________________
जो प्रतिमाएँ चारों दिशाओं से देखी जा सकें वे प्रतिमाएं सर्वतोभद्र कहलाती हैं । ये कई प्रकार की होती हैं यथा - एक ही प्रतिमा के चार मुख, प्रत्येक दिशा में एक तीर्थंकर की चार प्रतिमाएँ, प्रत्येक दिशा में चार भिन्नfra area की मूर्तियाँ श्रादि । ये मूर्तियाँ खड्गासन अथवा पद्मासन दोनों ही प्रकार की होती हैं। प्रायः मानस्तंभों पर इस प्रकार की मूर्तियों के विराजमान करने का प्रचलन था । तीर्थकरों के समवसरण में ऐसे हो मानस्तंभ होने का विश्ररण जैन शास्त्रों में प्राप्य है । लेखक ने जिस प्रतिमा का वर्णन दिया है वह 'प्रतिमालेख में विजयसिंह नाम के कारण हो श्वेताम्बर प्रतिमा सिद्ध नहीं होती जैसा कि लेखक ने माना है अपितु इस कारण भी वह श्वेताम्बरीय है कि फूलों पर वस्त्र नीचे झूलता बताया गया है। प्रतिमालेख में मूर्ति घडने वाले दो कारीगरों के नाम (1) वनक तथा (2) पपक भी हैं ।
---पोल्याका
सर्वतोभद्र प्रतिमा
प्रतिमा सर्वतोभद्र, सर्वतोमंगल को जन-भाषा में चौमुखी कहते हैं---जो चौकोर स्तम्भ के चारों तरफ तप में चार जिन बैठे या खड़े बनाये जाते हैं। विद्वानों के बीच यह विवाद का विषय है कि इस प्रकार की प्रतिमाओं के गढ़ने की प्राचीनतम परम्परा जैन है अथवा ब्राह्मरण, 1 क्योंकि शिव की चतुर्मुखी मूर्तियाँ बनती ही थीं ।" छोट से एक लघु स्तूप मिला है जिस पर चारों तरफ बुद्ध की मूर्तियों का अंकन है । 3
जैन कला के अन्तर्गत चौमुखी प्रतिमाओं की परम्परा का ज्ञान कुषारण सं० 5+78 = 83 ई० से ही होने लगता है 14 लखनऊ में सं० 5 की
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
Jain Education International
श्री शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी, एम.ए. (इतिहास, पुरातत्व) पुरातत्व संग्रहालय, लखनऊ
प्राचीनतम चौमुखी है । लखनऊ संग्रहालय सर्वतोभद्र प्रतिमानों की कुल संख्या 19 थी जिनमें से एक शिमला संग्रहालय को दे दी गई । संग्रह में 16 प्रतिमाएँ कंकाली टीले मथुरा से ही प्राप्त हुई थीं ।" शेष तीन फैजाबाद, अहिच्छत्रा (रामनगर, वरेली) व सराय औघट जिला एटा की हैं । इनमें प्रथम व अन्तिम 9 वीं 10 वीं शती ई० की हैं । तथा मध्य की कुषाण कालीन । इन प्रतिमाओं पर चारों ओर अर्हतों का अंकन होता था । कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों के ऊपर गोल या चौकोर छेद पाये जाते तथा कुछ में नीचे खूंट निकली रहती हैं जिससे यह प्रतीत होता है कि स्तम्भ पर इन्हें कस दिया जाता होगा 17
For Private & Personal Use Only
2-27
www.jainelibrary.org