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करते हैं। जिस धर्म में साध्य (मोक्ष) की भांति सत्य का निरूपण करते हुए, विभिमानक के उसके साधन (सदाचार) भी श्रेष्ठ हैं, वही धर्म मतों को असत्य कहा गया है ।15 यह तर्क-पद्धति उत्तम कहा जाता है । यही प्रयत्न प्राकृत-साहित्य के दार्शनिक मतों से सम्बन्धित थी। जब कभी किसी विभिन्न ग्रन्थों में हुआ है।
जैन ग्रन्थ में अन्य मतों का खण्डन करना होता पर
तो प्रायः इसी प्रकार की एक प्रणाली अपनायी श्रेष्ठता की पहिचान करने वाली अनेक
जाती थी। और उन सभी जनेतर मतों की समीक्षा कथाए प्राकृत-साहित्य में हैं ।' प्रवृति से निवृत्ति
कर दी जाती थी, जो इतिहास में प्रसिद्ध थे । भले मार्ग की, भाग्य से पुरुषार्थ की तथा लक्ष्मी से
ही उनका अस्तित्व ग्रन्थकार के युग में हो अथवा सरस्वती की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने वाली
नहीं । अतः कुवलयमाला में जो प्रसिद्ध दार्शनिक कथानों की भारतीय साहित्य में कमी नहीं है . 8
मतों की परीक्षा की गयी है, वह परम्परा से अकेले जम्बुस्वामी का चरित्र असत् से सत् की
प्रभावित है। किन्तु प्रत्येक धर्म के जिन अन्य श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है।
अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन उद्योतन ने ज्ञाताधर्मकथा में पांच धान्यकणोंकी कथा केवल चार
किया है, वे सम्भवतः आठवीं शताब्दी में विद्यमान बहुप्रों में चौथी बहू की श्रेष्ठता को ही प्रमाणित
थे। नहीं करती, अपितु प्रतीकों के अनुसार अन्य व्रतों में अहिंसा की श्रेष्ठता स्थापित करती है । कथाओं धर्मपरीक्षा अभिप्राय के विकास में तीसरा का नायक गुणों की खान एवं खलनायक दोषों का महत्वपूर्ण आधार पौराणिक एवं कल्पित बातों पर पुंज, यह मिथक इसी गुण-परीक्षा अथवा धर्म- जैनाचार्यों द्वारा व्यंग करने की प्रवृति है । परीक्षा के कारण ही विकसित हुआ है। इसका इसका प्रारम्भ सम्भवतः विमलसूरि के पउमचरियं सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है-समराइच्चकहा का सम्पूर्ण से हमा है । तत्कालीन प्रचलित रामकथा में कथानक । गुणशर्मा और अग्निशर्मा के नो जन्मी विमलसूरि को अनेक बातें विपरीत, अविश्वसनीय की कथा ।10 राम और रावण, बोधिसत्व और तथा कल्पित प्रतीत हुई । अतः उन्होंने नयी राममार, जिनेन्द्र और मदन11 प्रादि पात्रों की यह कथा लिखी 116 काव्य में दार्शनिक तथ्यों के प्रति योजना एक की अपेक्षा दूसरे को श्रेष्ठ प्रमाणित चिन्तन का यह प्रारम्भ था। बुद्धघोष ने अपने ग्रन्थों करने की मूल भावना का ही विकास है। में इसे विस्तार से स्थापित किया। गुप्तयुग के
कवियों ने अपने ग्रन्थों में कहीं न कहीं दार्शनिक धर्म-परीक्षा अभिप्राय के विकसित होने में दूसरा खण्डन-मंडन को स्थान देना अनिवार्य मान लिया। महत्वपूर्ण तत्त्व तर्क पद्धति का क्रमशः विकसित
आगे चलकर यह एक काव्यरूढ़ि हो गई, जिसका होना है । छठी शताब्दी ईसा पूर्व के अनेक एकान्त
प्रभाव धर्मपरीक्षा के स्वरूप पर पड़ा है। वादी चिन्तकों के बीच से महावीर के चिन्तन का उभरना सत्य की श्रेष्ठतम पहिचान परिचायक अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू ने भी जैनेतर मान्यहै ।12 ब्रह्मजालसुत में अनेक मत-मतान्तरों के तानों का खण्डन किया है तथा अपना काव्य प्रचलित प्रचलित होने का उल्लेख सत्य को विभिन्न दृष्टि- रामकथा की पौराणिक व अतिशयोक्तिपूर्ण बातों कोणों से परखने का परिचायक है ।13 सूत्रकृतांग से बचाकर लिखने की प्रतिज्ञा की है ।17 किन्तु में अक्रियावाद, अज्ञानवाद, क्रियावाद आदि मतों प्राकृत-अपभ्रश के कवियों की इस प्रकार की की समीक्षा की गयी है ।14 प्रश्नव्याकरण सूत्र में प्रतिज्ञाओं और उनके काव्यों को एक साथ देखने अहिंसा प्रादि पांच व्रतों के विवेचन के प्रसंग में पर स्पष्ट है जिन अलौकिक बातों से बचना चाहते
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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