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से जिनसेनाचार्य ने तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति, देश, प्रान्त और प्रमुख पर्वत, नगर, नदियाँ, वृक्ष, वनस्पतियां, पशु, पक्षी, दक्षिण से लगाकर उत्तर-पूर्व और उत्तर-पश्चिम के दक्षिण पथ के मार्ग और विध्य के उत्तर में उत्तर के प्रमुख महा जनपथों के सम्बन्ध में प्रभूत व प्रामाणिक जानकारी प्रदान की है । देश के तत्कालीन सामाजिक जीवन, व्यापार, कृषि, शिक्षा, साहित्य, सामाजिक रीतिरिवाज एवं धार्मिक विश्वासों तथा ग्रामीण व नागरिक जीवन का सटीक परिचय प्राप्त करने की दृष्टि से भी यहां प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है । देश की राजनैतिक अवस्था के सम्बन्ध में कवि ने प्रत्यक्ष तो नहीं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से जो संकेत दिये हैं उनसे तत्कालीन समय की राजनैतिक अवस्था का अच्छा बोध हो जाता है ।
भौगोलिक स्थिति
भारतवर्ष के भौगोलिक विभाजनों का कवि का ज्ञान विशद और प्रामाणिक था । इसकी अनुभूति हमें हरिवंशपुराण के ११ वें सर्ग में वरिंगत भगवान ऋषभदेव की दीक्षा के प्रकरण में चारों दिशाओं के अनेक नगरों के उल्लिखित होने से होती है— कुरूजांगाल, पांचाल, सुरसेन, पटॅचर, यवन, अभीर और भद्रक, क्वाथतोय, तुलिंग, काशी, कौशल्य, मंद्राकार, वृकार्थक, सोल्व, प्रावृष्ट, त्रिगर्त, कुशाग्र, आत्रेय, काम्बोज, शूर, बाटवाता कैकय, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, भारद्वाज, दशरूक, प्रास्थाल और तीक ये देश उत्तर दिशा की और थे । खंग, अगारक, पौण्ड्र, मल्ल, युवक, मस्तक, प्राग्ज्योतिष, वंग, मगध, मानवर्तिक, मलद और भार्गव ये देश पूर्व दिशा में स्थित थे । वाणमुक्त, वैदर्भमाणव. कलिंग प्रांसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिस्क, पुरुष और भौगवर्दन ये दक्षिण दिशा के देश थे । माल्य, कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सुप र्ट, कर्मुक, काशि, नासारिक, अगर्त, सारस्वत तापस, महिम भरूकच्छ, सुराष्ट्र और नर्मद ये पश्चिम दिशा के देश थे ।
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दशाक, किष्किन्ध, त्रिपुर, आवर्त, नंषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, वंदिश, अन्तप, कौशल, पतन और विनिहात्र ये देश विन्ध्याचल के ऊपर स्थित थे । भद्र, वत्स, विदेश, कुश, मंग, सैतव और वज्रखंडिक ये देश मध्यदेश के प्राश्रित थे । 1 इनमें वत्स, अवन्ती, कौशल और मगध में राजतन्त्र था, बाकी गणतन्त्रात्मक थे ।
राजतन्त्रों का राजा निरंकुश नहीं होता था, वह मन्त्रिपरिषद की राय से कार्य करता था और प्रजा की भावना का समादर करता था । गणतन्त्र में कहीं एक मुख्य राजा होता था, कहीं गरणराजान की परिषद थी, कहीं मुख्य राजा होते हुए भी गणपरिषद् प्रधान थी और कहीं मुख्य-गरण बारी-बारी से राज्य करते थे । कुछेक महत्वाकांक्षी विस्तार लोलुप सम्राट भी थे । गणतन्त्रों से इनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे और कभी कभी वे युद्ध तक कर बैठते थे । गणतन्त्रों के सम्बन्ध आपस में प्रायः अच्छे थे । कारण विशेष से कभी कभी कुछ विवाद भी उठते रहते थे । नदी, जल, परिवहन, ग्राम आदि के कारणों से विवाद उठना ही इनमें मुख्य था । कभी कभी किसी कन्या को लेकर भी झगड़े खड़े हो जाते थे ।
राजा का पद परम्परागत होता था । राजा के अपदस्थ होने पर उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्याधिकारी होता था । 2 पुत्र विहीन राजा का उत्तराधिकारी उसकी पुत्री का पुत्र होता था । राज्यासन पर पदारूढ़ होने से पूर्व अभिषेक होने की परम्परा थी |३
इस काल का भारतीय समाज युद्ध विज्ञान में पर्याप्त उन्नति कर चुका था । स्वार्थसिद्धि के लिये देव, असुर, मानव और पशु सबका चरम साधन एक मात्र युद्ध ही था । पशुत्रों और मनुष्यों में भी युद्ध होने के उदाहरण दृष्टिगत होते हैं ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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