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थे, उनके काव्य उनसे अछूते नहीं हैं।18 अन्तर पद्धति थी, जिसने धर्म-परीक्षा अभिप्राय को गति केवल यह है कि जनेतर ग्रन्थों के पात्र जिन कार्यों प्रदान की। को करते थे, वे ही कार्य अब उन पात्रों के द्वारा कराये जा रहे हैं जिन्हें कवि ने जैन बना दिया जैनाचार्यों द्वारा धर्मपरीक्षा अभिप्राय को है। अतः मतान्तरों से व्याप्त पाखण्ड के प्रति जो अपनाने का प्रमुख कारण था-जैन धर्म के मौलिक थोड़ा-सा व्यंग विमलसूरि ने प्रारम्भ किया था, वह स्वरूप को सुरक्षित बनाये रखना । अहिंसा की पूर्ण अधिक तीव्र नहीं हुआ, कारण इसके कुछ भी रहे प्रतिष्ठा स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा मुक्ति प्राप्ति का
प्रयत्न, जीव और प्रजीव के बन्धन-मुक्ति की
नैसगिक-प्रक्रिया तथा ध्यान और तप की साधना किन्त ईसा की सातवी-आठवीं शताब्दी में धर्म- की अनिवार्यता आदि कुछ प्रमुख सिद्धान्तों के विरोध दर्शन के क्षेत्र में पुनः परीक्षण को प्रधानता दी जाने में जो भी सम्प्रदाय व धर्म प्राता था, उसका लगी। बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थों में अनेक दार्शनिक खण्डन करना जैन आचार्यों के लिए आवश्यक था। प्राचार्यों के मतों का परिचय दिया हैं ।19 हर्षचरित इसके लिए उन्होंने कई माध्यम चुने, जिनमें धर्ममें दिवाकर मित्र के प्राश्रम के प्रसंग में उन्नीस प्रमुख था। उद्योतनसूरि ने धूर्ताख्यान के व्यंग के सम्प्रदाय के प्राचार्यों का नामोल्लेख है। उनके स्थान में एक कली चर्चा को ही प्रधानता दी। कार्यों से ज्ञात होता है कि वे अपने मतों के प्रति एक साथ सभी प्राचार्यों की उपस्थिति में उन्होंने संशय, निश्चय करते हुए व्युत्पादन भी करते थे। धर्म की श्रेष्ठता पर विचार करना उपयुक्त समझा। किसी एक सिद्धान्त को केन्द्र में रखकर अन्य के आठवीं शताब्दी में विश्वविद्यालयों के विकास के साथ उसकी तुलनाकर फिर शास्त्रार्थ के लिए कारण सम्भव है धार्मिक विद्वानों का इस प्रकार का प्रवत होते थे ।20 अतः अन्य मतों की समीक्षा कर २मेलन भी होने लगा हो। किसी एक मत को श्रेष्ठ बतलाना, इस युग के साहित्यकार के लिए एक परम्परा होने लगी थी। धार्मिक प्राचार्यों द्वारा धर्म का स्वरूप सुनकर इसी का निर्वाह जैनाचार्यों ने किया है।
राजा का दीक्षित होना भारतीय साहित्य में एक काव्य
रूढ़ि है । प्राचार्यों का स्थान कहीं मन्त्री ले लेते हैं हरिभद्रसूरि ने धर्म-परीक्षा को एक नया मोड़ तो कहीं पुरोहित । बौद्ध साहित्य में उल्लेख है कि दिया। उन्होंने असत्य के परिहार के लिए व्यंग को अजातशत्रु ने धर्म का सही स्वरूप जानने के लिए माध्यम चुना।। के धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ में अपने मन्त्रियों से धर्म सुना था । बौद्ध होते के नाते पुराणों में वरिणत असम्भव और असंगत मान्यताओं उसने बौद्ध मतावलम्बी मन्त्री के कथन को प्रधानता का निराकरण पांच धूर्तो की कथाओं द्वारा किया दी थी । पुष्पदन्त के महापुराण में राजा महाबलि गया है ।21 हरिभद्र द्वारा जैनेतर मतों पर किया के चार मन्त्रियों में क्रमशः उन्हें चार्वाक, बौद्ध, गया यह व्यग ध्वंसात्मक नहीं है, अपितु असंगत वेदान्त तथा जैनधर्म का स्वरूप कहकर सुनाया बातों के परिहार के लिए सुझाव के रूप में है। था। अतः कुवलयमाला कहा धर्म-परीक्षा सम्बन्धी सम्भवतः धूख्यिान का गह व्यंग हिन्दू पुराणों के यह प्रसंग विषयवस्तु एवं स्वरूप की दृष्टि से पूर्वसाथ-साथ जैनपुराणों की भी उन अविश्वसनीय बातों वर्ती लोक-परम्परा पर आधारित है। एक साथ के प्रति था, जिनका मेल जैनधर्म से नहीं था। इतने अधिक मतों की समीक्षा प्रस्तुत करना इसकी सत्य (धर्म) के दोषों की परीक्षा करने की यह एक अपनी विशेषता है ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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