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तुछ स्थानप अति गाफिली, खोई आयु असार । ऊपर चचित सतसई के अतिरिक्त उन्होंने, डा. अब तो गाफिल मत रहौ, नीड़ा पात करार ॥ ज्योतिप्रसादजी के अनुसार, छहढाला (सं० 1859 देधारी बचता नहीं, सोच न करिये भ्रात ।
में), तत्वार्थबोध (सं० 1871 या 1889 में), तन तौ तजिगे रामसे, रावन की कहा बात ।।
पञ्चास्तिकाय (हिन्दी पद्य में सं० 1891 में),
बुधजन विलास (सं० 1892 में), इष्टछत्तीमी हिन्दी ब्रजभाषा में रचित इस सतसई में, और वर्तमानपुराण (हिन्दी पद्य में) की रचनाए जैसा कि ऊपर उद्धृत दोहों से भी प्रकट है की। यह आश्चर्य का विषय है कि बुधजन सतसई ढूंढारी बोली का प्रभाव है जो कि कवि के उस एक धर्मनिरपेक्ष नीतिपरक साहित्यिक कृति होते प्रदेश का होने के कारण स्वाभाविक है। अपभ्रश हुए भी हिन्दी जगत में अब तक उपेक्षित रही है, और उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी कवि ने किया साहित्यिक रसिकों ने इसका मूल्यांकन नहीं किया है । अनुप्रास, यमक और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों है। यदि अनुसंवित्सु इस संक्षिप्त परिचय से प्रेरणा की छटा भी इस ग्रन्य में यत्र-तत्र छाई है। ले इस कृति का सही मूल्यांकन कराकर उसे हिन्दी 'करतार' शब्द का प्रयोग निम्न दोहे में दृष्टव्य है- साहित्य में उचित स्थान दिला सके तो क्या ही
अच्छा हो। उपरोक्त विवेचन पिताजी (डा० परमधरमकरतार हैं, भविजनसुखकरतार ।
ज्योतिप्रसादजी के संग्रह में उपलब्ध बुधजन सतसई नित बन्दन करता रहूँ, मेरा गहि कर तार ॥ मत 1010 जीपीका के
बुधजन कवि का उपनाम है। उनका मूल आधार पर किया गया है जिसे पं. नाथूराम प्रेमी नाम बिरधीचन्द था । वह जयपुर निवासी खण्डेल. ने संशोधित-सम्पादित कर अपने जैन ग्रन्थ वाल जैन थे । एक अच्छे पण्डित और कवि थे। रत्नाकर कार्यालय से प्रकाशित किया था।
दुर्जन प्रदोषामपि दोषाक्ता पश्यन्ति रचना खलाः ।
रविमूर्ति मिवोलुकास्तमाल दल कालिकाम् ।। अर्थ- दुर्जन लोग निर्दोष रचना में भी दोष ही देखते हैं जैसे उल्ल सूरज को तमाल के पत्ते की तरह का काला देखता है ।
-रविषेणाचार्य
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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