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में अनेक विचारकों ने नैतिक जीवन को पूर्णता के जैन, बौद्ध और गीता के प्राचार दर्शन इस प्रश्न लिए शुभाशुभ से परे जाना प्राट श्यक माना है पर गहराई से विचार करते हैं कि प्राचरण ब्रेडले का कहना है कि नैतिकता हमें उससे परे (क्रिया) एवं बन्धन के मध्य क्या सम्बन्ध है ? ले जाती है ।7 नैतिक जीवन के क्षेत्र में शुभ और क्या कर्मणा बध्यते बन्धुः की उचित सर्वांश सत्य अशुभ का विरोध बना रहता है लेकिन प्रात्म- है ? जैन, बौद्ध एवं गीता की विचारणा में यह पूर्णता की अवस्था में यह विरोध नहीं रहना उक्ति कि कम से प्राणी बंधन में आता है सर्वांश चाहिए। अत: पूर्ण प्रात्म-साक्षात्कार के लिए या निरपेक्ष सत्य नहीं है । प्रथमतः कर्म या क्रिया हमें नैतिकता के क्षेत्र (शुभाशुभ के क्षेत्र) से ऊपर के सभी रूप बंधन की दृष्टि से समान नहीं हैं, उठना होगा । बेडले ने नैतिकता के क्षेत्र से ऊपर फिर यह भी सम्भव है कि प्राचरण एवं क्रिया के धर्म (प्राध्यात्म) का क्षेत्र माना है, उसके अनुसार होते. हए भी कोई बन्धन नहीं हो। लेकिन यह मैतिकता का अन्त धर्म में होता है। जहां व्यक्ति निर्णय कर पाना कि बन्धक कर्म क्या है और शुभाशुभ के द्वन्द्व से ऊपर उठकर ईश्वर से तादात्म्य प्रबन्धक कर्म क्या है, अत्यन्त ही कठिन है । गीता स्थापित कर लेता है । वे लिखते हैं कि अन्त में कहती है कर्म (बंधक कर्म) क्या है ? और अकर्म हम ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं, जहां पर क्रिया (अवंधक कर्म) क्या है ? इसके सम्बन्ध में विद्वान एवं प्रतिक्रिया का अन्त होता है, यद्यपि सर्वोत्तम भी मोहित हो जाते हैं 149 कर्म के यथार्थ स्वरूप क्रिया सर्वप्रथम यहां से ही प्रारम्भ होती है। का ज्ञान अत्यन्त गहन विषय है। यह कर्म समीक्षा यहां पर हमारी नैतिकता ईश्वर से तादात्म्य में का विषय अत्यन्त गहन और दुष्कर क्यों है, इस चरम अवस्था में फलित होती है और सर्वत्र हम प्रश्न का उत्तर हमें जैनागम सूत्रकृतांग में भी उस अमर प्रेम को देखते हैं, जो सदैव विरोधाभास
मिलता है। उसमें बताया गया है कि कर्म, क्रिया पर विकसित होता है, किन्तु जिसमें विरोधाभास
या पाचरण समान होने पर भी बन्धन की दृष्टि का सदा के लिए अन्त हो जाता है ।48
से वे भिन्न भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं। मात्र ब्रडले ने जो भेद नैतिकता और धर्म में किया
प्राचरण, कर्म या पुरुषार्थ को देखकर यह निर्णय वैसा ही भेद भारतीय दर्शनों ने व्यावहारिक नैतिकता
देना सम्भव नहीं होता है, कि वह नैतिक दृष्टि से और पारमार्थिक नैतिकता में किया है। व्यावहारिक
किस प्रकार का है । ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है यहां पाच
समान वीरता को दिखाते हुए (अर्थात् समान रूप
से कर्म करते हुए) भी अधूरे ज्ञानी और सर्वथा रण की दृष्टि समाज सापेक्ष होती है और लोक मंगल ही उसका साध्य होता है । पारमार्थिक नैति- अज्ञानी का, चाहे जितना पराक्रम (पुरुषार्थ) हो, कता का क्षेत्र शुद्ध चेतना (अनासक्त या वीतराग पर अशुद्ध है और कर्म बन्धन का कारण है, परन्त जीवन दृष्टि) का है, यह व्यक्ति सापेक्ष है। व्यक्ति ज्ञान एवं बोध सहित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध है को बन्धन से बचाकर मुक्ति की और ले जाना ही और उसे उसका कुछ फल नहीं भोगना पड़ता। इसका अन्तिम साध्य है।
योग्यरीति से किया हुआ तप भी यदि कीति की
इच्छा से किया गया हो तो शुद्ध नहीं होता ।50 शद्ध कर्म (कर्म)----शुद्ध कर्म का तात्पर्य उस कर्म का बन्धन की दृष्टि से विचार उसके बाह्य जीवन व्यवहार से है जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से स्वरूप के आधार पर ही नहीं किया जा सकता है, रहित होती हैं तथा जो प्रात्मा को बन्धन में उसमें कर्ता का प्रयोजन, कर्ता का विवेक एवं नहीं डालता है, प्रबन्धक कर्म ही शुद्ध कर्म है। देशकालगत परिस्थितियां भी महत्वपूर्ण तथ्य हैं महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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