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बोई । 12 - जैन साधकों ने भी मीरां के समान गुरु(सद्गुरु की महत्ता को साधना का मार्ग प्रशस्त बनाने के सन्दर्भ में अभिव्यंजित किया है । अन्तर मात्र प्रेम की चिनगारी प्रज्ज्वलित करने का है। मीरा का प्रेम माधुर्य भाव का है जिसमें कृष्ण की उपासना प्रियतम के रूप में की है । इससे अधिक सुन्दर सम्बन्ध की कल्पना हो भी नहीं सकती । विरह और मिलन की जो अनुभूति और अभिव्यक्ति इस माधुर्य भाव में खिली है वह सख्य और दास्य भाव में कहाँ । इसलिए मीरां के समान ही जैन कवियों ने दाम्पत्यमूल भाव को ही अपनाया है । मीरा प्रियतम के प्रेम रस में भीगी चुनरिया को प्रोड़कर साज शृंगार करके प्रियतम
ढूंढने जाती हैं उसके विरह में तड़पती है । इस सन्दर्भ बारहमासे का चित्रण भी किया गया है । सारी सृष्टि मिलन की उत्कण्ठा में साज सजा रही है परन्तु मीरां को प्रियतम का वियोग खल रहा है । प्राखिर प्रियतम से मिलन होता है । वह तो उसके हृदय में ही बसा हुआ है वह क्यों यहां वहां भटके | यह दृढ़ विश्वास उसे हो जाता है । उस अगम देश का भी मीरा ने मोहक वर्णन किया है ।
जैन साधकों की आत्मा भी मीरां के समान अपने प्रियतम के विरह में तड़पती है । 14 भूधरदास की राजुल रूप आत्मा अपने प्रियतम नेमिश्वर के के विरह में मीरां के समान ही तड़पती है । 15 इसी सन्दर्भ में मीरा के समान बारहमासों की भी
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2- वही, पृ० 222
3. मीरा पदावली, पृ० 20
सर्जना हुई है । 10 प्रियतम से मिलन होता है और उस आनन्दोपलब्धि की व्यंजना मीरां से कहीं अधिक सरल बन पड़ी है ।17 सूर और तुलसी यद्यपि मूलतः रहस्यवादी कवि नहीं हैं फिर भी उनके कुछ पदों में रहस्यभावनात्मक अनुभूति झलकती है जिनका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं ।
1. भीजें चुनरिया प्रेमरस बून्दन ।
आरत साजकै चली है सुहागिन पिय पिय अपने को ढूढ़न ॥
मीरा की प्रेम साधना, पृ० 218
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इस प्रकार सगुण
भक्तों की रहस्य भावना जैन धर्म की रहस्य भावना से बहुत कुछ मिलतीजुलती है । जो अन्तर भी है, वह दार्शनिक पक्ष की पृष्ठभूमि पर आधारित है । साधारणतः मुक्ति के साधक और बाधक तत्वों को समान रूप से सभी ने स्वीकार किया है। संसार की असारता और मानव जन्म को दुर्लभता से भी किसी को इन्कार नहीं । प्रपत्ति भावना गर्भित दाम्पत्यमूलक प्रेम को भी सभी कवियों ने हीनाधिक रूप से अपनाया है । परन्तु जैन कवियों का दृष्टिकोण सिद्धान्तों के निरूपण के साथ ही भक्तिभाव को प्रदर्शित करता रहा है। इसलिए जैनेतर कवियों की तुलना में उनमें भावुकता के दर्शन उतने अधिक नहीं हो पाते । फिर भी रहस्य भावना के सभी तत्व उनके काव्य में दिखाई देते हैं । तथ्य तो यह है कि दर्शन और अध्यात्म की रहस्य - भावना का जितना सुन्दर समन्वय मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों के काव्य में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं । साहित्य-क्षेत्र के लिए उनकी यह एक अनुपम देन मानी जानी चाहिये ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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