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मन्दिरों के बाहर इनकी पूजा होती थी । दूर से ही पंक्ति - 1- श्रीं श्री जिनदेव श्रुतिस्थानु श्री भावदेव मंदिर का पता लगता था । 8
नामाभूताचार्य विजयसिंह
मानस्तम्भ देवगढ़ व केहोन देवरिया उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध ही हैं किन्तु वे एक ही पत्थर के बने हैं । उन पर चौमुखियों को लगा देते होंगे जिससे चतुर्दिक् लोग इनके दर्शनों से लाभ उठा सकें । वैसे समवशरण के अवसर पर भी इस प्रकार की मूर्तियों का होना समुपस्थित देव, किन्नरों, मानव, पशु, पक्षियों सभी की सुविधा के लिए आवश्यक था । राज्य संग्रहालय लखनऊ की चौमुखी प्रतिमाओं पर एक ही या चार तीर्थंकरों कान पाते हैं । इनमें 8 पर तो लेख उत्कीरिणत हैं । कुछ के ऊपरी भाग (धड़) मात्र ही शेष हैं ।
संग्रह की मध्यकालीन ग्रभिलिखित, एक मात्र बैठी सर्वतोभद्रप्रतिमा का साक्षात्कार यहां प्रस्तुत है । आलोच्य प्रतिमा लाल बलुए चित्तीदार पत्थर की बनी है । प्रतिमा का ऊपरी भाग टूटा है । दो बैठी प्रतिमाओं के मुखं भी क्षतिग्रस्त हैं। ऊपर कहीं त्रिछत्र, नीचे कैवल्य वृक्ष का विलेखन शेष है । चारों ओर एक जैसी ही ग्रह प्रतिमा बनी है । कहीं भी सर्पफरण या, कंधों पर लटों का कन नहीं है | ( साथ के चित्रों से देखें) अर्हन् पद्मासन में ध्यानस्थ हैं । वक्ष पर श्रीवत्स है । जिनके मुख सुरक्षित हैं । उन पर घुंघराले बालों को दर्शाया है । शारीरिक सौष्ठव तरुण एवं रूपवान बनाया गया है । बैठकी पर चार ओर तीन बड़े फूलों का अलंकरण है जिस पर वस्त्र नोचे झूल रहा है। दोनों श्रोर सिंह बैठे हैं तथा उनके पास खम्भा बना है । इस प्रतिमा का आधार पीठ तीन ओर तो बिल्कुल सादा है । किन्तु एक श्रोर देवनागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में लेख इस प्रकार ख़ुदा है
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2. तच्चिष्यस्तेन च प्रोक्तः ॥ सुश्राव - करिन नवग्रामस्थानादिस्थ स्वसकीत्तिः ।
चतुर्विम्ब:
सभक्तिभिः संवत्सरे 1080 वनकप
4. पकाभ्यां घटितः ।। ओ ।।
3. वर्द्ध मानस्य
कारितोयं
अर्थात् विजयसिंह के शिष्य की प्रेरणा से सुश्रावक ने सम्वत् 1080 (अर्थात् 1023 ई०) में इस वर्द्धमान के चतुबिम्ब को बनवाया । मथुरा में इस प्रतिमा का उस समय स्थापित किया जाना विशेष महत्व रखता है जिस क्षण चारों प्रोर लूट खसोट एवं प्रतिमाओं को विनष्ट करने तोड़ने-फोड़ने का सुनियोजित अभियान समाप्त ही हुआ हो क्योंकि सन् 1018 में मोहम्मद गजनी की क्रूर दृष्टि का शिकार मथुरा भी हो चुका था । श्राक्रमण से शान्ति पाते ही इसे गढ़ा गया था। चूँकि प्रतिमा बैठी है इस कारण निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि दिगम्बरी प्रतिमा है अथवा श्वेताम्बरी क्योंकि कंकाली टीले से पहले तो दिगम्बर प्रतिमाएँ मिली थीं किन्तु मध्यकाल की श्वेताम्बरी तीन प्रतिमाएँ संग्रह में हैं तथा अभिलेख का विजयसिंहसूरि शब्द भी इसका श्वेताम्बर होना ही सिद्ध करता है । यहाँ इतना तो स्पष्ट होता है कि सर्वतोभद्र सर्वमंगला चौमुखी का पर्यायवाची चतुबिम्ब भी प्रचलित था और यहाँ वर्द्धमान भगवान का ही चतुर्दिक दर्शनाङ्कन है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78.
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