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कल्पवृक्ष फलते थे। अपराध-वृत्ति का अभाव था। नाभिराजाज्ञया स्रस्टुस्ततोऽन्तिकमुपाययुः । सभी में पारस्परिक सद्भाव था। प्रत्येक का प्रजाः प्रणतमू नो जीवितोपायालप्सया ॥" मनोवांछित फल कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाता था,
-महापुराण, 16/133-34 तो असद्वृत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता था। किन्तु,
मोहन-जो-दरो के 1927--28 के उत्खनन में उनके जीवनकाल में ही भोगभूमि समाप्त हो गई। कल्पवृक्ष निःशेषप्रायः हो गये । कर्मभूमि का प्रारम्भ
एक ऐसी मानव-मूत्ति प्राप्त हुई है, जो अभी तक हुमा । नये प्रश्न थे, नये हल चाहिए थे । नाभिराय
की पुरातात्विक खोजों में अत्यधिक महत्वपूर्ण है । चे धैर्यपूर्वक उनका समाधान दिया। वे स्वयं
वह सील नं० 88 पर रखी हुई है । विद्वानों का त्राणसह बने । उन्हें क्षत्रिय कहा गया। 'क्षत्रिय
अनुमान है कि वह नाभिराय की मूर्ति है। स्त्रारणसहः' उन पर चरितार्थ होता था। आगे
उसका वेश-विन्यास एवं प्रशस्त वस्त्र तत्कालीन चलकर, क्षत्रिय शब्द नाभि अर्थ में रूढ़ हो गया।
राजपरिच्छद का मानांक उपस्थित करते हैं । सिर अमरकोषकार ने 'क्षत्रिये नाभिः' लिखकर सन्तोष
पर मुकुट नहीं है । सम्भवतः वह ऋषभदेव को किया। आचार्य हेमचन्द्र ने भी 'अभिधानचिता.
राजमुकुट पहनाने के पश्चात् का चित्र है। मणि, 1/36 में "नाभिश्च क्षत्रिये" लिखा है।
भगवज्जिनसेनाचार्य के महापुराण में एक स्थान उन्होंने अपने पुरुषार्थ से सयुग को जन्म दिया। पर लिखा हैप्रजा सुखी बनी और भोगभूमि के समान ही उसे सब नाभिराजः स्वहस्तेन मौलिमारोपयत् प्रभोः । सुख-सुविधाएं प्राप्त हुई। महाराजा नाभिराय
महामुकुटबद्धानामधिराड् भगवानिति ॥ स्वयं कल्पवृक्ष हो गये। भगवज्जिनसेनाचार्य ने
-महापुराण, 16/232 महापुराण में लिखा है, "चन्द्र के समान वे अनेक कलाओं की आधारभूमि थे, सूर्य के समान तेजवान यह चित्र 'सूरसागर' में भी देखने को मिलता थे, इन्द्र के समान वैभव-सम्पन्न थे और कल्पवृक्ष है। ऋषभदेव के प्रसंग में, एक स्थल पर सूरदास के समान मनोवांछित फलों के प्रदाता थे। ने लिखा हैशशीव स कलाधारः तेजस्वी भानुमानिव ।
"बहुरो रिसभ बड़े जब भये । प्रभु शक्र इवाभीष्ट: फलदः कल्पशाखिवत् ॥
नाभि, राज दे वन को गये ।। -महापुराण, 12/11
रिसभ-राज परजा सुख पायो। भोगभूमि के अवशिष्ट नाभिराय ने, कर्मभूमि
जस ताको सब जग में छायो ।"10 की उठने वाली नयी-नयी समस्याओं को बहुत नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव, जिन्हें जैन आदि सुलझाया, किन्तु नयी-नयी शंकाएं उठती ही जा तीर्थकर मानते हैं, एक युग पुरुष थे। उनका रही थीं। जब उन्होंने इन सबके समाधान में
उल्लेख ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भागवत् तक में अपने पुत्र ऋषभदेव को पूर्ण समर्थ देखा तो तथा सभी जैन ग्रन्थों में श्रद्धा-पूर्वक लिया गया है। प्रजा को उन्हीं के पास भेजना प्रारम्भ कर सत्य यह है कि उनकी प्रतिभा सूविस्तृत थी, तो दिया--
हृदय भी महान् था। उनमें दोनों का अद्भुत सम"तत्प्रहाणान्मनोवृत्ति दधाना व्याकुलीकृताम्। न्वय हुआ था। उन्होंने कर्मभूमि की आदि प्रजा नाभिराजमुपासेदुः प्रजा जीवितकाम्यया ॥ को जीने का मार्ग दिखाया, तो अपने त्याग और
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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