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जिस दिन आप इतने शान्त और निर्मल बन जायें रूप पुद्गल परमाणुगों के विशिष्ट समूह के रूप कि वर्तमान का वह अत्यल्प समय का कणा भी में होते हैं जो चैतन्य या जीव को प्रभावित करने झलक जाये तो आप सामायिक में प्रवेश कर गये की एक विशेषता रखते हैं। जैसे आकाश की होते हैं।
अनन्त विद्य त चुम्बकीय तरंगों में से एक निश्चित तपश्चर्या-एक वैज्ञानिक प्रक्रिया स्वरूप में
बारम्बारता की तंरगों को रेडियो-रिसीवर का ____भगवान महावीर की तपश्चर्या का हेतु कर्मों
प्रोसिलेटर अपने में उसी प्रकार की तंरगों को से निर्बध होकर अपने सहज चैतन्य स्वरूप को
उत्पन्न कर विद्युतीय साम्यावस्था के सिद्धान्त प्राप्त कर लेना था। भगवान महावीर ने 'काया
से प्राप्त करता है । ठीक ऐसी ही घटना प्रात्मा में क्लेश' अर्थात् काया के मिटाने को तप कहा।
कार्माण स्कन्धों के प्राकर्षित होने में होती है । मगर उनका मतलब इस पौद्गलिक काया को
विचारों और भावों की अनवरत शृखला के कष्ट देने या मिटाने से नहीं था । जो अनन्त बार
परिणामस्वरूप मन, वाणी और शारीरिक नष्ट हुई, उसे मिटाने में कौनसी साधना है ?
क्रियानों द्वारा प्रात्मा के प्रदेशों में कम्पन उत्पन्न उनका काया से तात्पर्य था वह सूक्ष्स शरीर जिसे
होते हैं, जिसे जैन दशन में योग संज्ञा दी गई है। उन्होंने 'कार्माण शरीर' कहा है, जो उस बाह्य
प्रर्थात् योग-शक्ति से प्रात्मा के प्रदेशों से एक शरीर और आत्मा को जोड़ने का माध्यम अनन्त
क्षेत्रावगाही सम्बन्ध रखने वाले 'कार्माण शरीर' जन्मों से बनी हुई है और जिसे आज तक नहीं ।
के परमाणु में कम्पन होते हैं और यह कार्माण मिटाया जा सका है। तप का अर्थ उन्होंने ऐसी शरार
होने मी शरीर एक ओसिलेटर की भांति कार्य करने लगता गर्मी से लिया है जो भीतर-साक्षी भाव से पैदा
है । जो Electrical resonance के सिद्धान्ताहोती है और जिससे यह सूक्ष्म शरीर पिघलने नुसार लोकाकाश में उपस्थित समान बारम्बारता लगता है । तैजस और कार्माण शरीर ऊर्जा या तरंग-लम्बाई की कार्माण-तरंगों को आकर्षित (Energy) के रूप में हमारी चेतन शक्ति (ग्रात्मा) कर ग्रहण करता रहता है और इस प्रकार कारण से सम्बद्ध है।
शरीर का संगठन कभी भी स्खलित नहीं हो जिस प्रकार रेडियो तरंगों में विद्य त तरंगें पाता है । और चुम्बकीय तरंगें एक साथ एक-दूसरे के तपश्चर्या-वह प्रक्रिया है जो इस कार्माण अभिलम्ब अविनाभावी रूप के साथ-साथ रहती हैं, शरीर के प्रोसिलेटर की कम्पन प्रक्रिया को ढीली
और उनमें बीजभूत शब्दों को पैदा करने की शक्ति बनाता है जो कि योगों की सरलता या मन, प्रसुप्तावस्था में रहती है। ठीक इसी प्रकार ये वाणी और क्रिया की चंचलता को समेटने से तैजस प्रौर कार्माण शरीर भी तरंगों के रूप में होता है। यह स्वयं में कर्तव्यपन के विसर्जन चैतन्य शक्ति को अपने में बांधे हुये हैं। यही और साक्षी-भाव के सृजन से सम्भव होता है। तरंगें कर्मों के प्रास्रव और बंध तथा संवर और यहां से कारण शरीर का पिघलना प्रारम्भ हो निर्जरा की प्रक्रियायें करती रहती हैं।
जाता है और जितने अनुपात में कारण शरीर यहां थोड़ा 'कर्म सिद्धान्त' को भी विज्ञान के की तीव्रता कम होगी, तेजस शरीर भी उसी आधुनिकतम तरंग सिद्धान्त से देख लें जिससे अनुपात में विरल होता जायेगा। यही प्रतिक्षण उपयुक्त पानव या निर्जरा की प्रक्रिया स्पष्ट हो की संवर प्रक्रिया है। अर्थात् तपश्चर्या से संवर जाती है। ये 'काणि शरीर' कार्माण वर्गणा की घटना होती है। साक्षी भाव की एक ऐसी
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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