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अपने इष्ट के प्रति अनन्य अनुराग भक्ति कहलाती है। वह प्रायः दो प्रकार से की जाती है। अपने आराध्य को जीवन लीलाओं तथा उनके पतितोद्धारक, दोनरक्षक, मुक्तिप्रदाता आदि गुणों का गान करके अथवा आत्मा परमात्मा के अजर, अमर, अक्षत, निरंजन, चिदानन्द आदि विशेषताओं का बखान करके तथा उपास्य और उपासक के एकाकार होने की भावना भा कर । प्रथम भक्ति सगुण और दूसरी निर्गुण भक्ति कहलाती है। यद्यपि जैन ईश्वर को कर्ता, हर्ता, फलप्रदाता सृष्टि का नियन्ता नहीं मानते तथापि वे पंच परमेष्ठियों की भक्ति को अपने इष्ट की प्राप्ति में निमित्त मानते हैं अतः ऊपरी दृष्टि से वैष्णव सगुण भक्ति और जैनों के अपने उपास्य की भक्ति में कोई भेद दिखाई नहीं देता। प्रायः ऐसा कहा जाता है कि जैन भक्ति पदों पर वैष्णव सगुण भक्तों का पर्याप्त प्रभाव है किन्तु बात इससे ठीक उलटी है । कृष्ण और राम वैष्णव सगुण उपासकों के प्रमुख उपास्य हैं और सूर तथा तुलसी प्रमुख उपासक । तुलसी की रामायण जहां जैन स्वयंभू कवि से प्रभावित है वहां सूर के कृष्ण काव्य पर अपभ्रश के जैन कृष्ण काव्यों का प्रभाव है । कैसे ? यह इस निबन्ध से जानिये ।
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-पोल्याका
सर के काव्य पर अपनश-कृष्ण काव्य का प्रभाव
.प्रो० श्रीरंजन सूरिदेव संपादक-'परिषद् पत्रिका' बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
अपभ्रश, भाषा की विकास-परम्परा में होना या उनका आधार ग्रहण करना काव्य रचना भारतीय प्राच्यभाषा की अन्तिम विकसित अवस्था परम्परा की सहज एकसूत्रता का द्योतक है। है और यह आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं से इसलिए, अपभ्रंश और हिन्दी-काव्यों में समानता प्रापाततः सम्बद्ध है। परिनिष्ठित अपभ्रंश में स्थापित करने वाली तात्त्विक प्रवृत्तियों का समावेश प्रादेशिकता के सन्निधान के कारण प्राचार्य हेमचन्द्र हिन्दी-साहित्य के इतिहास का एक उज्ज्वल पक्ष है। (12 वीं शती) ने इसे ग्राम्य अपभ्रंश की संज्ञा दी है । हेमचन्द्र द्वारा सन्दर्भित इसी ग्राम्य अपभ्रंश से अपभ्रंश-भाषा का समय पांचवीं शती से हिन्दी का विकास हुआ है । अतएव, प्राचीन हिन्दी तेरहवीं-चौदहवीं शती तक दृष्टिगोचर होता है। कवियों का अपभ्रंश-कवियों की कृतियों से प्रभावित किन्तु, अपभ्रंश-साहित्य की उपलब्धि आठवीं शती
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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