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प्रात्म-गीत
*श्री भगवानस्वरूप जैन "जिज्ञासु"
एम० डी० जैन इण्टर कालेज,
मागरा।
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मैं पंछी उन्मुक्त गगन का, मुझे मुक्ति से प्यार है ।
मेरा घर अति दूर-दूर, भव-सागर के उस पार है ।। माना प्रष्ट कर्म बन्धन में, मैं अनादि से अटका हूं ।
और चतुर्गति-चक्र मध्य भी, मैं हर युग में भटका हूं ॥ माना लख चौरासी में मैं. अनगिन कष्ट उठाये हैं । जन्म-जरा-मरणादि अन्ते, क्लेश घनेरे पाये हैं।।
किन्तु कुफल ये पर-परिणति के, मम सुख मम प्राधार है।
मैरा घर अति दूर-दूर, भव-सागर के उस पार है ।। कस्तूरी मृग तुल्य सदा मैं, भव-वन में भरमाया हूं । पर विभाव की निज अादत से, बाज न अब तक आया हूं। निज सुख-शान्ति-बन्ध को पर में पाने की हठ ठान रहा। मात्म शान्ति-जल भूल भोग-लपटों को ही जल मान रहा ।।
मृग मरीचिका प्यासे मृग को दारुण दुख दातार है । मेरा घर अति दूर-दूर, भव सागर के उस पार है ।
पर-परिणति रूपी विभाव का कुल प्रभाव प्रब करना है । निज परिणति रूपी नौका से भव-सागर को तरना है। स्व-पर-भेद विज्ञान सहारे, अद्भुत यान बनाना है । धर्म्य-शुक्ल शुभ ध्यान धार कर मुक्ति पुरी को जाना है ।
मुक्ति पुरी ही मंजिल अपनी, शाश्वत सुख-भंडार है । मेरा घर अति दूर-दूर, भव-सागर के उस पार है ।।
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महावीर जयन्तिी स्मारिका 78
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