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बालनपर होना चाहता था, अतः मैंने अपने संग्रह को टटोला तो उसमें मुझे टोडरमलजी कृत विभिन्न रागों में पाठ पद प्राप्त हों गए मैंने सोचा कि ये पद जिस किसी टोडरमल के हों पर कवि तो जयपुर या उसके पास पास कहीं राजस्थान का ही होना चाहिए अतः मैंने अपने लेख के लिए इन्हीं पदों को उपयुक्त समझा और प्रस्तुत लेख में विद्वान् प्राध्यात्म प्रेमी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है ।
इन पदों में आध्यात्मिकता और सरसता कूट कूट कर भरी पडी है जो बडी चित्तार्षक और ममोहारी है । सांसारिक भव भोगों से निवृत्ति का बडा ही रोचक और अनोखा वर्णन विद्यमान है । पहले ही पद में आदिनाथ स्वामी की बाललीला का वर्णन तो हिन्दी के महाकवि सूरदास की बाललीला को भी फीका कर देता है। माता मरुदेवी का अपने पुत्र आदिनाथ को खिलाने का कैसा सुन्दर और रोचक वर्णन प्रस्तुत पद में विद्यमान है। यह पाठकों को सहज ही प्राकर्षित कर लेता है। पलंने की रचना, घुघराले बाल, ठमकभरी चाल, देवों गन्धवों का प्यार, माता पिता का प्रभु की छवि का निरखना आदि सभी का वर्णन बडे ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
शेष अन्य पदों में आध्यात्मिकता की पुट जैसी गहरी और सुपुष्ट है उसे कोई आध्यात्म प्रेमी ही समझ सकता है । लोगों को संसार के जंजाल से छूटने की जैसी अच्छी सलाह कवि ने दी है वह वहुत ही अनुकरणीय एवं मोक्ष मार्ग का पथ प्रशस्त करने वाले हैं। इन्द्रिय भोगों से विरक्त होने के लिए तीसरा पद बहुत ही सुन्दर और उत्तम है । संसार कैसा जंजाल है. इस का उत्तम वर्णन सातवें पद में विद्यमान है।
अंतिम पद में "साढ़ी बतिया,' शब्द इस बात का द्योतक है कि कवि पर कहीं पंजाबी भाषा का प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है क्योंकि साढ़ी शब्द पंजाबी का है पर संभव है इसका प्रचलन राजस्थानी में भी हो। सातवें पद में 'टोडर ब्रह्म' से ऐसा प्रतीत होता है कि इन पदों के रचयिता कोई ब्रह्म टोडर नाम के कवि हों ? कुछ भी हो, पद उच्चकोटि की आध्यात्मिकता से भरपूर हैं।
टोडर के पद (1) राग गौरी
देखो खिलावत मरुदेव्या नंदन नाभिकुमार । पलना रतन खचित हलरावति झूलउ ललन दुलार ॥ टेक ।। सोभित मुकुट जटित वैदूरज हीरा लाल सुढार ।। अति छबि तिलकु बनी केसरि को घूघर वारे बार ।।2।। राजत कनक भूमि रज अंगन मोतिन बंदनवार । ठुमका चालि चलत जग जीवनि घुगुरनि की झनकार ।।३।। वरसत मंद मंद जलकनिका कुसुम वृष्टि अधिकार । गंधर्व नृत्य करत ता थेई ता थेई सबद करत जैकार ।।4।। किन्नर करत मधुर सुर गौरी झांझि मृदंग दुतार । नभचर थकित भए धुनि सुनकर अनहद बजै धुकार ।।5।। अबलोकत चुम्बत मुख सुत को प्राउर ललन हमार ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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