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और प्रजा अथवा प्रकृति ( मन्त्री प्रादि) के भेदों को जानकर महान् उद्योग करना चाहिए। इनमें से बुद्धि दो प्रकार की होती है एक स्वभाव से उत्पन्न हुई और दूसरी विनय से उत्पन्न 176 जिस प्रकार फल और फूलों से रहित आम के वृक्ष को पक्षी छोड़ देते हैं और विवेकी मनुष्य उपदिष्ट मिथ्या आगम को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उत्साहहीन राजपुत्र को विशाल लक्ष्मी छोड़ देती है । यहां तक कि अपने योद्धा, सामन्त और महामात्य (महामन्त्री ) प्रादि भी उसे छोड़ देते हैं ।
मन्त्रि परिषद् का महत्त्व - मन्त्रिपरिषद् राजा के प्रत्येक कार्य में सलाह देती है । राजा प्रजा का रक्षक है, इसलिए जब तक प्रजा की रक्षा करने में समर्थ होता है, तभी तक राजा रहता है । यदि राजा इससे विपरीत आचरण करता है तो सचिवादि उसे त्याग देते हैं | 78 राजा मन्त्रियों से मिल कर किसी समस्या के समाधान का उपाय खोज लेता है । बुद्धिमान व्यक्ति उपाय के द्वारा बड़े से बड़े पुरुष की भी लक्ष्मी का हरण कर लेते हैं । 79 विश्वस्त अपने मन्त्रियों पर राजा तन्त्र (स्वराष्ट्र ) तथा प्रवाद ( परराष्ट्र ) की चिन्ता रख स्वयं शास्त्रोक्त मार्ग से धर्म तथा काम में लीन हो जाता है 180
मन्त्रियों की नियुक्ति-रा - राजा मन्त्रियों की नियुक्ति करता है और उन्हें बढ़ाता है। मन्त्री अपने उपकारों से राजा को बढ़ाते हैं । 81 प्रावश्यकता पड़ने पर राजा अपने राज्य का पूर्ण भार मन्त्रियों पर रख देता है । 82 जो राजा अपने को सर्वशक्तिमान मानकर मन्त्रियों के साथ कार्य का विचार नहीं करता है, वह मृत्यु को प्राप्त करने के लिए प्रस्थान करता है 183
मन्त्रियों की योग्यता - मन्त्रियों की योग्यता की परीक्षा चार प्रकार की उपधाओं (गुप्त उपायों) तथा जाति आदि गुणों से करने का निर्देश उत्तरमहावीर जयन्ती स्मारिका 78
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पुराण में किया गया है। चार उपधायें ये हैं(1) धर्मोपधा (2) प्रथपधा ( 3 ) कामोपधा (4) भयोपधा । कौटिलीय अर्थशास्त्र में इनका विस्तृत वर्णन किया गया है ।
मन्त्रियों के कर्त्तव्य - हितकारी कार्य में प्रवृत्त करना और ग्रहितकारी कार्य का निषेध करना ये मन्त्री के दो कार्य हैं 185
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अन्य अधिकारी - मन्त्रियों के अतिरिक्त अन्य राजकीय अधिकारियों में नैमित्तिक, 88 सेनापति, 87 महामात्र 88 पुरोहित, श्रेष्ठी, 89 रक्षि० (कोतवाल), अन्तःपुररक्षक (शुद्धान्तरक्षि ) 91 तथा अन्तर्वशिक92 के नाम उत्तरपुराण में प्राप्त होते हैं । ६२ वें पर्व में शतविन्दु नामक निमित्तज्ञानी को ग्रष्टाङ्ग निमित्तज्ञान में निपुण बतलाया गया है । 23 अठारह श्रेणियों का उल्लेख भी उत्तरपुराण में मिलता है 194
कोष -राजा निरन्तर अनेक उपायों से कोष का वर्द्धन करता रहे। अर्जन, रक्षण, वर्द्धन और व्यय ये चार धन संचय के उपाय हैं । इन चार उपायों का प्रयोग करते समय अर्थ और धर्म पुरुषार्थ को काम की अपेक्षा अधिक माने 195
राजकीय प्राय के साधन बड़े राजा छोटे राजाओंों से कर लेते थे । इसके अतिरिक्त कृषकों से कर लिया जाता था। ब्राह्मण कर दान से मुक्त थे 196 व्यापारी जब धन कमाकर दूसरे द्वीपों आदि से लौटते थे तो उन्हें कमाए हुए धन पर शुल्क देना पड़ता था । ग्राजकल की भांति उस समय भी लोग शुल्क देने से कतराते थे और कर की चोरी करने का प्रयास करते थे । राजकुमार प्रायात और निर्यात दोनों प्रकार के करों से थे 198 मुक्त
दुर्ग - प्राचीनकाल में दुर्ग राजाओं की सुरक्षा के सुदृढ़ साधन थे, जो यथास्थान रखे हुए यन्त्र, शस्त्र, जल, जौ, घोड़े और रक्षकों से भरे रहते थे 199
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