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था। इसका पूरा वर्णन एक 'मेला की लावणी' नामक हिन्दी रचना में प्राप्य है ।
इस प्रकार जैनों के मेले धर्म से जुड़े हुए होते थे और अब भी यह परंपरा कायम है | मंडल मांडना पूजन भजन नृत्य संगीत होना अभिषेक होना ही
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जिनमें प्रमुख होता है । खान पान सम्मान गौण रीति से होते हैं । इनमें धर्म प्रभावना होती है । जैनेतर भी इससे प्रभावित होते हैं । केवल ग्रामोद प्रमोद के लिये मेने नहीं लगाये जाते धार्मिक भावना ही इनके मूल में समाविष्ट है ।
महावीर रा स्वर गंजे है !
श्री घनश्याम मुदगल रा० संस्कृत विद्यालय, मनोहरपुर ।
भारत मांही धरम ग्लांनिरो, समय जदां भी प्रायो है । ॐ ही समै भारत महतारी, धरम पूत निपजायो हं ॥1॥ महावीर स्वामी अवतर, हिंसा रो भूत भगायो है । जैन धर्म से तीर्थंकर, जीवांने सुख पहुंचायो ||2|| ज नहीं बचा सको जीवांनै, तो मारण ने क्यूं धावो हो । दूजारा धन से शोषण कर, क्यूं अनीत पनादो हो ॥3॥ क्यूं जीवां सूं भेद करो, क्यूं घृणा भाव बढावो हो ॥ सब परम पिता रा अंश, क्यूं विधन नयो उपजावी हो ||4||
परगां जीवन मैं धार अहिंसा, सत्यव्रती वो श्रागे आयो । सम्यक दर्शन ज्ञान चरित्र सू, स्व पर को भेद जतायो ||5|| वो ज्ञान प्रकाश रो पुजीभूत, जग सेवा सू' नेह लगायो । देश विदेश में शिष्य बरगाया, अर जैन धर्म नै पायो ||6|| जैन धर्म री घूम मची, अज्ञान हट्यो धरती पर सू । दे उपदेश ज्ञान रवि चमक्यो, हिंसा घटी धरा पर सं ॥7॥ महावीर रा स्वर गूं जै है, प्राणी मात्र रा कलेजर सं । एटम जया शस्त्र बध्या, जग दुखी हुया हिंला डर सू ॥8॥ पंचशील नेहरू रो देखो, जैन धर्म से सार धरयो । गांधी भी मारग वरणा, वसुधा पर परो नाम कर्यो ॥ 9॥ सगरा जीव जोवर चावै, के थारो नुकसान कर्यो । हिंसा छोड हिंसक होवो, क्यूं परपंच में पांत्र धर्यो ॥10॥ आखा जगरा बुद्धिजीवियो, जैन धर्म सू' शिक्षा ल्यो । स्व-पर उपगार करन्ता, आदर्श इसारी दिक्षा त्यो ॥11॥
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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