । चकित दृष्टि को देखकर प्रीतंकर देव कहने लगेदेवि ! यह मन्त्र अद्भुत है, अनादि है, सबसे सरल और सबसे दुरूह है ! इसका महत्व समझने में बड़े बड़े विद्वान् भी चूक जाते हैं । इसके दोनों छोर दो पृथक् पृथक् संकेत देते हैं । मन्त्र के शिखर से चरण की ओर बन्दना का क्रम है और चरण से शिखर की मोर साधनाका । देवाङ्गना- स्पष्ट करे देव !
प्रीतंकर - बहुत सरल बात है देवि । जब नमस्कार करना है—–अरहन्त, सिद्ध, प्राचार्यों, उपाध्यायों और सर्वलोक के सन्तों को नमस्कार
करें, किन्तु जव प्राचरण में उतारना हो तब प्रथम दिगम्बरी दीक्षा धारण कर श्रमण बनो । श्रात्मज्ञान उपलब्ध करो और भव्य जीवों को उपदेश का अमृत वितरित कर उपाध्याय बनो तत्पश्चात् ज्ञान को उपलब्धि कर प्राचार्य पद प्राप्त करो । मुक्ति के मार्ग पर स्वयं बढ़ो और संघस्थ श्रमणों को उस पथ पर बढ़ने के लिये प्रेरित करो। फिर सिद्धत्व की प्राप्ति करो। समस्त ग्रहन्त सिद्ध होते हैं किन्तु सर्व सिद्ध अर्हन्त नहीं होते । अर्हन्त आत्मा की शुद्धतम अवस्था को स्वयं तो उपलब्ध करते हैं, साथ ही धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं । इसलिये क्रम में प्रथम हैं । देवाङ्गना -- यह मन्त्र प्रदभुत | देव ! मुझे भी कंठस्थ करायें ।
प्रीतंकर का अधिकांश समय जिन भक्ति में, प्रात्मचिन्तन में व्यतीत हो रहा था अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करते समय देवांगना प्राय: प्रीतंकर देव के साथ रहती पर प्रीतंकर का निर्जीव मूर्तियों के समक्ष यो श्रद्धानत होना उसे निष्प्रयोजन लगता । एक दिन जिनवन्दना करते समय उसने
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुये कहाँनिश्चित ही ये वीतराग मूर्तियां मनोज्ञ, भव्य और अनुपम हैं, पर देवता का निर्जीव मूर्तियों के चरणों में नत होना क्या अन्धश्रद्धा नहीं है ?
प्रीतंकर - देवि, तुमने भ्रमों के अनगिन श्रावरण पाल रखे हैं | चेतन स्व के श्रागे विनत था । शुद्ध आत्म की भक्ति में लीन था । वह निर्दोष वीतरागी दर्पण में अपने विम्ब की तुलना कर रहा धा-कि प्रभु ! तुम जैसा बनने से कितनी दूर हूँ ?
आत्मा जब तक स्व-चिन्तन में लीन होने की स्थिति में न पहुंचे, तब तक मूर्ति का निमित्त अनिवार्य है देवि ! जब आत्मा स्व श्रभा से दीप्त हो उठती है तब किसी निमित्त, किसी पराये द्रव्य की आवश्यकता नहीं रहती ! उपासना भी एक कला है, कर्मों को काटने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है।
प्रीतंकर की दिनचर्या देवताओं में चर्चा का विषय था । उनका जीवन-शांतिपूर्ण ढंग से धार्मिक रीति से व्यतीत हो रहा था ।
में
प्रीतंकर एक दिन एक सघन वृक्ष की छाया कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े दिखे। उनकी देवोचित कान्ति निस्तेज पड़ने लगी किन्तु नयनाभा द्विगुरिणत हो उठी । उनकी आयु पुष्प की माला के सुमन सूखने लगे थे । -- वाणी क्षीण पड़ गई थी किन्तु उनके अधरों से प्रस्फुटित शब्द निर्भर की भांति सतत् प्रवाहित हो रहे थे
केवलिपण धम्मं सरणं पव्वज्जामि, देवलोक के अनेकों देवता उन्हें घेरे खड़े थे, मृत्यु श्राई, निश्शब्द पदचाप से आई, किसी को उसके माने की भी ग्राहट नहीं हुई और वह प्रीतंकर को साथ लेकर चली गई। शेष रह गई देवतानों के मध्य प्रीतंक की कीर्ति । जो देवलोक में भी मृत्यु अभय होने का वरदान दे रही थी । पर महावीरत्व की खोज में प्रीतंकर की प्रात्मा प्रिय मित्र चक्रवर्ती के रूप में मनुष्यलोक में अवतीर्ण
हुई।
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