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मौर कर्मों पर ऐसा सर्वागपूर्ण विचार करने में विद्वत् वर्ग भी कठिनाई में पड़ जाता है । कर्म में कर्ता के प्रयोजन को जो कि एक प्रान्तरिक तथ्य है, जान पाना सहज नहीं होता है ।
लेकिन फिर भी कर्ता के लिए जो कि अपनी मनोदशा का ज्ञाता भी है यह प्रावश्यक है, कि कर्म और कर्म का यथार्थ स्वरूप समझे क्योंकि उसके अभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है । गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैं तुझे कर्म के उस रहस्य को बताऊंगा जिसे जानकर तू मुक्त हो जावेगा 151 वास्तविकता यह है कि नैतिक विकास के लिए बंधक और प्रबंधक कर्म के यथार्थ स्वरूप को जानना आवश्यक है । बंधकत्व की दृष्टि से कर्म के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में भारतीय प्रचार दर्शन का दृष्टिकोण निम्ना नुसार है ।
जैन दर्शन में कर्म प्रकर्म विचार-कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उस पर दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है-'. उसकी बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर और 2 उसकी शुभाशुभता के आधार पर कर्म का बधनात्मक शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं। कि कुछ कर्म बन्धन में डालते हैं जबकि कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं ! बन्धक कर्मों का कर्म श्रौर प्रबन्धक कर्मों को अकर्म कहा जाता है । जैन विचाररणा में कर्म और अकर्म के यथार्थ स्वरूप की विवेचना सर्वप्रथम प्राचारांग एवं सूत्रकृतांग में मिलती है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कुछ कर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं, कुछ कर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं ।" इसका तात्पर्य यह है कि कुछ विचारकों की दृष्टि में सक्रियता यही पुरुषार्थ या नैतिकता है जबकि दूसरे विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है । इस सम्बन्ध में महावीर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत
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करते हुए, यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं अकर्म का कर्म अर्थ शरीरादि की चेष्टा का प्रभाव ऐसा नही मानना चाहिए। वे अत्यन्त सीमित शब्दों में कहते हैं प्रमाद कर्म है अप्रमाद कर्म है। 53 प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को कर्म कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अकर्म निष्क्रियता को अवस्था नहीं, वह तो सतत जागरूकता है । श्रप्रमत्त अवस्था या आत्म जागृति की दशा में सक्रियता भी कर्म होती है जबकि प्रभव दशा या श्रात्म जागृति के प्रभाव में निष्क्रियता भी कर्म ( बन्धन) बन जाती है । वस्तुतः किसी क्रिया का बन्धकतत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं वरन् उसके पीछे रहे हुए कषाय भावों एवं राग द्वेष की स्थिति पर निर्भर है। जैन दर्शन के अनुसार राग-द्वेष एवं कषाय, जो कि आत्मा की प्रमत दशा है किसी क्रिया का कर्म बना देते हैं । लेकिन कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म कर्म बन जाता है । महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्राश्रव या बन्धन कारक क्रियाएं हैं, वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती हैं । 54 प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म अपने बाह्य स्वरूप की अपेक्षा कर्त्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर होते हैं । जैन विचारणा में बन्धक तत्व की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में बांटा गया है । 1 ईय पथिक क्रियाएं (अकर्म ) और 2 - साम्परायिक क्रियाएं ( कर्म या विकर्म ) ईर्यापथिक क्रियाएं निष्काम वीतराग दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति की क्रियाएं हैं जो बन्धनकारक नहीं है जबकि साम्परायिक क्रियाएं श्रासक्त व्यक्ति की क्रियाएं हैं जो बन्धनकारक हैं । संक्षेप में वे समस्त क्रियाएं जो प्राश्रव एवं बन्ध का कारण हैं, कर्म हैं और वे समस्त क्रियाएं जो संवर एवं निर्जरा का हेतु है, प्रकर्म है। जैन
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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