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"अहिंसा परमो धर्म की "
नींव पर भारतीय संस्कृति पल्लवित पुष्पित हो रही है । भगवान महावीर ने भी 'जीग्रो और जीने दो' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि:
उंग्रहे य तिरिय,
सव्वत्थ विरइं विज्जा,
जे केई तसथावरा ।
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, और तिर्यग्लोक इन तीनों लोकों में जितने भी त्रास और स्थावर जीव हैं उनके प्राणों का विनाश करने से दूर रहना चाहिए । वैर की शांति को ही निर्वाण कहा गया है । यदि केवल इसी विचार को ही मनुष्य अपना ले तो संसार के सभी प्राणी सुख का अनुभव करने लगेंगे। तथ्यतः जितना प्यारा हमें अपना प्राण है, उतना ही दूसरों को भी तोत्रिय है, फिर क्यों हिंसा की जाती है ? क्यों न उन्हें अपने ही समान समझा जाये । महावीर ने यही तो उपदेश युग कल्याण के लिए दिया था ।
संति निवारणमाहियं ॥
विरए गामधम्मेहि,
तेसि
1-52
जे केई जगई जगा । अवुत्तमायाए,
थामं कुव्वं परिव्वए ||
श्रर्थात् शब्दादि विषयों के प्रति उदासीन बने हुए मनुष्य को इस संसार में विद्यमान जितने भी स और स्थावर जीव हैं, उनको प्रात्मतुल्य मान, उनकी रक्षा करने में अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिए और इसी प्रकार संयम का भी पालन करना चाहिए । मनुष्य विवेकशील प्राणी है अतः उसे स्वयं विचार कर किसी को कष्ट नहीं पहुवाना चाहिए अपितु सभी प्राणियों के प्रति सहा
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नुभूति रखना ही सुखदायक है | भगवान महावीर ने समझाया है कि
पुढ़वी य श्राऊ, अगरणी
तर रूक्ख-वीया
य
तसा य पाणा ॥
जे.
जे अण्डया
संसेयया
एवाइ
एएस
य बाऊ
जाणो,
पडिलेह
एए कारण य प्रायदण्डे,
य जराऊ पारणा ।
जे.
1
रसया भिहाण ॥
कायाई,
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पवेइयाइ ।
सायं 11
एएस या विप्परिया सुविन्ति ॥
अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, तृस्ण, वृक्ष श्रादि वनस्पति तथा अण्डज, जरायुज, स्वेदज, रसज, इन सभी त्रस प्राणियों को ज्ञानियों ने जीव समूह कहा है। इन सबमें सुख की इच्छा होती है, इस तथ्य को समझना चाहिए। इसे जानकर भी जो इन जीव कायों का नाश करके पाप का संचय करता है, वह बार बार इन्ही प्राणियों में जन्म धारण करता है । अत: अहिंसा के आधार पर विश्व के पोषण - पालन की समस्या पर गंभीरता से विचार अपेक्षित है ।
सत्य
प्रपना राष्ट्रीय प्रतीक ही है । "सत्यमेव जयते" भगवान महावीर ने भी इसी सत्य की वरीयता का बखान करते हुए कहा है कि "तं सच्चं भयवं"
अर्थात् सत्य ही भगवान है जो सत्य को ग्रप नाता है वह भगवान के समान हो जाता है महा
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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