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सोभा अधिक भली ।
भिन्न नहीं है। डॉ. मुन्शीराम शर्मा ने वेद, सेज सुखमणां मीरा सोवै,
पुराण, तन्त्र और प्राधुनिक विज्ञान के आधार सुभ है प्राज घड़ी।
पर यही निष्कर्ष निकाला है कि 'हरि लीला आत्म
शक्ति की विभिन्न क्रीड़ानों का चित्रण है । 4 राधा, जिनका प्रियतम परदेश में रहता है उन्हें
कृष्ण, गोपी आदि सब अन्तः शक्तियों के प्रतीक पत्रादि के माध्यम की आवश्यकता होती है पर
हैं। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के अध्ययन का मीरा का प्रिय तो उसके अन्तःकरण में ही वसता है, उसे पत्रादि लिखने की आवश्यकता ही नहीं ।
निष्कर्ष है कि "रहस्यवादी कविता का केन्द्रबिन्दु
है। वह वस्तु हैं जिसे भक्ति साहित्य में 'लीला' कहते रहती । सूर्य, चन्द्र आदि सब कुछ विनाशीक है । यद्यपि रहस्यवादी भक्तों की भांति पद-पद पर यदि कुछ अविनाशी है तो वह है प्रिय परमात्मा,
भगवान का नाम लेकर भाव-विह्वल नहीं हो जाता सुरति और निरति के दीपक में मन की वाती
परन्तु वह मूलतः है भक्त ही। ......"ये भगवान और प्रेम-हटी के तेल से उत्पन्न होने वाली ज्योति
अगम अगोचर तो हैं ही, वाणी और मन के भी अक्षण्ण रहेगी--
अतीत हैं, फिर भी रहस्यवादी कवि उनको प्रतिजिनका पिया परदेश वसत है,
दिन प्रतिक्षरण देखता रहता है ""संसार में जो लिख लिख भेजें पाती ।
कुछ घट रहा है और घटना सम्भव है, वह सब मेरा पिया मेरे हीय वसत है,
उस प्रेममय की लीला है " भगवान के साथ यह ना कहूं आती जाती ॥
निरन्तर चलने वाली प्रेम केलि ही रहस्यवादी चन्दा जायगा सूरज जायगा,
कविता का केन्द्रबिन्दु' है । अतः मीरा की प्रेमजायगा धरणि अकासी।
भावना में 'लीला' के इस निगुणत्व-निराकारत्व पवन पानी दोनों हूं जायगे,
तक और कदाचित् उससे परे भी प्रसारित सरस अटल रहै अविनाशी ।।
रूप का स्फूरण होना अस्वाभाविक नहीं है। सुरत निरत का दिवला संजोले,
आध्यात्मिक सत्ता में विश्वास करने वाले की दृष्टि मनसा की कर ले बाती।
से यह यथार्थ है, सत्य है । पश्चिम के विद्वानों के प्रेम हटी का तेल मंगाले,
अनुकरण पर इसे 'मिस्टिसिज्म' या रहस्यवाद जग रह्या दिन से राती ।।
कहना अनुचित है । यह केवल रहस् (प्रानन्दमयी सतगुरु मिलिया संसा भाग्या,
लीला) है और मीरां की भक्ति-भावना में इसी सैन बताई सांची।
'रहस्' का स्वर है । ना घर तेरा ना घर मेरा, गावै मीरा दासी ॥
सूर और तुलसी दोनों सगुणोपासक हैं पर
अन्तर यह है कि सूर की भक्ति सख्य भाव की डॉ० प्रभात ने मीरा की रहस्य भावना के है और तुलसी की भक्ति दास्य भाव की। सन्दर्भ में डॉ. शर्मा और डॉ. द्विवेदी के कथनों का इसी तरह मीरा की भक्ति भी सूर और तुलसी, उल्लेख करते हुए अपना निष्कर्ष दिया है। निगुण दोनों से पृथक् है। मीरा ने कान्ताभाव को अपभक्त बिना बाती, बिना तेल के दीप के प्रकाश में नाया है। इन सभी कवियों की अपेक्षा रहस्यपारब्रह्म के जिम खेल की चर्चा करता है, वह भावना की जो व्यापकता और अनुभूतिपरकता मूलत: सगुण भक्तों की हरि लीला' से विशेष जायसी में है वह अन्यत्र नहीं मिलती। कबीर को
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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