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हिन्दी साहित्य में वृन्द, रहीम श्रादि के दोहे सुभाषितों के रूप में पर्याप्त विख्यात रहे हैं। शायद ही कोई हो जिसे इन कवियों का एकाध दोहा याद न हो। जैन कवियों ने भी ऐसे दोह लिखे हैं जिनका यदि मूल्यांकन किया जाय तो वे इन कवियों के दोहों से किसी भी दृष्टि से कम नहीं उतरेंगे किन्तु आज कोई उन्हें जानता तक नहीं क्योंकि न तो उनका प्रकाशन होता है और न उन्हें पाठ्यक्रम आदि में रखाने का प्रयत्न । जो कुछ थोड़ा प्रयत्न हुवा भी है तो उसमें जैनों से अधिक हाथ जैनेतरों का ही है । यदि कुछ छपता भी है तो अत्यन्त सीमित संख्या में और उसके पीछे भी मिशनरी भावना के स्थान में कोई अन्य हो भावना काम करती है। जयपुर के ही कवि विरध चन्द जैन ने बुधजन उपनाम से एक सतसई की दोहा छन्दों में रचना की थी। उनके रचे और भी ग्रन्थ हैं किन्तु वे पूरे छपे नहीं या छपे तो अत्र प्राप्य नहीं, फिर उनके महत्व का पता विद्वानों को लगे तो कैसे !
बुधजन सतसई
सात सौ एक दोहों की यह कृति कवि बुधजन ने, अन्त में दी गई कवि प्रशस्ति के अनुसार, ढूंढार प्रदेश के जैपुर नगर में नृप जयसिंह के राज्यकाल में संवत् 1879 में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी रविवार को पूर्ण की थी । इस कृति, जिसे कवि ने ग्रन्थ की संज्ञा दी है, का सार स्वयं उनके शब्दों में निम्नवत् है :
'भूख सही दारिद सहौ, सहौ लोक अपकार । निंदकाम तुम मति करो, यहै ग्रंथको सार ॥
सदाचरण पर बल देने वाले इस सतसई के
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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पोल्याका
श्री रमाकान्त जैन ज्योति निकुंज, चार बाग,
लखनऊ
सुगम सुभाषितों का गुरण, कवि की भाषा में, 'सुनत पढ़त समझैं सरब, हरें कुबुधि का फेर' है । इन सुभाषितों की रचना करने के पीछे जो प्र ेरक तत्व था उसे स्पष्ट करते हुए बुधजन ने लिखा है :
'ना काहू की प्रेरना, ना काहू को प्रास । अपनी मति तीखी करन, वन्यो वरनविलास || '
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सिद्धों को नमस्कार कर ग्रन्थ ॐ नमः करते समय ही कवि ने अपनी कृति का नाम, आकार और उद्देश्य निश्चित कर लिया था यह प्रथम दोहे से स्पष्ट है
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