________________
तुम स्वयं महावीर हो
हास्य कवि, श्री हजारीलाल 'काका' बुन्देलखण्डी पो० सकरार
जिला, झांसी उ० प्र० कवटें बदलोगे कब तक विस्तरों पर, बहुत सोये अब खुमारी को हटा दो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलायें, तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो, लेकिन तुम्हें फुर्सत कहां इस राग रंग से, सांझ होने को हुई पर गा रहे अब भी प्रभाती, बज रहे हैं कूच के बेसुर नगाड़े, पर तुम्हें अब भी प्रणय सरगम सुहाती, छोड़ना होगा तुम्हें अब इस मकां को, इसलिए तुम स्वयं ही आसन हटा लो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलाये, तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो ।
बन चुके महमान कितने इस मकां के तुम समझते हो कि शायद हमीं पहले, क्रम न टूटा आज तक इस कारवां का आ चुके कितने यहां नहले पै दहले, इसलिये अध्यात्म की गंगा बहाकर नाम अपना मोक्ष सूची में लिखा लो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलायें तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो ।
प्रापको अभिमान होगा लक्ष्मी पर किन्तु प्रामित्क शांति दे सकता न ये धन, अर्थ के जल से भी किसकी पिपासा जब तलक वर्षा नहीं सम्यक्त्व का घन, इसलिये 'काका' जगत से दृष्टि फेरो वक्त है चारित्र की गंगा नहालो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलायें तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो,
2-72
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org