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राज्य के अभ्युदय का प्रारंभ 1562 ई० से हुआ मुनियों के भक्त अनेक श्रावक यहां निवास करते जब राजा भारमल (बिहारीमल) ने मुगल सम्राट थे। वस्तुतः, इस राज्य में प्रायः प्रारंभ से जैनों प्रकबर की अधीनता स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करली की अच्छी बस्ती एवं प्रभाव-प्रतिष्ठा रही है,
और अपनी पुत्री का बादशाह के साथ विवाह कर राजधानी में ही नहीं, राज्य के अनेक कस्बों, ग्रामों दिया । फलस्वरूप भारमल के पुत्र राजा भगवान आदि में भी। अकबर द्वारा 1567 ई० में चित्तौड़ दास और पौत्र महाराज मानसिंह मुगल साम्राज्य का विध्वंस एवं उस पर अधिकार कर लेने के के प्रधान स्तम्भ और उसके विस्तार एवं शक्ति परिणामस्वरूप चित्तौड़ का नन्दीसंधी भट्टारकीय संवर्द्धन में सर्वाधिक सहायक बने। उनके उत्तराधि- पट्ट भी वहाँ से उठकर आमेर चला आया-उस कारियों, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई राजा समय पट्ट पर भट्टारक चन्द्रकीति (1565-1605 जयसिंह आदि ने भी इसी परम्परा का निर्वाह ई०) प्रामीन थे। कालान्तर में चाटसू, सांगानेर, किया, और साथ ही आमेर राज्य की शक्ति एवं महावीर जी आदि राज्य के अन्य कई स्थानों में समृद्धि में अभूतपूर्व उन्नति हुई और इस दृष्टि से भी शाखापट्ट स्थापित हुए। जयपुर राजधानी बन वह राजस्थान का सर्व प्रमुख राज्य बन गया। जाने पर तत्कालीन भट्टारक देवेन्द्रकीति (1713
1741 ई) ने भी अपनी गद्दी आमेर से हटाकर महाराज सवाई जयसिंह (1690-1743 ई.) अपने युग का प्रायः सर्वोपरि राजनीतिपटु, कुशल
जयपुर में ही स्थापित करदी। विभिन्न समयों में
लगभग पचास-साठ जैनों के इस राज्य के दीवान प्रशासक, विद्यारसिक, कलाप्रेमी एवं विद्वान राजपूत
पद पर प्रतिष्ठित रहने का पता चलता है । अन्य नरेश था। गद्दी पर बैठने के कुछ ही वर्ष बाद उसने सुनियोजित ढंग से एक अति भव्य नगर का
पदों पर, छोटे-बड़े राज्य कर्मचारियों के रूप में निर्माण प्रारम्भ कर दिया, उसे अनेक सुन्दर
अनगिनत जैन राज्य की सेवा करते रहे हैं। राज्य
तथा राजधानी के साहुकारा, महाजनी, विविध भवनों, उद्यानों, हाट-बाजारों आदि से अलङ्कृत
व्यापार एवं उद्योग धन्धों में जैनों का प्रमुख भाग किया-प्रजा के धनीवर्ग ने भी सोत्साह सहयोग दिया । जब 1727 ई० में नगर का निर्माण कार्य
रहता आया है। सैकड़ों भव्य एवं विशाल जिन समाप्त प्रायः हो गया तो राजधानी को भी प्रामेर
मंदिर और अनेकों सांस्कृतिक, शिक्षा एवं सार्व
जनिक जैन संस्थाएँ यहाँ विद्यमान हैं। और, जैन से स्थानान्तरित करके इसी दर्शनीय जयनगर में, जो कालान्तर में जयपुर नाम से विख्यात हुअा,
साहित्य के निर्माण एवं प्रसार में जयपुर का जो स्थापित कर दिया।
योग रहा है वह प्रायः अद्वितीय है। इस नगर के
निवासी डा० कस्तूरचंद कासलीवाल इसे 'जैननगर' ढढाहर प्रदेश में जैनों का निवास अति की जो संज्ञा देते हैं उसमें अत्युक्ति नहीं है । प्राचीन काल से रहा आया लगता है । वैराट नगर के प्राचीन जैनपुरातत्त्व एवं अभिलेखों के अतिरिक्त जयपुर क्षेत्र को कम से कम सौ-सवासौ अच्छे जयपुर के पुराने घाट के निकट झामडोली में स्थित जैन विद्वानों, साहित्यकारों, कवियों आदि को जन्म एक प्राचीन शिवालय में, जो हनुमान मन्दिर के देने का श्रेय है, जिनमें से अधिकांश सन् 1727 एक भाग में स्थित है, सन् 1155 ई० का एक ई० में जयपुर नगर की स्थापना के बाद ही हुए हैं शिलालेख प्राप्त हुआ जिससे विदित होता है कि और इस महानगर से ही सम्बन्धित रहे हैं । जयपुर उसकाल में सेनसंघ के छत्रसेन, अम्बरसेन प्रादि नगर के गत अढ़ाई सौ वर्ष के इतिहास में भी
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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