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भक्ति के सभी मंग भी उनके काव्य में मिलते हैं। मीरा विरहरिण सीतल होई, एकादश प्रासक्तियों में से कान्तासक्ति, रूपासक्ति दुख दुन्द दूर नसाया जी ।। मौर तन्मयासक्ति विशेष दृष्टव्य है । प्रयत्त भावना मीरा की तन्मयता और एकाकारता के दर्शन उनमें कूट-कूटकर भरी हुई है । उनकी आत्मा 'लगी मोहि राम खमारी हो' में मिलते हैं जहां वह दीपक की उस लौ के समान है जो अनन्त प्रकाश सदा लीन प्रानन्द' में रह कर ब्रह्मरस का पान में मिलने के लिए जल रही है ।
करती हैं। उनका ज्ञान और अज्ञान, प्रानन्द और सूफी कवियों ने परमात्मा की उपासना प्रिय
विषाद एक में ही लीन हो जाता है । इसी के लिए तमा के रूप में की है। उनके प्रदतवाद में निजी तो उन्होंने पचरंगी चोला पहिनकर झिरमिट में सत्ता को परमसत्ता में मिला देनी की भावना आंख मिचौनी खेली है और मनमोहन से सोने में गभित है । कबीर ने परमात्मा की उपासना प्रिय- सुहागा-सी प्रीति लगायी है । बड़े भाग से मीरा के तम के रूप में की पर उसमें उतनी भाव-व्यञ्जना
प्रभु गिरिधर नागर मीरा पर रीझे हैं । नहीं दिखाई देती जो मीरा के स्वर में निहित है। इसी माधर्य भाव में मीरा की चुनरिया प्रेममीरा के रंग-रंग में पिया का प्रेम भरा हुअा है रस की बूंदों से भीगती रही और आरती सजाकर जबकि कबीर समाज सुधार की ओर अधिक अग्र- सहागिन प्रिय को खोजने निकल पड़ी। उसे वर्षात सर हुए हैं।
और बिजली भी नहीं रोक सकी। प्रिय को खोजने ___ मीरा की भावुकता चीरहरण और रास की में उसकी नींद भी हराम हो गई, अग-अंग व्यालीलाओं में देखी जा सकती है जहां वे “अाज कुल हो गये पर प्रिय की वाणी की स्मृति से अनारी ले गयी सारी, बैठी कदम की डारी, म्हारे "अन्तर वेदन विरह की वह पीड़ न जानी" गई । गेल पड़यो गिरधारी" कहती हैं । प्रियतम के मिलन जैसे चातक घन के बिना और मछली पानी के हो जाने पर मीरा के तन की ताप मिट जाती है बिना व्याकुल रहती है वैसे ही मीरा "व्याकुल और सारा शरीर हर्ष से रोमाञ्चित हो उठता है- विरहणी सुध बुध विसरानी” बन गई । उसकी
पिया सूनी सेज भयावन लगने लगी, विरह से म्हाँरी अोलगिया घर आया जी,
जलने लगी । यह निगुण की सेज एक ऊंची तनकी ताप मिटी सुख पाया,
अटारी पर है, उसमें लाल किवाड़ लगे हैं, पंचरंगी हिलमिल मंगल गाया जी ।
झालर लगी है, मांग में सिन्दूर भरकर सुमिरण घन की धुनि सुनि मोर मगन भया,
का थाल हाथ में लेकर प्रिया प्रियतम के मिलन यू प्राणन्द आया जी ।
की बाट जोह रही है-- मगन भई मिली प्रभु अपणाँसू, भौ का दरद मिटाया जी ॥
ऊची अटरिया लाल क्विड़िया, चंद को देखि कमोदरिण फूल,
निर्गुन सेज बिछी। हरखि भया मेरी काया जी ।
पंचरंगी झालर सुभ सोहे, रग रग सीतल भई मेरी सजनी,
फूलन फूल कली। हरि मेरे महल सिधाया जी ।।
बाजूबंद कडूला सोहै. सब भगतन का कारज कीन्हा,
मांग में सिन्दूर भरी । सोई प्रभु मैं पाया जी ।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा,
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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