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सेना और युद्धः-उत्तरपुराण में षडङ्ग बल सद्व्यय करने वाले हों।110 जिसके पुण्य के उदय (छह प्रकार की सेना) का उल्लेख किया गया से वस्तुयें प्रतिदिन बढ़ती रहें उसका तादात्विक है ।100 इस सब सेना की शोभा स्वामी से होती रहना ही उचित है ।111 राजा को चाहिए कि उसके थी।101 स्वामी की सफलता असफलता की नीति पार्श्ववर्ती (समीपवर्ती) लोग घूसखोर न हों। यदि पर बहुत कुछ सेना की सफलता असफलता निर्भर पार्श्ववर्ती रिश्तेदार हों तो दूसरे व्यक्ति वेष बदलथी। सैनिक लोग कूट युद्ध करने में निपुण होते कर आसानी से घुसपैठ कर सकते हैं। राजा थे।102 सैनिकों का यह विश्वास था कि युद्ध करने श्रेणिक ने चेटक के समीपवर्ती लोगों को धूस दे में एक तो सेवक का कर्तव्य पूरा हो जाता है, दूसरे उन्हें वश में कर स्वयं बोद्रक नामक व्यापारी वनयश की प्राप्ति होती है और तीसरे शूरवीरों की कर चेटक के घर में प्रवेश कर लिया था ।112 गति प्राप्त होती है ।103 मन्त्रिगण अभ्युदय प्राप्त अनेक मित्रों से युक्त होने के कारण महान और अजेय दूत113.-दूसरे राजा के पान सन्देश ले जाने पराक्रम के धारक राजा से युद्ध करना श्रेष्ठ नहीं के लिए दूत का प्रयोग किया जाता था। दूत कई समझते थे; क्योंकि बलवान के साथ युद्ध करने प्रकार के होते थे। दूसरे राजा को अनुकूल करने का कोई कारण नहीं है । ' 01
के लिए चित्त को हरण करने वाले114 तथा दूसरे के
साथ विग्रह करने के लिए कलहप्रिय दुर्वचन बोलने न्याय व्यवस्था:-दुष्टों का विग्रह करना और वाला दूत भेजा जाता था |115 शिष्टों का पालन करना यह राजाओं का धर्म नीति शास्त्रों में बतलाया गया है। स्नेह, मोह, आसक्ति ।
तीन शक्तियों-शक्ति तीन प्रकार की कही गई तथा भय आदि कारणों से यदि राजा ही नीतिमार्ग
" है-प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साह शक्ति ।
अनुसार, का उल्लंघन करता है तो प्रजा भी उसकी प्रवृत्ति मन्त्रशक्ति---पञ्चाङ्गमन्त्र (सहाय, साधनोपाय करने लगेगी। अतः राजा को चाहिए कि उसका देश विभाग, काल विभाग और बाधक कारणों का दायां हाथ भी यदि दुष्ट हो तो उसे काट दे ।105 प्रतीकार) के द्वारा मन्त्र का निर्णय करना मन्त्र उसके पृथ्वी की रक्षा करते समय अन्याय यह शब्द शक्ति है। राजा को नित्य पालोचित मन्त्र शक्ति ही सुनाई न दे और प्रजा बिना किसी प्रतिबन्ध के से युक्त होना चाहिए ।18 अपने अपने मार्ग में प्रवृत्ति करे ।106 राजा को
उत्साह शक्ति-शूरवीरता से उत्पन्न हुए नीतिपूर्वक आचरण करना चाहिए, क्योंकि नीति
उत्साह को उत्साह शक्ति कहते हैं। महान् उदय को जन्म देती है ।107
प्रभुशक्ति-राजा के पास कोश और दण्ड शासन व्यस्वथाः-राजा को चाहिए कि वह (सेना) की जो अधिकता है, उसे प्रभुशक्ति कहते अपने वंश के सब लोगों के साथ राज्य का विभाग 117 कर उपभोग करे। ऐसा करने पर परिवार वाले उसके शत्रु नही रहेंगे108 और वह अखण्ड रूप से उपर्युक्त तीन शक्ति रूप सम्पत्ति के द्वारा राजा चिरकाल तक अपनी राजलक्ष्मी का उपभोग करेगा। समस्त शत्रुओं को जीत लेता है, युद्ध शान्त कर सज्जनों की दष्टि में लक्ष्मी सर्वसाधारण के उपभोग देता है और धर्म तथा अर्थ के द्वारा भोगों का के योग्य है ।109 राजा के राज्य में कोई मलहर उपभोग करता है ।118 ये तीनों शक्तियां धर्मानुबन्धी (मलपजी को खाने वाला) कदर्य (कंजूस) और सिद्धि को फलीभूत करती हैं । यथार्थ में शक्तियां तादात्विक (वर्तमान में ही रत) न हो, किन्तु सभी वही हैं जो दोनों लोकों में हित करने वाली हैं ।119
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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