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कृष्णकथा की लोकातिशायिनी प्रियता के कारण णं माहबहु पक्खु सा पोसई ॥ पुष्पदन्त ने जैन कृष्ण से सम्बद्ध अपने 'महापुराण' बिहिं भाइहिं थक्कउ तीरिरिणजलु । काव्य ग्रंथ में सामान्य धारणा से कुछ विपरीत णं घरणारि विहत्तउ कज्जलु ॥ वातें जोडी हैं। 'महापुराण' की 83-86 वीं
___अर्थात्, यमुना नदी कृष्ण के प्रति इतनी अधिक सन्धियों में मुख्यतः कृष्णलीला का ही वर्णन है ।
भक्ति-विभोर हो जाय कि वह गेरू के रंग से रंगे इसके अतिरिक्त 87--88 वीं सन्धियों में भी जरासन्ध और बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के कथा-प्रसंग
जल के कपड़े पहन ले, पानी में गिरे हुए फूलों से
अपनी कबरी (जूड़ा) संवार ले, स्नान करती में श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण हुआ है।
किन्नर-वधुनों के स्तनों द्वारा अपना वात्सल्य पुष्पदन्त के अनुसार माता-पिता की कारावास प्रदर्शित करे, लहरों के विलास से विभ्रम पैदा करे, में अवस्थिति के समय यथानिर्धारित सामान्य जन्म- जल में रहने वाले नागराज की मणियों की किरणों काल के पहले अर्थात् सातवें महीने में होता है। से अधिक आलोक बिखेर दे, कमल की आंखों से यही कारण है कि कृष्णावध का इच्छुक कंस कृष्ण को देखे, अतिशय निर्मल जलकणों के चावलों तत्काल कृष्णजन्म की बात से अनभिज्ञ रह जाता से भरे कमलिनी के पत्तों के थाल से आरती उतारे, है । वसुदेव नवजात बालक को गोद में उठाते हैं कलकल शब्दों से मंगल की घोषणा करती हुई वह
और बलराम उस पर छत्र की छाया करते हैं । एक कृष्ण के शरीर का पोषण करे ग्रौर कृष्ण को देव वृषभ का रूप धारण कर अपने सींगों से प्रकाश मार्ग देने के लिए यमुना नदी का जल गृहिणी के करता है। कंस के भय से वे तीनों धीरे धीरे चलते सीमन्त द्वारा विभक्त काले-कजरारे केशपाश की हैं । बालक के अगूठे का स्पर्श होते ही गोकुल के तरह दो भागों में बंट जाय । गोपुर का द्वार खुल जाता है। उग्रसेन को यह बताने पर कि यह बालक उन्हें पर्याप्त सुख-समृद्धि सूर ने कृष्ण जन्म की घटनाओं को मिथक के प्रदान करेगा, आगे बढ़कर गोद में ले लेते हैं।
सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। कृष्ण योगमाया के
प्रभाव से देवकी के घर में आते हैं और जन्म के कृष्ण की आरती उतारती-सी यमुना नदी बाद वासूदेव से कह देते हैं कि वे उन्हें गोकूल कलकल शब्द के साथ बह रही है। पुष्पदन्त कवि पवा. के भाव-विमुग्ध यमुना-वर्णन की एक मनोरम झांकी द्रष्टव्य है :
अहो वसुदेव जाहु लै गोकुल । ।
तुम हो परम सभागे ॥ गरुयर त तोउ रत्तबरु । णं परिहइ यकुसुमहिं कब्बरु ॥ वसुदेव कृष्ण को गोद में ले जाते हैं और किणरियण सिहरइ णं दावइ । शेष नाग उनपर अपने फणों से छाया करता है । विब्भयेहि णं संसउ भावइ ॥ वसूदेव सीधे नन्द के घर पहंचकर कन्या से बालक फरिणमणि - किरणहि णं उज्जोयउ । का विनिमय कर मथुरा वापस आ जाते हैं और कमलच्छिहिए कण्डु पलोयई ॥ यथावचन वह कन्या कंस को समर्पित कर दी भिसिरिणपत्त थालेहिं सुरिणम्मल । जाती है। उच्चाइय रणं खलकण-तन्दुल ॥ खलखलंति णं मंगलु घोसइ । पुष्पदन्त ने इस प्रसंग में थोड़ा परिवर्तन कर
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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