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जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव का लक्ष्य जाता है ।'22 पर ब्रह्मत्व अर्थात् शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करना है,
___'उस परमात्मा को जब केवल ज्ञान उत्पन्न
होता है, योग निरोध के द्वारा समस्त कर्म नष्ट 'जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ हो जाते हैं, जब वह लोक शिखर पर सिद्धालय वही परमात्मा है । इस प्रकार मैं ही स्वयं अपना में जा बसता है तब उसमें ही वह कारण परमात्मा उपास्य हं। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है । 20 व्यक्त हो जाता है । 23
'जो व्यवहार दृष्टि से देह रूपी देवालय में निवास करता है और परमार्थतः देह से भिन्न है जैन दर्शन की सृष्टि व्यवस्था के सम्बन्ध में वह मेरा उपास्यदेव अनादि अनन्त है। वह केवल ईश्वर की कतृत्व शक्ति का निषेध तथा सर्व व्याज्ञान स्वभावी है । निःसंदेह वही प्रचलित स्वरूप पक एक परमात्मा के स्थान पर प्रत्येक जीवन का कारण परमात्मा है ।
मुक्त हो जाने पर कार्य-परमात्मा बन जाने संबंधी
विचारधारा का प्रभाव परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों 'कारण परमात्मा स्वरूप इस परम तत्व की पर पड़ा है । वस्तुत: स्वभाव एवं कर्म इन दो उपासना करने से यह कर्मोपाधि युक्त जीवात्मा शक्तियों के अतिरिक्त शरीर, इन्द्रिय एवं जगत के ही परमात्मा हो जाता है जिस प्रकार बांस का वृक्ष कारण रूप में 'ईश्वर' नामक किसी अन्य सत्ता अपने को अपने से रगड़कर स्वयं अग्नि रूप हो की कल्पना व्यर्थ है ।'24
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सांख्य तत्व कौमुदी, कारिका 18, 191 2. वही-कारिका 11, 12, 14 । सांख्य सूत्र 351 प्रकाश 2 1
4 . सांख्य सूत्र 55 । प्रकाश 3 । सांख्य सूत्र 56-57 । प्रकाश 31
6. दे. सांख्य सूत्र 58 । प्रकाश 3। तैत्तिरीयोपनिषद 3 1 ]; 3 1 6 और ब्रह्मसूत्र 11112 पर शांकर भाष्य' ।। ब्रह्म सूत्र 211114; 212129; विवेक चूडामणि 140; 142; वेदांत सार, पृ. 8। गीता 2120-24 एवं 2151 पर शांकर भाष्य । (क) ब्रह्मसूत्र 213133-39। (ख) श्वेताश्वतरोपनिषद् 416 । (ग) ईशोपनिषद् 3 । तर्क भाषा, पृ. 108 ।
12. वही-पृ. 181 । वही-पृ.152-1531
14. तर्क संग्रह, खण्ड 1।
10. 11. 13. 1-22
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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