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पापों से विरक्त होना व्रत कहलाता है । जैन दर्शन में पाप केवल एक माना गया है और वह है हिंसा । कोई भी क्रिया से जब तक उसमें हिंसा सम्मिलित न हो वह पाप रूप नहीं हो सकती । झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह हिंसा रूप होने के कारण ही पाप हैं । व्रती होने के लिए निःशल्य अर्थात् माया, मिथ्या और निदान से रहित होना प्रावश्यक है । प्ररण वत का पालन गृहस्थ और महाव्रत का पालन साधु करते हैं । वे जब प्रवृत्ति रूप होते हैं तो पुण्याश्रव के तथा निवृत्ति रूप होने पर संवर का कारण होते हैं । प्राज की भौतिक उन्नति से संत्रस्त मानव को भगवान महावीर द्वारा प्रणीत ये महावत किस प्रकार शांति और सुख के प्रदाता हैं इस प्रश्रन का उत्तर पाठक निम्न पंक्तियों में पावेंगे।
-पोल्याका
पांच महाव्रतों की वरीयता
डा० शोभनाथ पाठक एम. ए., पी. एच. डी. (संस्कृत)
साहित्य रत्न मेघनगर जिला झाबुग्रा, म. प्र. 457779
भौतिक चकाचौध में भटकता हुआ मानव इसी सम्बल से हम आज प्राकुल संसार को संवार आज अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर भले ही इत- सकते हैं । महावीर के पांच महावतों की महत्ता राये व अस्थाई सुख की अनुभूति कर उन्मत्त हो पर यहां संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा हैजाय पर उसका अंतस् अाकुल है, प्रशांत है, अतृ- अहिंसा प्न है । अणु की विभीषिका न्यूट्रान की विनाश- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य लीला, समाज के संमुख महाकाल के समान मुह के सम्बल से संसार को सवारने वाले महावीर के बाए खड़ी है । मानवता इस महा प्रलय की कल्पना मिटान
सिद्धान्त ही युग को उबारने में सक्षम है । भाज से ही कांप उठती है।
संसार के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या जीवन को ऐसी विषम परिस्थिति में विश्व प्राज भारतीय सुरक्षित रखने की है । प्रायुधों की होड़ में विनाशसंस्कृति की ओर प्राशा लगाए युग को उबारने कारी अस्त्र-शस्त्र बन रहे हैं । ऐसी विषम परिस्थिति की बाट जोह रहा है। तथ्यतः प्राज वैज्ञानिक में अहिंसा की गरिमा को समझना नितांत आवश्यक उपलब्धियों से हम मानवता को संतुष्ट नहीं कर है । अतः हमें भगवान महावीर के प्रादों, उप. सकते वरन इसके लिए हमें भगवान महावीर के देशों को विश्वस्तर पर प्रसारित प्रचारित करना पांच महाव्रतों की वरीयता को परखना होगा। चाहिए ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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