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जान रह जाते हैं ? सांस के बिना जीवन पल भर तियों में इस प्रकार की विशिष्टताए भले ही भी नहीं चल सकता, किन्तु क्या हम श्वासोच्छवास उपयोगी हों, किन्तु इस प्रकार मनुष्य सहजता से की सूक्षमतम प्रक्रियाओं अथवा विधियों से परिचित टूटता जाता है और परिणामतः विश्वःप्रकृति से रहते हैं ? यह जानना ही तो साधना है। एकरूप नहीं हो पाता। सन्त कबीर ने 'सहज
समाधि' की बात कही है । लगता तो यह है कि ___ साधना की दिशा में कदम रखने का अर्थ है
जीवन में सहज होना ही अत्यन्त कठिन है। संकल्प करना, एकाग्र होना, अपनी समस्त शक्तियों
असामान्य या कठिन मार्ग अग्नाना अपेक्षाकृत को केन्द्रित करना ताकि उपलब्धि का बीज अकु
प्रासान प्रतीत होता है। कोरी स्लेट पर बिल्कुल रित हो सके, वह कठोर अवरोध को भेदकर ऊपर
सीधी रेखा खींचना ही कठिन है। जंगल में सीधे उठ सके ओर विशाल वृक्ष बन सके । संकल्पपूर्वक
बिरवा बहुत कम होते हैं। हमारा जीवन भी अनेक सिद्धि ही साधना का फल है । यही बीज की
वक्रताओं का घर है। वक्ताओं को मिटाने का स्वतंत्रता है । हमारे शरीर में परिव्याप्त चेतना
नाम ही सहजता है। मन्दिर में जाकर मूर्ति के विश्व-चेतना का अंश होते हुए भी वह विश्व से
मागे साष्टांग नमन करना हमारे लिए कठिन पृथक, तुच्छ या लघु नहीं है । उसमें सम्पूर्ण विश्व
नहीं है । पर शयन की सहज क्रिया को ही प्रभुसमाहित है । बूद छोटी अवश्य है, पर सागर से
नमन मानना बड़ा कठिन है। विश्व के साथ भिन्न नहीं है।
तादात्म्य स्थापित करने या विश्व में अपने को किसी भी प्रकार की साधना का मूल आधार
लीन करने के लिए हमारी भूमिका नदी के प्रवाह शरीर होता है । शरीर की सहायता से ही साधना
की भांति होनी चाहिए कि वह सागर की ओर फलवती होती है । साधना से शरीर सक्षम बनता
सहन बही चली जाती है । अंकुर सहज दृक्ष
बनता चला जाता है। साधना का भार ढोने पर है और शरीर की क्षमता से चेतना में तेजस्विता प्राती है । जब आत्मा तेजस्वी होती है तो यह तन
तो हम श्रमिक ही रह जाते हैं, श्रमण नही बन परमात्मा का मंगलधाम बन जाता है। शरीर के पाते । शरीर के अंग अपना कार्य कितनी सहजता प्रति प्रासक्ति न रखना आवश्यक है, लेकिन उसके
से करते हैं कि उनके लिए हमें सोचना भी नहीं शत्रुता भी अनुचित है। जो लोग शरीर को सताने पड़ता। हम बालक से तमण और तरुण से प्रौढ़ में साधना देखते हैं, वे केवल बोझ ही ढोते है।' वृद्ध होते जाते हैं। परन्तु पता नहीं चलता कि
यह सब कैसे घटित हो गया । तो साधना हमें विशिष्ट अवस्था, विशेष प्रासन, विशिष्ट करनी है सहजता की, ऋजुता की, भार-विहीन प्रकार का प्राहार-विहार, रहन-सहन, वेश, व्यायाम, होने की, और तभी हमारा यह तन प्रात्म दीपक प्राणायाम, जप, जाप, स्नान-ध्यान, अथवा प्रयास से ज्योतिर्मान होकर हमें वहां पहुचा सकता है को प्रायः साधना कहा जाता है । अमुक परिस्थि- जहां प्रात्मा की अन्तिम परिणति है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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