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दृष्टि में प्रकर्म या ईर्यापथिक कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह रहित होकर मात्र कत्तव्य अथवा शरीर निर्वाह के लिए किया जाने वाला कर्म । जबकि कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह सहित क्रियाएं । जैन दर्शन के अनुसार जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और मोह से युक्त होता है बन्धन में डालता है और इसलिए वह कर्म है और जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और मोह से रहित होकर कर्त्तव्य निर्वाह या शरीर निर्वाह के लिए किया जाता है वह बन्धन का कारण नहीं है अतः अकर्म है । जिन्हें जैन दर्शन में ईर्यापथिक क्रियाएं या प्रकर्म कहा गया है उन्हें बौद्ध परम्परा अनुचित, अव्यक्त या श्रकृष्ण अशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें जैन परम्परा साम्परायिक क्रियाएं या कर्म कहती हैं, उन्हें बौद्ध परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण-शुक्ल कर्म कहती है । आइए
जरा इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करें ।
बौद्ध दर्शन में कर्म कर्म का विचार बौद्ध विचारणा में भी कर्म और उनके फल देने की योग्यता के प्रश्न को लेकर महाकर्म विभंग में, विचार किया गया है, जिसका उल्लेख श्रीमती सर्मादास गुप्ता ने अपने प्रबन्ध 'भारत में नैतिक दर्शन का विकास' में किया है । 55 बौद्ध दर्शन का प्रमुख प्रश्न यह है कि कौन से कर्म उपचित होते हैं । कर्म के उपचित से तात्पर्य संचित होकर फल देने की क्षमता के योग्य होने से है । दूसरे शब्दों में कर्म के बन्धन कारक होने से है । बौद्ध परम्परा का उपचित कर्म जैन परम्परा के विपाकोदयी कर्म से और बौद्ध परम्परा का अनुपचित कर्म जैन परपरा के प्रदेशोदयी कर्म (ईर्याथिक कर्म) से तुलनीय है । महाकर्म विभाग में कर्म की कृत्यता और उपचितता के सम्बन्ध को लेकर कर्म का एक चतुवि वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है।
१ - वे कर्म जो कृत (सम्पादित) नहीं है लेकिन
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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उपचित ( फल प्रदाता ) है वासनाओं के तीव्र प्रवेग से प्रेरित होकर किये गये ऐसे कर्म संकल्प जो कार्य रूप में परिणत न हो पाये हैं, इस वर्ष में आते हैं। जैसे किसी व्यक्ति ने क्रोध या द्वेष के वशीभूत होकर किसी को मारने का संकल्प किया हो, लेकिन वह उसे मारने की क्रिया को सम्पादित न कर सका हो ।
२ - वे कर्म जो कृत है और उपचित मी है वे समस्त ऐच्छिक कर्म, जिनको संकल्पपूर्वक सम्पादित किया गया है, इस कोटि में आते हैं । यहां हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृत उपचित कर्म और कृत उपचित कर्म दोनों शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के हो सकते हैं ।
२- वे कर्म जो कृत हैं लेकिन उपचित नहीं हैं : श्रभिधर्मकोष के अनुसार निम्न कर्म कृत होने पर उपचित नहीं होते हैं अर्थात् अपना फल नहीं देते हैं :
(अ) वे कर्म जिन्हें संकल्पपूर्वक नहीं किया गया है अर्थात् जो सचिन्त्य नहीं हैं, उपचित होते हैं ।
( ब ) घे कर्म जो सचिन्त्य होते हुए भी सहसा - कृत हैं, उपचित नहीं होते हैं । इन्हें हम श्राकस्मिक कर्म कह सकते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान में इन्हें विचार प्रेरित कर्म ( ग्राइडियो मोटर एक्टीविटी) कहा जा सकता है |
( स ) भ्रान्तिवश किया गया कर्म भी उपचित नहीं होता ।
( द ) कृत कर्म के करने के पश्चात् यदि अनुताप
या ग्लानि हो तो उसका प्रकटन करके पाप विरति का व्रत लेने से कृत कर्म उपचित, नहीं होता ।
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