Book Title: Ek Sadhe Sab Sadhe
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे [श्री चन्द्रप्रभ के जीवन-सापेक्ष ध्यान-विषयक उद्बोधन ] For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संविभाग श्री वीरकुमार संजीव कुमार बैद, दिल्ली श्रीमती निरंजना जैन ध. प. स्व. श्री विनोदकुमार जैन, अजमेर/जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे श्री चन्द्रप्रभ सम्पादन श्रीमती लता भंडारी / मीरा प्रकाशन जितयशा फाउंडेशन, कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन - वर्ष फरवरी, १९९७ प्रकाशक जितयशा फांउडेशन, ९ सी, एस्प्लनेड रो, ईस्ट, रूम नं. २८ कलकत्ता - ६९ सन्निधि गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी आवरण दिलीप गोपानी आवरण-मुद्रण ग्राफिक, जोधपुर कम्पोजिंग शर्मा कम्प्युटर, जोधपुर मुद्रक भारत प्रिण्टर्स (प्रेस), जोधपुर मूल्य : २५/ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-प्रवेश मनुष्य के सामने उसका अतीत राजमहलों के खंडहर की तरह उपस्थित है, वहीं भविष्य का द्वार आकाश और पृथ्वी को स्पर्श करते क्षितिज की तरह मुँह खोले खड़ा है । मनुष्य बेबूझ है अपने वर्तमान से । अतीत जैसा भी रहा, हम उसके तारतम्य होते हुए भी, वह हमारा बीता हुआ, जला हुआ साया है। भविष्य कितना भी स्वर्णिम होने की संभावना लिये हो, हमारे वर्तमान की ही अनुकृति बनेगा। जिन प्रबुद्धजनों की अन्तर्दृष्टि वर्तमान को बारीकी से देख-परख और सुधार रही है वे अतीत के असत् को दुहराने के बजाय अनायास ही भविष्य के भाग्यविधाता होंगे। हमारा वर्तमान हमारे समक्ष उपस्थित है । हम अपने वर्तमान के वैभव के भी द्रष्टा हैं और उसके कालुष्य के भी। वैभव और कालुष्य आँखों के बाहर भी है और भीतर भी। सूरज के अभाव में हए अंधकार को नज़रअंदाज़ करने के लिए दीप और विद्युत की रोशनी सहज कारगर है। हमें उस सनातन तमस् को काटने के लिए देश के सिपाही की तरह सन्नद्ध होना चाहिये, जिसे आकाश से बरसती रोशनी के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता। मनुष्य के अन्तर्मन में ग्रन्थियों और वृत्तियों का एक अन्धा प्रवाह बह रहा है। मनुष्य उस प्रवाह से मुक्त होने के प्रति पुरुषार्थशील नहीं है। वह सिर्फ प्रवाह में बहना जानता है । वह स्वयं वैभवशील होने के बजाय भीतर बैठे शून्य पुरुष को वस्तुओं के वैभव में उलझाये रहता है । उसके सुख का संसार वस्तुगत हुआ है। उसकी चेतना पर वस्तु का व्यक्तित्व ही हावी हुआ है। निर्जीव उसके जीवन की जड़ बन गया है । प्रकृति पुरुष में लीलती जा रही है और पुरुष प्रकृति में बेसुध प्रगट होता चला जा रहा है। चेतना और वस्तु For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का, देह और विदेह का अन्तर्संबन्ध और अन्तर्विरोध जारी है । आत्मविकास और आत्मसिद्धि जीवन के चेतनागत सत्यों का आधार और प्राण है । भारत के आर्ष-पुरुषों ने मानव-चेतना को उसकी निर्ग्रन्थता और निर्द्वन्द्वता के लिए अन्तर्बोध प्रदान किया है । उसे छिलकों को हटाकर फल खाने की कला दी है। क्या करना है और किससे बचना है, जीवन के मंगलकलश को पूरने के लिए यही तो जन-मन को जानने की बात है I 'इक साधे सब सधे' ध्यान मार्ग द्वारा चेतनागत सत्यों से साक्षात्कार के पहलुओं से जुड़ी हुई पुस्तक है। इसे हम पुस्तक न समझें । यह तो ज्ञात और उन्मुक्त सत्य को मिली सहज अभिव्यक्ति है । साधकों से कही गई बातें और उनके द्वारा व्यक्त की गई जिज्ञासाओं पर बोले गये वक्तव्य इसमें संकलित हुए हैं। प्रिय आत्मन् 'मीरा' जी ने उन बातों को लिपिबद्ध किया है और अजमेर ध्यान शिविर में दिये गये ये तथ्य जनचेतना के लिए सहज सुलभ हो गये हैं । जो जिन्हें श्रद्धा के मंच पर आसीन कर लेते हैं, वे उन गुरुजनों की सेवा का वह कोई भी मार्ग चुन लेते हैं, जिसकी उनमें सहज योग्यता- क्षमता है । 'इक साधे सब साधे' में गहराई है, एक ऐसी गहराई जिस पर कुछ कहकर नहीं, जिसे जीकर, जिसमें उतरकर जीवन और चेतना के अन्तर्मर्म का स्वामी हुआ जाता है । ये तो अन्तर - देहरी से भीतर - बाहर बिखर रही रोशनी के कण हैं । रोशनी सबको लाभान्वित करे, उसी में सर्व-सिद्धि का सौभाग्य निहित है । अन्तर्मन की ग्रन्थियों को पहचानने और उनसे मुक्त होने के लिए हम कायोत्सर्ग और आत्मध्यान का उपयोग करें । यह मार्ग जन-जन की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, यह अन्त: कामना है । नमस्कार । For Personal & Private Use Only - चन्द्रप्रभ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-क्रम १. ध्यान और हम २. कृत्य छोटे, प्रसाद अनुपम ३. परिवर्तन की पुरवाई ४. देह में देहातीत ५. विचारों की विपश्यना ६. मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत ___y ७. हृदय के खुलते द्वार ८. चेतना का रूपान्तरण ९. साक्षित्व के किनारे १०. अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा ११. ध्यानयोग-विधि-१ १२. ध्यानयोग-विधि-२ १२६ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमेर स्थित दादावाड़ी में ६ जून से १० जून १९९६ तक हुए संबोधि-ध्यान-शिविर में पूज्य श्री चन्द्रप्रभ द्वारा दिये गये अमृत प्रवचन एवं प्रश्न-समाधान For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान और हम [संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; ६-६-९६, प्रवचन] नव ने अतीत से वर्तमान तक अंधकार से घिरे कई युगों को देखा है। अंधकार से आवृत व्यक्तित्व के अंतर्मन में, जब प्रार्थना की कोंपलें फूटती हैं तो मनुष्य अहोभाव से पुकार ही उठता है : तमसो मा ज्योतिर्गमय। हे प्रभो ! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। लेकिन प्रभु ने मनुष्य को इतनी सामर्थ्य दी है कि तुम्हारे कर्म, तुम्हारे विचार, तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे मूर्त और अमूर्त संबन्ध ही ऐसे हों कि वे तमसो मा ज्योतिर्गमय हो जाएँ। आज की स्थिति इतनी विकट है कि अकेला इन्सान इस गहरे अंधकार से नहीं जूझ सकता। ऐसी स्थिति में वह प्रभु को सहयोगी बनाता है और प्रार्थना करता है ले चलो हमें प्रकाश की ओर, सत् की ओर, अमृत की ओर । मैं तो द हूँ, सागर बना सको तो तुम्हारी कृपा। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे यद्यपि मनुष्य अंधकार से घिरा हुआ है, फिर भी उसे अंधकार दिखाई नहीं देता और जिस दिन अंधकार का स्वरूप दिखाई दे जाए उसी दिन से प्रकाश की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। अभी हमारी पहचान जिस प्रकाश से है वह अत्यल्प है, अंधेरी रात में तारे की तरह । दीये के नीचे जितना अंधकार होता है बस उतने से प्रकाश से हम परिचित हैं। पिछले पाँच सौ वर्षों में विश्व ने विकास के नए आयाम देखे हैं, बहुतेरी नई दिशाएँ ढूँढी हैं, लेकिन विज्ञान के विकास के सोपान उस अंधकार की पहचान नहीं करा पाए जिसमें हमारी मानवीय समस्याएँ उलझी रहती हैं। हमने ढेर सारा बाह्य प्रकाश पाया है, पूरा संसार ही रोशनी से भरा है, लेकिन इस भरे हुए प्रकाश के मध्य मनुष्य जब अपने अंतर्मन की ओर आँख उठाता है तो पाता है कि कितना घुप्प अंधकार है। दीपावली पर दीयों से सजी हुई मुंडेर पर रोशनी के मध्य मनुष्य एक धब्बा देखता है, अंधकार का धब्बा, जो उसके अपने हृदय में है। बाहर की रोशनी उसके लिए एक व्यंग्य बन जाती है, जब वह अपने अन्त:करण को तमसावृत पाता है। व्यक्ति योग, कुण्डलिनी और चैतन्य-जागरण की बात कहता है, पर मैं प्रारम्भ करूंगा इस बात से कि हमें अंधकार का बोध तो हो । जब तक हमें बोध नहीं होगा कि मैं दुखी हूँ, तब तक बुद्ध के चार आर्य सत्य अपनी प्रासंगिकता कैसे रख पाएंगे? जब तक मनुष्य यह स्वीकार नहीं करता कि वह क्रोध में है, तब तक क्रोध-निवारण के मार्ग कैसे ढूँढ सकेगा? जब तुम स्वीकार करते हो कि तुम बुरे आदमी हो, तभी शायद अच्छाई की कोई किरण प्रगट हो सकती है। धर्म का आरम्भ ही अज्ञान के ज्ञान से होता है । अध्यात्म के बीज का अंकुरण अपने अनाड़ीपन के बोध से शुरू होता है। पिछले पचास वर्षों में बुद्धि और विज्ञान का अत्यधिक विकास हुआ है, फिर भी मनुष्य के पास अंधकार और अज्ञान है इसलिए वह व्यथित और पीड़ित है और मार्ग की तलाश में है । वह भटक रहा है कि मेरे लिए श्रेष्ठ मार्ग क्या हो सकता है ? जिन धर्मों का हम अनुसरण करते हैं, उन्होंने मार्ग तो बहुत बताए, लेकिन यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि हम उस युग में पैदा नहीं हुए हैं । या For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान और हम ३ तो हम उस धर्म और परम्परा से हजारों वर्ष आगे आ गए हैं या वे हजारों वर्ष पीछे छूट गए हैं। हम आरोप लगाते हैं कि वर्तमान पीढ़ी अधार्मिक है । तुम्हारे अर्थों में अधार्मिक हो सकती है, क्योंकि वह उन क्रियाकांडों में नहीं उलझना चाहती जिसे तुम धर्म कहते हो । तुम्हारी दृष्टि में पंडित-पुजारी, कथा-वाचक, महंत जो कहते हैं या जो करते-करवाते हैं वह धर्म है, पर आज का युवा उसकी वैज्ञानिकता का प्रमाण चाहता है । तुम उस पर परम्परा या धर्म के नाम से कुछ भी थोप नहीं सकते। मैं आज के युवा को अधार्मिक नहीं मानता। उनकी अपेक्षाओं को समझता हूँ । वे उस अंधकार से निकलना चाहते हैं जो उन पर लादा गया है। वे जानते हैं घुड़सवार, पैदल सेना या तीर कमान तीव्र गति वायुसेना या बन्दूक, टैंकों और मिसाइलों का मुकाबला नहीं कर सकते। हमने उस युग में जन्म लिया है जो अतीत के सम्पूर्ण इतिहास में कभी उपलब्ध नहीं था। तब भी तथ्य यही है कि सभ्यता का जितना विकास हुआ, उतना ही अपभ्रंश भी हुआ। हमारी मर्यादा, हमारी गरिमा, हमारा अदब, हमारी शालीनता न जाने किस भिखारी की कथरी ओढ़े बैठी है कि मनुष्यता का मूल्य ही नष्ट हो गया है। नैतिकता का ह्रास जीवन के प्रत्येक कदम पर हो रहा है । न तो नैतिक मूल्य बचे हैं और न नैतिक मर्यादाएँ। इसी कारण, नैतिकता के निषेध के कारण ही मनुष्य की आध्यात्मिक मृत्यु हुई है । अपने अमूर्त, आध्यात्मिक और नैतिक विचारों के कारण ही हम पशु से स्वयं को अलग कर पाते हैं। एक विभेद, भेद-विज्ञान हम पहचान सकते हैं। महावीर ने तो कहा कि शरीर और आत्मा अलग है, यह भेद-विज्ञान की मूल-बुनियादी बात है, लेकिन मैं कहूँगा कि मनुष्य यह पहचाने कि पशु में और उसमें क्या भेद है, कहाँ भिन्नता है । जो मनुष्य मनुष्य के मध्य और प्राणीजगत व मनुष्य के बीच क्या विभेद है, यह नहीं पहचान पाता, मैं नहीं समझता कि वह शरीर और आत्मा के विभेद को कोई मूल्य दे पाएगा। मैं देखता हूँ किसी पशु को और मनुष्य को । सामान्य जीवन की क्रियाएँ दोनों में एक जैसी चल रही हैं और जब तक मनुष्य इनसे ऊपर नहीं For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ उठता, अपने पशुत्व से कभी मुक्त नहीं हो पाएगा। तुम जरा सलीके से, करीने से करते होगे, पर चल वही रहा है । इसलिए जिसकी अन्तर्दृष्टि में, जिसके मानसिक बोध में इतनी-सी बात भी घर नहीं कर पाई कि मनुष्यत्व और पशुत्व में क्या भेद है, उसके लिए मुक्ति के द्वार कैसे खुल पाएंगे। तुम चाहे कितनी ही ऊँची आध्यात्मिक बातें या उसूल स्थापित कर लो, तुम मुक्त नहीं हो पाओगे । पशु की मूर्च्छा सीमित और मनुष्य की असीम । पशु का क्रोध क्षणिक और मनुष्य का सुदीर्घ है। मनुष्य तो अपने क्रोध को संभाले रखता है इस जीवन में भी और अगले जन्मों में भी । पशु समय - विशेष पर ही कामासक्त होता है और मनुष्य समय - मुक्त है, उसके पास कोई मर्यादा नहीं है, संयम नहीं है, स्वयं पर कोई नियंत्रण भी नहीं बचा है, संयम नहीं बचा है । इसीलिए मैंने कहा कि मनुष्य की आध्यात्मिक मृत्यु हो चुकी है । इक साधे सब सधे 1 मेरा आपसे संवाद इस बात का प्रयास है कि तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके और यह जन्म माता-पिता के संयोग से नहीं होगा । माता-पिता केवल शरीर को जन्म देते हैं । स्वयं का जन्म हमें खुद करना होता है । आध्यात्मिक धरातल पर स्वयं का जन्म ही सार्थक जन्म है । तुम्हें अपनी आत्मा को पुनर्जन्म देना है । तुम्हें द्विज होना है । यह द्विजता बाहर से ओढ़ी हुई या वंशानुगत नहीं है । द्विज अर्थात् पुन: उत्पन्न | यह द्विजता मिलेगी ध्यान में उतरने से । अपने अंधकार के प्रति जागरूकता के बढ़ने पर ही यह आध्यात्मिक जन्म हो सकता है। हाँ, यह स्मरण रखना कि ध्यान में उतरने पर प्रकाश मिले या न मिले, अंधकार की प्रतीति हो जाए, इस बात को जरूर खयाल में रखना । प्रकाश दीक्षा के मिलने से नहीं, वरन् अंधकार को देखने से प्रकाश की दीक्षा घटित होती है । जीवन को गहराई दो। तुम सौ वर्ष जीते हो या चालीस वर्ष, क्या फर्क पड़ता है, अगर स्वयं को न पा सके । जीवन की गहराई भीतर उतरने से ही उपलब्ध होती है । मनुष्य को सागर की भांति गहरा होना चाहिए। तुम क्रोधित होते हो क्योंकि सागर न हो पाए। अगर तुम सरोवर हो गए हो तो सामने वाला कितने भी अंगारे फैंके, सब बुझ जाएंगे। तुम्हारे सरोवर को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। किसी का अंगारा होना उसका दोष है । अगर तुम भी उसके साथ अंगारा हो गये तो यह तुम्हारा दोष है । तुम्हें तो सरोवर और सागर होना For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान और हम है। तुम्हारी शीतलता में जगत् के अंगारे समा जायें । तुम्हारी ठंडक सामने वाले को भी ठंडा कर दे । जीवन की गहराई से ही महावीरत्व घटित होता है, महावीर की सहिष्णुता उतरती है, जीसस का प्रेम उदित होता है, बुद्ध की करुणा हमारी चेतना में आत्मसात् होती है। ___ मनुष्य-जीवन की यह विडम्बना ही रही कि उसे धर्म और अध्यात्म से ध्यान के गुलदस्ते नहीं मिले, ध्यान का प्रशस्त मार्ग नहीं दिया गया उसे । मिले दो-चार सूत्र, कुछ पाटियाँ और क्रिया के तरीके । मैंने जहाँ तक देखा है मुझे नहीं लगता कि इन सूत्रों और क्रियाओं ने मनुष्य की चेतना में परिवर्तन किया हो, रूपान्तरण किया हो या गहराई आई हो, उसकी आंतरिक विकृतियों में आंशिक रूप से भी विचलन हुआ हो, उसका ध्येय उसे उपलब्ध हुआ हो । ध्यान हमें भीतर लाता है, स्वयं के पास लाता है, खुद के ही करीब लाता है। मंदिर जाओ तो कहीं बाहर जाना पड़ेगा, दान दो तो कुछ खर्चा करना होगा, गुरु को वंदन करने जाओ तो सिर नमाना पड़ेगा, ध्यान में कुछ भी न किया, फिर भी सब कुछ पाया है। यह तो वह माटी है जहाँ बीज भी है पता नहीं, फिर भी फूल खिलते हैं। हम जान नहीं पाते कि पर्वत कहाँ हैं फिर भी निर्झर झर रहे हैं, कलकल की किलोल, अनहद का नाद हो रहा है। कोई चीज नहीं, कोई बात नहीं, कोई उपस्थित नहीं, फिर भी मुस्कान है सतत, अकारण। यह मुस्कान खिल जाए तो जन्म-जन्म की अन्तर्व्यथा और संत्रास अनायास ही मिट जाए। यह मुस्कान स्वयं की मुस्कान है, आत्म-तृप्ति की मुस्कान है । स्वयं के विजय की, स्वयं के सान्निध्य की मुस्कान है। जब तुम ध्यान में उतर जाते हो तो कहीं और नहीं जाते, अपने ही पास आते हो । तुम सबसे मिलो-जुलो। यह दुनिया है ही इसीलिए कि सब इन्सान एक दूसरे के करीब आएं, पर यह किस धर्मशास्त्र में लिखा है कि तुम खुद के नज़दीक न आओ, स्वयं से प्रेम न करो। मेरी दृष्टि में यदि तुमने खुद को ही प्रेम न किया तो तुम दूसरे को कैसे प्रेम कर सकोगे। स्वयं से प्रेम करके जब तुम दूसरों से प्रेम करते हो तभी तुम्हारे आत्मवान् होने की संभावना हो सकती भगवान महावीर कहते हैं अहिंसा ही मेरा धर्म है। बुद्ध कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे करुणा मेरा धर्म है. जीसस ने प्रेम को ही धर्म स्वीकारा, लेकिन मेरा कहना है कि जब तक ध्यान के द्वारा स्वयं को न जाना तब तक दूसरों पर करुणा कैसे कर पाएंगे, दूसरों से प्रेम कैसे कर पाएंगे, दूसरे के प्रति अहिंसा का भाव कैसे होगा। हाँ, जब तक स्वार्थ है तब तक प्रेम बना रहेगा, दूसरों में अपनी प्रतिष्ठा करवानी हो तो करुणा भी चलती रहेगी, प्रतिष्ठा के लिए तो दान की प्रवृत्ति भी रहेगी । पर जीवन में पहली बार अहिंसा तब घटित होगी जब व्यक्ति स्वयं के प्रति भी हिंसा नहीं करूंगा, यह संकल्प स्वीकार कर लेता है। स्वयं को जानकर ही व्यक्ति दूसरों का वध नहीं करेगा। अभी तक तुम्हारी धारणा है कि चींटी को मारने से पाप लगता है इसलिए व्यक्ति चींटी को नहीं मारता और जब तुम स्वयं को जान लेते हो, समझ लेते हो तो चींटी पर पाँव रखने से इसलिए परहेज करोगे कि चींटी पर पाँव रखना स्वयं पर ही पाँव रखना है। चींटी को बचाकर व्यक्ति खुद को भी बचा रहा है। हम चींटी पर पाँव रखेंगे तो चींटी भी हम पर पाँव रखेगी। तुम सोचोगे चींटी हम पर पाँव रख भी देगी तो क्या होगा। इतना बड़ा शरीर है क्या बिगाड़ लेगी चींटी । एक बार ऐसा ही हुआ मैंने हाथी से कहा तेरे ऊपर चींटी चढ़ भी जाए तो क्या होगा। हाथी बोला, यह बात किसी से कह मत देना। हाथी डरा क्योंकि चींटी जब अपना रूप धारण कर ले, उसके सूंड में या कान के बिल में घुस जाएं तो हाथी भी परास्त हो जाता है, उन्मत्त और पागल हो जाता है । आत्महत्या करनी पड़ती है उसे, और मैं नहीं चाहता कि आपको आत्महत्या करनी पड़े। मुझे आपसे प्रेम है । सारी मनुष्यता से प्रेम है । मनुष्य मेरे लिए मंदिर है, परमात्मा का घर है । मैं आपकी सुरक्षा और समृद्धि चाहता हूँ। ___ ध्यान मनुष्य के लिए, उसके अपने विकास के लिए है, अपने अन्तर्हदय के दरवाजों को खोलने के लिए है। अगर कोई जानना चाहे कि ध्यान से क्या मिलेगा, साधना के क्या परिणाम होंगे, ध्यान के द्वारा मनुष्य क्या बन सकता है, तो एक वाक्य में कहूँगा कि ध्यान हमें ऋजु-प्राज्ञ बनाता है। ऋजुता का अर्थ है सरलता। और मस्तिष्क के अन्तस्तलों में छिपे रहस्यों को उद्घाटित करने की कला ही प्रज्ञा है । हृदय से व्यक्ति को सरल बनाना और मस्तिष्क से मेधावी बनाना यानी ऋजुप्राज्ञ बनाना। यह ध्यान का सबसे बड़ा For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान और हम प्रायोगिक रूप और लक्षण है । ध्यान का पहला सूत्र यह है कि जीवन की सभी संभावनाएँ हमसे स्वयं से जुड़ी हैं। अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की संभावनाएँ हमसे ही जुड़ी हैं। अच्छे और बुरे विचारों का जन्मदाता स्वयं मनुष्य ही है। इसलिए जब ध्यान के मध्य हम अन्तर्मंथन करते हैं तब यह वस्तुत: भीतर के सागर का ही मंथन है । जिसमें ज़हर और अमृत दोनों निकलेंगे। अंधकार भी दिखाई देगा और प्रकाश भी। पहले चरण में अंधकार है दूसरे चरण में प्रकाश। कभी पहले प्रकाश दिखाई दे जाता है, फिर अंधकार नज़र आने लगता है। जो भी दिखे वह हमारा अपना होगा। ध्यान के मध्य उठने वाला मानसिक कोलाहल, शोरगुल किसी अन्य का नहीं, हमारा अपना है । ध्यान में ही हम पहचान पाते हैं कि हमारे अंदर कितना कोलाहल है । बाह्य-प्रदूषण से हमारे अंतस् में अधिक प्रदूषण है। विचारों की तरंगों का कोलाहल हमारे मनोमस्तिष्क को निरन्तर प्रदूषित किए हुए है। जरा अपने इस प्रदूषण को पहचानो तो सही । आत्मा और परमात्मा की भक्ति बाद में करेंगे, जाप और माला का स्मरण बाद में करना, पहले उस शोरगुल को तो समझें । भागने से कुछ न होगा। अगर ध्यान में बैठे और मन अधिक चलायमान हो जाए तो यह न सोचो कि छोडो इस ध्यान-व्यान को, इससे तो पहले ही ठीक थे। कब तक बचे रहोगे, कब तक हम अपने आप से पलायन करते रहेंगे। प्रकृति में तो घटित होती है, पर एक पल में कोई वस्तु घटित नहीं होती है। अगर सोचें कि आज घी पी लूं और कल पहलवान हो जाऊँ तो यह संभव नहीं है। आज बीज बोएं और कल फूल चाहें तो यह संभव नहीं है । होगा, सब कुछ होगा, धीरे-धीरे अभ्यास से। संबोधि-ध्यान की विधि भीतर होने का अभ्यास है जहाँ जाकर व्यक्ति अपने चैतन्य-बीज को सिंचित कर सके। फूल खिलाने नहीं पड़ते, स्वयं खिलते हैं । सौरभ कहीं से लानी नहीं होती, फूल खिलते ही सौरभ स्वत: बिखरने लगती है। फूल तब ही खिलता है जब बीज का सिंचन होगा। पहले तो तुम सींचने से ही कतराते हो और सिंचन करने भी लगो तब न जाने कौन-का-सी बाधाएँ खड़ी हो जाएँ और तुम्हें सींचने से रोक लें। और सिंचन में चूक हो गई तो पौधा फिर कुम्हला जाएगा। फूल तक की यात्रा न हो For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे पाएगी। इसलिए सींचो, हमारा काम केवल सींचना है परिणाम की फिक्र किए बिना । क्योंकि अपने आप में उतरकर, स्वयं में खोकर हम कहीं नहीं भटके। अगर कुछ भी न मिल पाए तब भी यह भटकाव नहीं होगा, क्योंकि भटके हैं तो खुद में, दुनियादारी में नहीं । पाएंगे तो भी स्वयं को और खोएंगे तो भी खुद को ही। कल मुझे सुनने को मिला कि जो भी करना है इसी जन्म में कर गुजरूं । बहुत पते की बात है। पता नहीं दस-बीस जन्म हैं भी या नहीं, पर यह जन्म ! यह जन्म तो तुम्हारे ही हाथ में है । इस जन्म को ही एक पूर्वजन्म मान लो तो शायद फूल तक की यात्रा हो जाए । प्रारम्भ तो किया ही जा सकता है। अगर पूर्ण न हो पाए तो भी कुछ ग़म नहीं । हमें तो पुरुषार्थ करना है, बीज का सिंचन करना है; फूल का खिलना नियति पर निर्भर है । हाँ, सिंचन में कमी नहीं आनी चाहिए। ध्यान का पहला चरण है स्वयं की तलाश । तुम दुनियाभर में ढूंढ आओ लेकिन जो चीज तुम्हारे ही भीतर है वह बाहर कैसे मिल सकती है। जो है, तुम्हारे पास है। कबीर कहते हैं 'मैं तो तेरे पास में बन्दे' - वह सदा तुम्हारे ही पास है । 'मैं तो तेरे पास में ! ना मैं भेड़ी, ना मैं बकरी ना छरी गंडास में, मैं तो तेरे पास में' – मैं किसी भेड़ या बकरी में नहीं हूँ कि तुम मुझे परमात्मा के सामने ले जाकर बलि चढ़ाओ, न ही किसी छुरी या सरोते के अंदर हूँ । 'मैं तो रहों सहर के बाहर मेरी पुरी मवास में, खोजी हों तो तुरतै मिलिहों पल भर की तलास में, बन्दे मैं तो तेरे पास में।' मैं शहर के बाहर अर्थात् शरीर के भीतर रहता हूँ । मेरा घर, मेरा गढ़ शरीर के भीतर है। अगर खोजने वाला हो तो पलभर की तलाश में मिल जाएगा। तुम्हारे पर्स में अगर सामान है तो मिलेगा ही। अगर नहीं मिल रहा तो इसलिए कि जिस जेब में मूल अस्तित्व है, मूल सम्पदा है वहाँ हमारा हाथ नहीं पहुंच पा रहा । इसलिए आदमी भटका हुआ आदमी ने वक्त को ललकारा है, आदमी ने मौत को भी मारा है । जीते हैं आदमी ने सारे लोक, आदमी खुद से मगर हारा है । For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान और हम मनुष्य स्वयं से ही पराजित है, स्वयं को नहीं जीत पा रहा है। दूसरों की समस्याएँ सुलझानी हों तो बहुत आसान बात लगती है और अपनी समस्याएँ सुलझानी हों तो सिर-पाँव एक हो जाते हैं। ध्यान आपको वह कला देता है जिससे आप अपनी मानवीय समस्याएँ सुलझा सकें, उनका समाधान पा सकें । जैसे-जैसे समाधान मिले, जैसी अन्तर-आत्मा की आवाज़ उठे, वैसा करो। विज्ञान ने अनेकानेक आविष्कार किए, सुख-सुविधा के साधन दिए मगर हमें समाधान नहीं दे सका। अन्तस् के जो प्रश्न हैं उनका समाधान न दे सका। बुद्धि ने शास्त्रों का निर्माण कर दिया, लेकिन आन्तरिक कषायों से, आन्तरिक अवरोधों से, भीतर के शोरगुल और भीतर के कचरे से मुक्त होने का मार्ग नहीं दे पाए। हम इन पाँच दिनों में यह प्रयास करें कि हमारे हाथ वह मार्ग लग सके जो हमें मुक्ति की राह पर बढ़ाए। हम स्वयं में उतरें, भीतर होने का अभ्यास करें। जहाँ असली धर्म छिपा हुआ है, वास्तविक पूंजी है। जहाँ प्रकाश है और अंधकार भी । स्वयं में उतरना है, स्वयं में जीना है। ठीक वैसे ही जैसे दिनभर की उड़ान के बाद पंछी अपने नीड़ में लौट आता है । हमें भी स्वयं में लौट आना है । जीवन को अमृत-महोत्सव बनाना है। मानव जाति को वह मार्ग मिला हुआ है, जिससे गुजरकर वह अपने संचित तमस् को काट सकता है। मार्ग पूर्ण है। मार्ग से गुजरो, तो ही मार्ग फलदायी है । सूना पड़ा मार्ग तो भयावह लगता है। वह निष्फल लगता है तुम्हारे चेतन में विचार हैं, अवचेतन में तमस् है । अवचेतन के पार प्रकाश है . तुम्हारी सीमा में असीम है । काया में कायनात है। एक हाथ में तमस् है, दूसरे हाथ में प्रकाश है। प्रकाश के हाथ को तमस् की ओर बढ़ाओ, ध्यान को ध्येय की ओर उत्तरोत्तर बढ़ने दो, प्रकाश का हाथ तमस् के हाथ को अपने में समा ही लेगा। तमस् का कोहरा बुझ ही जाएगा। हमारे एक हाथ में लोहा था एक हाथ में पारस For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे पर हम उसे छूना भूल गए। बात छूने की है, बढ़ने की है, फिर लोहा, लोहा कहाँ रह पाता है । सब सोना हो जाता है। अरणि की लकड़ी में, चकमक पत्थर की छाती में ही आग समाई है। बस, गुरुकृपा ! एक चिनगारी मिल जाए, फिर तो ज्ञान की प्रचुर अग्नि मुखर हो जाएगी। तमस् से पार लगने के लिए आत्मा की ओर उठी ललक की लौ चाहिये। तमस् का बोध ही हमारी ओर से प्रकाश की पुकार होगी। अपने में है अपना साईं। अपने में है अपनी अस्मिता। हम ध्यान की ओर बढ़ें, ध्यान हमें ध्येय की ओर ले जाएगा। दीप हो देहरी का, उस चेतना का, जो हमें बाहर-भीतर दोनों ओर से रोशन करे । रूप से अरूप की ओर आगे बढ़ाए , जीवन के परम सत्य से हमें मुखातिब करे । अन्तर्सत्य को आत्मसात् करने के लिए, उच्च सत्ता से सम्पर्क करने के लिए ध्यान सहज मार्ग है। इस मार्ग पर चलने के लिए आप उत्साहित हैं। आइये, हम और आगे बढ़ें। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्य छोटे, प्रसाद अनुपम - [ संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; ६-६-९६, प्रश्न-समाधान] . हम चाहते हुए भी क्रोध को क्यों नहीं रोक पाते? क्रोध मनुष्य की उत्तेजना है। मनुष्य की शक्ति जब उत्तेजित होती है तब वह दो रूप में प्रगट होती है - एक काम, दूसरा क्रोध । शक्ति का संबंध मन के साथ होने पर काम का रूप लेती है और व्यवहार के साथ होने पर क्रोध का। ये दोनों ही मनुष्य की घातक बीमारियाँ हैं। मनुष्य स्वयं को दुनिया और परिवेश से मुक्त नहीं रख पाता, इनके प्रति तटस्थ नहीं हो पाता इसलिए क्रोध से भी नहीं बच पाता। मनुष्य अपने देहभाव से नहीं छूटता इसलिए कभी काम से भी मुक्त नहीं हो पाता। जब तक शरीर और मन के धर्म सक्रिय रहेंगे, काम-क्रोध मनुष्य के सहचर बने रहेंगे। क्रोध पर संयम बरतिये। अगर आप क्रोध से मुक्त होना चाहते हैं, तो उसे दबाएँ नहीं । दमन से नहीं, संवर से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । मैं For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे नहीं सोचता कि दमन करने से कोई क्रोध-मुक्त हो सकता है। हाँ, यह भी ध्यान रहे कि प्रगट करके भी आज तक तुम क्रोध से मुक्त नहीं हो सके हो। क्रोध की अभिव्यक्ति और दमन दोनों ही घातक हैं। यदि तुम दबाते ही रहे तो स्प्रिंग वाली स्थिति पैदा हो जाएगी। दूने वेग से बाहर आएगा। हर समय तुम तनाव से घिरे रहोगे और हर वक्त क्रोध ही बाहर आता रहेगा। फिर समाधान क्या? जब भी ऐसी स्थिति सामने आए हमारा वहाँ से हट जाना ही बेहतर है । क्रोध आने की स्थिति में साक्षी-भाव प्रकट करो। अपने क्रोध के साक्षी हो जाओ और अपनी श्वासों पर नियंत्रण रखो। आप जानते ही होंगे कि आवेश में श्वासों की गति बढ़ जाती है। इसलिए अपना ध्यान सांसों पर केन्द्रित करो । सांस मध्यम गति से, मंद गति से चले । दूसरों की बातों को तटस्थता से सुनो और किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त मत करो, बस शान्त रहो । यह सब एकदम नहीं होगा, धैर्य रखना होगा और संकल्प करना होगा कि तुम प्रतिक्रिया नहीं करोगे, प्रत्युत्तर नहीं दोगे। जब उत्तर ही नहीं होगा तो कब तक अंगारे बरसेंगे। फिर तुम्हें प्रेम करना होगा क्रोधी के प्रति । अपने क्रोध को करुणा और प्रेम में परिवर्तित करना होगा। तुम जिस वातावरण में रहते हो उसमें तुम्हें निखार लाना है। अपने आसपास प्रेम का इतना विस्तार करो कि क्रोध के निमित्त परास्त हो जाएं । स्वयं से गलती हो तो क्षमा माँग लो, दूसरे से गलती हो जाए तो उसे क्षमा कर दो। आग भड़के उससे पहले ही बुझा दो तो समाधान तुम्हारे हाथ है अन्यथा....... ! ध्यान, स्वाध्याय, प्राणायाम, योगाभ्यास आदि शिविर के अतिरिक्त दैनिक जीवन में भी सुचारू रूप से चलें, इसके लिए मार्गदर्शन करें। जो तुम पूछ रहे हो ये तो स्वत: चलते हैं; तुम ही अपना मन कमजोर कर लेते हो। इनका उद्देश्य ही तुम्हारे जीवन में शांति, शुद्धि और पवित्रता लाना है पर क्या करें तुम ही विचलन की काई पर For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्य छोटे, प्रसाद अनुपम फिसल जाते हो ! शिविरों का आयोजन भी नियमितता लाने के लिए ही किया जाता है । फिर भी यह हमारी अभीप्सा पर, प्यास पर, तत्परता और तन्मयता पर निर्भर करेगा कि हम इन्हें सतत बनाए रखते हैं या नहीं। जिसने यह जाना कि इसके बिना मैं अपने अस्तित्व और अध्यात्म को नहीं जी सकता, अपनी शांति और सहिष्णुता को नहीं पा सकता, वह कभी इस मार्ग को नहीं छोड़ेगा | चाहे जैसी आपात स्थिति आ पड़े, वह इनके बिना नहीं रह सकेगा । आप जानते हैं कि भोजन - पानी के बिना आप जी न सकेंगे क्योंकि पेट की पीड़ा से परिचित हैं । इसी तरह जिस दिन आप अपनी अन्तर् आत्मा की पीड़ा से परिचित हो जाएंगे, तब आप अध्यात्म की साधना किए बिना जी न सकेंगे। संकल्प कीजिए । भीष्म ने प्रतिज्ञा की, निभाई, राम ने प्रतिज्ञा की, निभाई; लेकिन आपकी हालत तो यह है कि अभी आपने जो वचन बोले थोड़ी देर बाद भूल जाएंगे या बदल जाएंगे, मुकर जाएंगे। इसलिए मनोयोगपूर्वक संकल्प कीजिए कि मैं इस मार्ग पर चलूंगा । तब ये सब चीजें अपने आप परछाई बनकर चलेंगी। जीवन में प्रतिकूल और अनुकूल स्थितियाँ आने पर इनसे जो कारगर परिणाम देखने को मिलेंगे तब आप जानेंगे कि ध्यान जीवन की कसौटी है, ध्यान जीवन का सुख है, स्वरूप है, मौन है, शांति है, स्वास्थ्य है, आनन्द है I १३ ध्यान पर ध्यान दो, तो ध्यान सतत बना रहेगा । ध्यान में सातत्य रहेगा। अच्छा होगा, अपना ध्येय, अपना लक्ष्य सदा स्मरण रखो । ध्येय स्पष्ट है, तो ध्यान स्पष्ट और सदैव रहेगा। छिन छिन में उसकी सदैवता रहेगी । मनुष्य जब भी चूका है, तो अपने लक्ष्य से चूका है । लक्ष्य के प्रति सुदृढ़ हो, प्रयत्नशील हो, तो मार्ग कभी छूट नहीं सकता। तुम ध्यान के प्रति तो आकर्षित हो, पर ध्येय के प्रति आकर्षित नहीं हो। यह बोध सदा रखो कि जब तक ध्येय उपलब्ध नहीं होगा, राह पर चलना बरकरार रखेंगे । यहाँ से घर चले जाओ, तब भी, घर को ही ध्यान शिविर समझना । मुझसे विलग हो जाओ, तब भी, अपने लक्ष्य को अपना गुरु मानना, मार्गदर्शक मानना । आत्मा की अन्तर्ध्वनि तुम्हें सदा संबोधित करती रहेगी, उस पर ध्यान देना, ध्यान पर ध्यान देना, ध्यान तुम्हारा आभामंडल बन जाएगा । चेतना का ध्यान रखना ही, ध्यान की चेतना For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ इक साधे सब सधे भारतीय परम्परा में अपुत्रस्य गतिर्नास्ति जैसी बात कही गयी है, पर जो नि:सन्तान हैं, क्या वे सद्गति को प्राप्त नहीं कर पायेंगे? ___ 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' – बगैर पुत्र के गति नहीं है । पुत्र ही गति का कारण है, तब तो उनका क्या होगा जो ब्रह्मचारी हैं। बेचारों को भटकना ही होगा। उनका कोई त्राण नहीं। और फिर जरा उनसे भी पूछ लेते जिनकी सन्तानें हैं, उनकी कैसी दुर्गति हो रही है। जिनके सन्ताने हैं वे संतानों के कारण दुर्गति को भोग रहे हैं और जिनके सन्तान नहीं हैं वे बगैर सन्तान के अपनी दुर्गति मान रहे हैं। सन्तान होना मानवीय सुखी जीवन के लिए जरूरी है, किन्तु अच्छी सन्तान होना पुण्योदय की बात है । वे माता-पिता धन्य हैं जिनके घर में अच्छी सन्तान पैदा हुई है, सन्तानों ने सही संस्कार पाये हैं, घर की सुख-संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। वह संतान तो कोरी भारभूत है जो अपने जन्म देने वालों की उपेक्षा करते हैं, उनके आदर-अदब की अवहेलना करते हैं। पहले जमाने में कुछ वर्षों पूर्व तक ही, एक माता-पिता के पूरी एक दर्जन संतानें हुआ करती थीं, लेकिन अकेले माँ-बाप उनका पालन-पोषण कर ही लेते थे। पर अगर वे बारह संतानें अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा न सम्हाल पाएँ, वे अथवा उनकी बहुएँ अथवा उनके बच्चे उनकी उपेक्षा करते रहें, तो जरा किसी माता-पिता से पूछना तो वे कहेंगे इससे तो अच्छा था, सन्तान ही न होती । कम-से-कम ‘दरकुत्ता' तो नहीं होना पड़ता। जीवन और पारिवारिक व्यवस्था के लिए संतान की सहज जरूरत है। अपनी कोख से संतान न जन्मे तो आदमी ममता और वात्सल्य की रसधारा में आकंठ भीग नहीं सकता। ममता ही नहीं तो मातृत्व कैसा ! प्रेम ही नहीं तो पितृत्व कैसा । 'मातरं पितरं हन्त्वा' । बगैर ममता की माँ और बगैर प्रेम For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्य छोटे, प्रसाद अनुपम का पिता सिर के छत्र को भारभूत ही बनाते हैं। गुणवान पुत्र हो, तो ही उस पुत्र से माता-पिता की गति है । गुणहीन, झगड़ालु और ईर्ष्या से भरे हुए बच्चों से तो बाँझ रहना कहीं ज्यादा अच्छा है। सूरज तो अकेला ही काफी है । सारी धरती - आसमान को रोशन कर डालेगा। तारों की टिमटिमाहट तो ठीक है मन की तृप्ति के लिए चलेगा । १५ मृत्यु के बाद पुत्रों द्वारा किये जाने वाले तर्पण से अगर तुम अपनी गति, दुर्गति या सद्गति मानते हो, तब तो बात ही अलग है । फिर तो जीवन के लिए पुत्र का कोई अर्थ नहीं है । पुत्र की उपयोगिता पिता की मृत्यु के लिए है, मृत्यु के बाद है । तुम्हें अग्नि देने और तुम्हारे नाम पर दो मुठ्ठी आटा और दो लोटा पानी देने के लिए है । अगर ऐसा है तो तुम्हारे पुत्र तुम्हीं को मुबारक । जो बेटा जीते जी तुम्हारे दो जून रोटी की व्यवस्था करने में भार समझता है, मैं नहीं समझता कि उसके द्वारा तुम्हें तर्पण करने से तुम्हारी आत्मा को किसी तरह की शांति मिल सकेगी। शव को शृंगार देना और जीवित को शव बना देना, क्या इसे तुम अपनी गति कहोगे । अच्छा तो होगा, हम अपनी सन्तानों को वे संस्कार और वह वातावरण दें, जिससे हमारे बच्चे अपने माँ-बाप के लिए प्रेम और आदर के साथ अपनी सेवाएँ समर्पित कर सकें। ऐसा वातावरण बनाने के लिए जरूरी है कि हम स्वयं अपने माता-पिता की सेवा करें, घर में उनका आदर- अदब रखें । माता-पिता चाहे जैसे हों, हमारा फर्ज़ यही है कि हमें उन्हें निभा देना चाहिये । अपनी बहू-बेटियों को हमें यह हिदायत देनी चाहिये कि वे बड़े-बुजुर्गों की मान-मर्यादा बनाए रखें। यदि हमें अपनी ओर से कुछ सेक्रिफाइस करना पड़े तो भी कर देना चाहिये । परिवार समूह का नहीं, त्याग का नाम है । जिस समूह में एक-दूसरे के लिए त्याग की भावना है, समर्पण का सरोकार है, वह समूह ही वास्तव में परिवार है । 1 जहाँ तक गति, दुर्गति या सद्गति का सवाल है, उसका सम्बन्ध न तो सन्तान से है, न ही नि:संतान रहने से । हर गति मनुष्य के अपने कर्तृत्व का परिणाम होती है, जैसा करोगे, वैसा भरोगे । प्रकृति का नियम है कि अच्छा For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ करोगे तो अच्छा फल पाओगे । बुरा करोगे, बुरा नतीजा पाओगे | दुर्गति से स्वयं को बचाना है तो सम्यक् कर्मयोग करो, झूठ-प्रपंच से बचो, सहजता - सरलता से जीओ। क्रोध, वैर से परहेज़ रखो, आत्मीयता और प्रसन्नता को गले लगाओ। अपनी जरूरतों के लिए तो प्रबंध करो ही, औरों की जरूरतों को पूरा करने में अगर मदद कर सको तो बलिहारी । किसी का बुरा न करना दुर्गति से बचने का सबसे अच्छा सूत्र है । औरों का भला करो, सद्गति पाने का श्रेष्ठ मार्ग है । श्रेष्ठतम लोग श्रेष्ठ मार्ग से चलते है । हम सब भारतीय हैं, और भारतीय होने का अर्थ तुम ही नहीं, सारा संसार जानता है । भारतीय वह है जो अपनी आन-बान-शान के लिए मर मिटे । अगर तुम अपनी भारतीयता को अपने जीवन में सुरक्षित रख पाये तो तुम आज भी सद्गति में हो, बाद में भी तुम्हारे लिए सद्गति ही है - फिर चाहे सन्तान हो, या न हो । इक साधे सब सधे महावीर ध्यान के मार्ग से परमपद को प्राप्त करते हैं और मीरा प्रेम के मार्ग से अपने प्रियतम को प्राप्त करती है । आप ध्यान पर जोर देते हैं, पर सामान्यतया जितना रस प्रेम और भक्ति में है उतना ध्यान में दिखाई नहीं देता है। जब सरस मार्ग से परम तत्त्व को पाया जा सकता है तो नीरस मार्ग का प्ररूपण क्यों ? ध्यान और भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सीधे तौर पर देखो तो ध्यान एक अलग धारा दिखाई देगी और भक्ति एक अलग धारा । लेकिन पैठ गहरी हो जाये तो दोनों में कोई दुराव नज़र नहीं आएगा । ध्यान जब अहोभाव की आनन्द - दशा बन जाता है तो ध्यान स्वत: ही भक्ति बन जाता है और भक्ति जब तन्मयता में अन्तरलीन हो जाती है तो वही ध्यान बन जाती है। ध्यान से भक्ति का जन्म हुआ है, वहीं भक्ति से ध्यान की सिद्धि हुई है । भक्ति हृदय की भावना है; ध्यान भावना का गहराई से स्पर्श है । हमें अगर भक्ति रास आती है तो हम भक्ति से अपना नाता रखें, ध्यान के राजमार्ग तक एक-न-एक दिन स्वतः पहुँच जाएंगे । ध्यान धरना अच्छा लगता है तो ध्यान को आत्मसात् कर लें । भक्ति का अंकुरण तो For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्य छोटे, प्रसाद अनुपम १७ अनायास-सहज ही हो जाएगा। __ध्यान की सिद्धि इस बात में है कि हमारा हर काम ध्यानपूर्वक सम्पन्न हो । यदि ध्यान जीवन की गतिविधियों के साथ बड़ी सहजता से तदाकार हो जाये तो ही ध्यान हमें सुख और रस दे पाएगा। ऐसे ही भक्ति है। भक्ति की सिद्धि इसी में है कि तुम अपना हर काम भक्तिपूर्वक करो । बगैर भक्ति-भाव के अगर तुमने सांस भी ले ली, तो वह सांस भी तुम्हारी सुषुप्ति में सहायक होगी। काम को भक्तिपूर्वक करो या ध्यानपूर्वक, जीवन को भक्तिपूर्वक जीओ या ध्यानपूर्वक, कोई विरोधाभास नहीं है । ध्यानपूर्वक और भक्तिपूर्वक दोनों को ही आत्मसात् किये हुए रहो तो भक्ति के कारण कर्म के प्रति आस्था रहेगी और ध्यान के कारण चूक होने की सम्भावना नहीं होगी। ध्यान हमें सिखाता है कि काम को एकाग्रता से करो जबकि भक्ति का पाठ यह है कि अपने काम को तन्मयता से पूरा करो। जहाँ एकाग्रता और तन्मयता दोनों की सहज साझेदारी है, दोनों की मंगल-मैत्री है, वह काम हमें सहज सुख देगा, रस देगा। बेहतर होगा एकाग्रता और तन्मयता से काम करते चले जाओ, ध्यान और भक्तिपूर्वक जीते चले जाओ, फल की इच्छा हो या न हो, फल सही ही होगा। हाँ, अगर क्रिया और विधि-विधान की दृष्टि से चर्चा करना चाहते हो तब तो ध्यान एक अलग मार्ग है और भक्ति एक अलग मार्ग। फिर तो जो दो घंटे बगैर पलक झपकाये पद्मासन में निश्चल होकर बैठ जाए, तुम उसको ध्यान कहोगे अथवा जो दो घंटे तबले की थाप पर भगवान के भजन गाता रहे तुम उसे भक्ति कहोगे। यह बहुत साधारण परिचय है, ध्यान और भक्ति का। मेरी समझ से तो हम दोनों ही धाराओं को, दोनों ही रसों को अपने अन्त:करण में एकरस होने दें, एकधार होने दें। ____ चाहे ध्यान हो, या भक्ति, आखिर दोनों का सम्बन्ध हमारे अन्तर्मन से है, अन्तर्हृदय से है। हिमालय से गंगा निकलती है और हिमालय से ही यमुना। दोनों ही धाराएँ अलग-अलग नाम से पुकारी जाती हैं, पानी के रंग For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ इक साधे सब सधे तक में फ़र्क नज़र आता है, लेकिन स्नान करो तो दोनों ही नदियाँ एक जैसा निर्मल-पावन बनाती हैं, एक जैसा ही खेतों को सींचती हैं, एक जैसी प्यास बझाती हैं और दोनों ही सागर में जाकर सागर की विराटता को आत्मसात् कर लेती हैं। महावीर का ध्यान-मार्ग और मीरा का प्रेम-मार्ग, इनमें से किसी से भी अलग होने की बात न तो मैं कह सकता हूँ और न ही स्वयं को अलग कर सकता हूँ। मुझे महावीर से भी प्रेम है और मीरा का भी ध्यान है । अथवा यूँ कह दीजिये महावीर और बुद्ध का भी ध्यान है और मीरा से भी प्रेम और अनुराग है। ध्यान हम इसलिए करें ताकि हम पहचान सकें हमारे अन्तरमन की कैसी दशा है, भीतर में कैसी अराजकता है, चित्त में पर्त-दर-पर्त कितना नरक जमा है । चित्त की पहचान के लिए ध्यान है। जब तक हम अपने भीतर की अराजकता को नहीं पहचानेंगे, तब तक अपने पापों को परमात्मा के चरणों में कैसे समर्पित कर सकेंगे। और फिर भटकते हुए मन से भक्ति भी कैसे करोगे। भक्ति के लिए जरूरी है कि हमारा मन शान्त हो, एकाग्र हो, निर्मल हो । ध्यान वास्तव में मन की चिकित्सा ही तो है, अन्तरमन की स्वच्छता का अभियान ही है । भक्ति तुम परमात्मा की करोगे, लेकिन वह परमात्मा कहाँ, उसका नूर कैसा, उसकी आभा से हम परिचित नहीं हैं। ध्यान उस परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने की ही तो बात कहता है और फिर परमात्मा तो नम्बर दो है । नम्बर एक तो तुम हो । अपने को न पहचाना, अपने से प्रेम न किया तो परमात्मा से प्रेम कैसे करोगे। परमात्मा को पहचानोगे कैसे । तुम्हारे साथ कोई छल-छद्म न हो जाये, प्रपंच-प्रलोभन न हो जाये, इसके लिए जरूरी है कि पहले हम अपने-आपको पहचानें, पहले अपने अस्तित्व का बोध प्राप्त कर लें। मन की चंचलता के विसर्जित होने पर अन्त:करण में जिस सहज, शांत, शून्य, मौन-रिक्त आकाश का अनुभव होता है उस स्थिति में जो स्पष्ट अनुभव और बोध होता है, वही तुम हो । और तुम्हारे इस शान्त, मौन, निर्मल हृदय-पात्र में ही उस भगवत्ता का प्रकाश, उस परम सत्ता For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्य छोटे, प्रसाद अनुपम की सुवास, उस बुद्धत्व का स्वाद सहज अवतरित होता है, जिसे मीरा प्रियतम कहती है और महावीर परम पद कहते हैं। फूल की तरह सुवासित होने के लिए फूल की तरह खिलना जरूरी होता है, सुवास पाएं उससे पहले हमें बीज से लेकर फूल तक की यात्रा को पूरा करना होगा। फिर चाहे इस यात्रा को हम मंदिर में बैठकर करें या घर में या जंगल में । आप अपनी सुविधा को देख लो । मेरा आपको भक्तिपूर्वक ध्यान में उतरने का सुझाव है। पहले चरण में शरीर और उसकी प्रकृति, मन और उसके स्वभाव से स्वयं को अलग देखो। यह ध्यान की मूल शिक्षा है । दूसरा यह कि हृदय में स्थित चैत्यपुरुष में, भगवत्-स्वरूप में अन्तरलीन रहो - यह भक्ति की बात है। दोनों एक-दूसरे के परिपूरक है। दोनों मिलकर ही प्रियतम का, परम पद का प्रकाश उपलब्ध करते हैं। चूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे। पर्दो को, परतों को हटाएँ, तो ही दर्शन है, मिलन है प्रिय का, प्रियतम का, सत्य चेतना का। कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं है, चाहे शबरी का बुहारी लगाना हो या राजा भर्तृहरि की भृगु आश्रम में सेवा; कैसे संभव है? परिणाम तो हर कार्य के अलग-अलग नज़र आते हैं, कृपया समझाइए अलग-अलग कर्म कैसे समान हैं? कार्य, सिर्फ कार्य है। छोटा-बड़ा तो मनुष्य उन्हें कर लेता है। इसलिए कभी-कभी बहुत बड़े कार्य भी छोटे नज़र आते हैं और ना कुछ लगने वाले कार्य भी महान या बड़े हो जाते हैं। बड़े कार्य तो चुटकी में पूर्ण हो जाते हैं और छोटा-सा कार्य करने में संपूर्ण जिन्दगी लग जाती है । महत्त्व इस बात का नहीं है कि कार्य क्या है । महत्त्वपूर्ण तो यह है कि कार्य के प्रति आपकी प्रतिबद्धता कैसी है। कार्य करने के लिए आपकी कितनी तन्मयता है और उसके प्रति आप कितने समर्पित हैं। कार्य तो छोटा-बड़ा है ही नहीं। यह तो हमारा समर्पण-भाव है कि किस कार्य को हम For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० I प्रेमपूर्वक कर सकते हैं। कार्य के प्रति भावनात्मकता है तो शबरी के बेर भी राम की कृपा ले जाते हैं । शबरी का अहोभाव परमात्मा को पा लेता है तुम्हारी दृष्टि में फर्क है इसलिए तुम एक कार्य को उच्च और दूसरे को निम्न मानते हो | यह श्रेष्ठ वह हेय, तुम्हारी दृष्टि बताती है । सारा फेर तुम्हारी नज़रों का है। इक साधे सब सधे अभी यहाँ मुझे किसी साधक ने कहा कि वह सभी शिविरार्थियों के कमरों की सफाई करना चाहता है । एक ने जिम्मेदारी ली कि वह जितने भी मटके हैं उनमें पानी भरेगा। यहाँ 'दादावाड़ी' के कायाकल्प में समाज ने सहयोग किया। अब आप ही बताइए ये कार्य किस श्रेणी में आएंगे । छोटे-छोटे लगने वाले कार्य भी महान् हो गए। उनकी भावना पर भगवान का ग्रेस बरस सकता है, प्रभु का प्रसाद बरस सकता है । तुच्छ से तुच्छ कार्य भी तुम्हें महानता का परिणाम देकर जाएगा । मेरा तो यही निवेदन है कि हर कार्य प्रेम से करो । यह न सोचो कि हर कार्य का अलग-अलग परिणाम होता है । तुम नाना प्रकार का भोजन जीभ से स्वाद लेकर करते हो, पर परिणाम क्या होता है । खाते वक्त सोचते होगे कि सबके अलग-अलग परिणाम मिलेंगे, पर क्या ऐसा हो पाता है ? सभी का एक ही परिणाम, कैसे भेद करोगे ! भेद सिर्फ प्रारम्भ में दिखाई देते हैं, जैसे-जैसे पड़ाव पार करते हैं भेद की दीवारें गिरती जाती हैं। कार्यों में भेद हैं पर अन्तर्दृष्टि में भेद नहीं होना चाहिए । परिणाम में कोई भेद नहीं होगा । शिखर पर सब एक हैं । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन की पुरवाई [ संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; ७-६-९६, प्रवचन] यान की समस्त विधियों का सार है बाहर से भीतर मुड़ो, भीतर के शोरगुल को समाप्त करो और परम शान्ति में जीओ। बाहर से भीतर की ओर मुड़ना प्रतिक्रमण है, भीतर के शोरगुल को समाप्त करना जितेन्द्रियता है, परमशान्ति को जीना जीवन में मुक्ति का अवगाहन है। सामान्यत: मनुष्य जगत में ही अपने जीवन का प्रतिबिम्ब देखता है और जगत को ही जीवन के सुख-दुख का सूत्रधार समझता है। जब तक अपने जीवन के सूत्र को न समझ लिया जाए, तब तक जगत प्रकाशमय है और अन्तस्-केन्द्र अंधकारमय है। अपने जीवन का अवबोध हो जाए तो अन्तस् आलोकमय बन जाता है और जगत में अंधकार दिखाई देता है। बाहर से भीतर की ओर मुड़ना अन्तस् के लिए की जाने वाली शुभ व उज्ज्वल यात्रा है। For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे जो मनुष्य अपने जीवन के सुखों को केवल बाहर ही ढूँढ़ता है, उस मनुष्य के जीवन में राम के उस स्वरूप की बार-बार पुनरावृत्ति होती रहेगी जो परमात्मा का अवतार होकर भी नकली हरिण के पीछे दौड़े। बाहर के सुख तभी सुख हो पाते हैं जब उन्हें अन्तर्दृष्टि से देखा जाए । बाहर की ओर भटकने वाले व्यक्ति को उसके अपने घर में क्या हो रहा है, पता नहीं रहता । मनुष्य का कर्त्तव्य होता है कि वह सब कुछ सुधारे, संसार में शांति लाने के लिए प्रार्थना और प्रयास करे लेकिन उसका पहला दायित्व है स्वयं को सुधारना और शांत मन करना। हम स्वयं शांति के सरोवर न हो पाए तो अपनी ओर से किसे शांति के दो बूंट पिला पाएंगे। ध्यान बाहर से भीतर की ओर मुड़ने की कला है, मार्ग है। ध्यान ही समस्त धर्मों का सार है, पूंजी है, सम्पदा है । जैसे शरीर से सिर को अलग कर दिया जाए या धर्म और अध्यात्म से ध्यान को हटा दिया जाए तो दोनों ही निष्प्राण। जीवन में धर्म और अध्यात्म का उत्थान तभी होता है जब ध्यान हमें आत्मसात् हो जाए। इसलिए भीतर की ओर मुड़ो। भीतर के शोर को सुनो, देखो। उसके साक्षी बनकर उसे समाप्त करो। शोर तो शोर है। मन में जब देखो विचार-ही-विचार, विकल्प-ही-विकल्प । रात-दिन बह रहे हैं। दिन-रात विचारों का तूफान, वृत्तियों का भँवर उलझाए रखता है । इन तूफानों और भँवरों से पृथक करने का काम ही ध्यान है। संबोधि-ध्यान का मकसद ही यही है कि येन-केन-प्रकारेण भीतर का जो शोरगुल है, वह शान्त हो। अगर आपसे दो मिनट के लिए मन से मौन होकर बैठने को कहा जाए तो दो मिनट तो बहुत हुए, आधा मिनट भी मुश्किल से गुजरेगा कि भीतर का यातायात शुरू हो जाता है, विचारों की गाड़ियाँ चलने लगती हैं, विकल्पों की हवा बहने लगती है, विकारों के कीचड़ में पाँव फँसता है। दो मिनट के लिए भी मौन होना मुश्किल होता है। शांति के नाम पर चाहे जितने प्रयास किए जाएँ जब तक हमारा मन शांत नहीं होगा शांति के प्रयास विफल ही रहेंगे। यह दुर्भाग्य रहा कि हम बाहर से भीतर की ओर नहीं मुड़े, कभी स्वयं की सुनी ही नहीं । स्वयं से प्रेम करना न सीखा। दूसरों को, बाहर सभी को प्रेम दिया, लेकिन स्वयं को कभी प्रेम न किया। शिविर ने आपको यह अवसर दिया है कि आप स्वयं से प्रेम For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन की पुरवाई ३ करना सीखें। ध्यान के द्वारा जब स्वयं के पास आते हैं तो अपने से मैत्री होती है । स्वयं से एकसूत्रता होती है । वीणा के तार जुड़ते हैं। कभी तो इन तारों से झंकार आएगी ही। यहाँ हम जो ध्यान कर रहे हैं वह तो वीणा पर अंगुलियाँ जमाने की शुरुआत है। यहाँ तो तबले की थाप की तरह अंगुलियाँ चलानी सिखाई जा रही हैं। अभी तो प्रारम्भ करना है, फिर तो तबला तुम खुद बजाओगे, वीणा तुम खुद बजाओगे। मेरी आवश्यकता तभी तक है जब तक वीणा पर अंगुलियाँ सध न जाएँ । वीणा के बजते ही अंदर का शोरगुल कम होकर अन्तत: समाप्त हो जाएगा। फिर तुम शान्ति की सुवास में जीने लगोगे। मेरा मूल्य नहीं, मूल्य आपकी परम शान्ति का है, जिसे आपको उपलब्ध करना है। अन्यथा मनुष्य का मन अतृप्त है, असीम अतृप्त । मन का मौन होना ही ध्यान है । मन के कोलाहल को शान्त करने का जो प्रयत्न है, वही संबोधि-ध्यान है। मनुष्य के मन में अंधेरा है प्रकाश है, स्वर्ग है नरक है, गरीब है मिर्जा है। मन से ही बंधन है, मन से ही मुक्ति है। सबके आधार हमारे मन में ही समाए हुए हैं। अतृप्त मन की स्थिति ऐसी है जैसे नौका में छिद्र-ही-छिद्र हों। नौका पर चढ़ रहे हैं, पार उतरने की चेष्टा भी कर रहे हैं, पर छिद्र ! मन में भी यही चल रहा है उसने कभी शांत होना या टिकना सीखा नहीं है । शायद कभी सीखना भी चाहा हो पर हमने ही उसे अवसर नहीं दिया। कभी आर्तध्यान तो कभी रौद्रध्यान करता है तो कभी कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत, तेज तक पहुँचता है। पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा इन गुणस्थानों पर कितनी ही बार ऊंचा-नीचा होता है। न जाने कितनी बार ! भगवान तो कहते हैं राजर्षि प्रसन्नचन्द्र के मन की अवस्था यह कि दो मिनट में नरक का रास्ता देख लेते हैं और तुरन्त ही स्वर्ग का रास्ता भी नाप लेते हैं । साधना की अवस्था बनी हई है लेकिन मन की उठापटक के कारण प्रसन्नचन्द्र की नरक गति बननी शुरू हो जाती है, वही अगर सुधरती है तो स्वर्ग और निर्वाण ईजाद होने लगता है । कैवल्य की रोशनी झर पड़ती है। किसका मन क्या सोच रहा है, क्या कर रहा For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ इक साधे सब सधे है कुछ कहा नहीं जा सकता। बाहर के व्यक्तित्व को देखकर किसी के भी अन्तर्मन को नहीं पढ़ा जा सकता। और अन्तर्मन को पढ़े बिना बाहर के व्यक्तित्व पर विश्वास भी नहीं किया जा सकता। वह कौन खड़ा जीवन-तट पर, व्यथित हृदय और क्लान्त बदन, थक गए चरण चलते-चलते खुद से ही हारा अन्तर्मन । है बरफ जमी तन पर लेकिन अंदर तो जलता बड़वानल एक शान्त तपस्वी के मन में अभिलाषा करती कोलाहल । मन की इसी दशा के कारण महावीर ने अपने शिष्यों से कहा था कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं जो संतों से भी श्रेष्ठ हैं। और मन की इसी दुर्दशा के कारण यह कहा गया कुछ संत भी ऐसे होते हैं जो गृहस्थों से भी निकृष्ट हैं। इसलिए जिस बिगड़े हुए को सुधारना है, वह मन है। ऊपर से तो व्यक्ति शान्त-सौम्य लगता है - बर्फ-सा ठंडा, लेकिन भीतर आग सुलग रही है। भीतर बड़वानल धधक रहा है। किसी तपस्वी के मन में कैसी इच्छाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ पल रही हैं, उसे भला कोई कैसे पहचाने ! निस्तरंग आज आंदोलित है. आशा की नन्हीं कणिका से, क्यों समाधान की चाह उसे, अपराजित आत्म-प्रतिज्ञा से। अन्तर्वाला जलती रहती, मिटती नहीं उर की दाहकता, मन ऊपर-ऊपर मौन बना अंदर तो घोर अराजकता। चेतन मन तो हमें अवश्य ही शांत लगता है, लेकिन चेतन की सुषप्त अवस्था में तो जन्मों-जन्मों की अराजकता संचित है। जब तक अचेतन मन की For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन की पुरवाई पर्ते नहीं खुलेंगी तुम बाहर तो स्वयं को सांत्वना दे लोगे, लेकिन मन के पास रूपान्तरण की, शांति की कला नहीं होगी। है जगी कामना या सचमुच, नियति का कोई तमाशा है, क्या सोचा था पर क्या पाया, चेतन को घोर निराशा है। जिस क्षण मनुष्य स्वयं को पहचानने की पहल करता है तब पाता है कि उसने स्वयं के लिए क्या सोचा था पर निराशा ही हाथ आई। स्वयं की अवस्था घोर निराशाजनक होती है। आज आँख में दया के आँसू हैं, यह देखकर कि क्या सोचा था, पर क्या पाया ! सोचा तो था होगा कोई महामहिम, लेकिन निकला सोने के वरक़ में लिपटा गोबर ! इसलिए निराशा है, घोर निराशा है - चेतन को, द्रष्टा को। काया भी थककर पसर गई पर उलझन का अवसान नहीं, प्रज्ञा के आगे झुके नयन ज्ञाता को निज का भान नहीं। अब करने दो विश्राम उसे मत छेड़ो बोझिल बातों को, ओढ़ा दो ममता की चादर दो ओट धूप के आतप को। मृण्मय आशा बाधा देगी क्या पथ दर्शाने वाले को, कितना भी सघन हो मेघपटल, रोकेगा तीक्ष्ण प्रभाकर को? क्षणभर के मोह-तमिश्रा से वह जागेगा जगमग होकर, वह चन्द्र नहीं जो घटे-बढ़े वह तो है दिव्य दिवाकर । For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ I उलझनों का कोई अवसान नहीं है । काया थक चुकी है। उपवास-पर-उपवास जारी हैं, खूब तप हो रहा है, पर न तो स्वयं का सान्निध्य मिला है, न स्वयं का ज्ञान, आत्मज्ञान । बस, भाषण और प्रवचन, कौमी तक़रीर भर हो रहे हैं, शब्दों के सशक्त हस्ताक्षर कहला लोगे, पर यह सब वाग्विलास होगा । इस कथित प्रज्ञा के आगे, बुद्धिमत्ता के आगे हम नतमस्तक तो होंगे, पर निज को निज का भान नहीं, ज्ञान नहीं, तो प्रज्ञा सही अर्थ में प्रज्ञा हुई ही कहाँ ! आत्म- अन्वेषण के अभाव में सारी बातें, बोझिल ही लग रही हैं। क्यों न एकदफा बोझिल बातें छोड़ ही दी जायें। जीवन की सहजता में आयें । सहज धारा में उतर आयें । सहजता को ही जीवन का योग हो जाने दें । सहजयोगी हो जायें । इक साधे सब सधे स्वयं को पढ़े बिना स्वयं से वंचित ही रह जाता है 1 मनुष्य अगर किसी को नहीं पढ़ पाया तो केवल स्वयं को । यूँ तो उसने किताबों के अम्बार पढ़ लिए होंगे, केवल एक अनपढ़ा रह गया । सबको सुना, पर एक अनसुना रह गया, सबको देखा पर एक अदेखा रह गया । यह अदेखा तब ही देखा जा सकेगा जब वह अपने अन्तर्मन की ओर दृष्टि घुमाएगा। अपनी ओर आँख उठने का नाम ही अन्तर्यात्रा है । बहिर्यात्रा की कोई सीमा नहीं है, क्षितिज का कहीं अंत नहीं है, ब्रह्माण्ड की थाह नहीं है, पर अन्तर्यात्रा की सीमा है । अन्तर्यात्रा इस शरीर के विस्तार में ही होने वाली है । भगवान करे आपके जीवन में अध्यात्म के नए क्षितिज उजागर हों । 1 मन के मिरज़ा बनो । मन के मालिक न हुए, मन मौन न हुआ, मनका कोलाहल शांत न हुआ तो मन विभावों के गलियारों में जीवन को उलझाये रखेगा। प्राप्त अप्राप्त की आकांक्षा में दुष्पूर बना रहेगा । मैंने सुना है : एक होटल में आग लग गई। एक व्यक्ति उसी होटल में फँस गया। लोगों ने उसे बचाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन आग बढ़ती ही चली गई। फायर ब्रिगेड वालों ने उतारना चाहा पर फेंकी गई रस्सी भी जल गई । तब लोगों ने एक चादर को चारों कोनों से पकड़ा और उस व्यक्ति से For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन की पुरवाई कहा। इस पर कूद जाओ। मगर उसने शंका की कि अगर तुमने कहीं चादर छोड़ दी तो? क्योंकि मैं तो अभ्यस्त हूँ कि जब शिक्षक कक्षा में आता था, मैं कुर्सी खिसका देता था। लोगों ने कहा कूदना हो तो कूदो, नहीं तो वहीं जलो-मरो ! मरता क्या न करता ! उसने अपना साहस बटोरा और जोर से छलांग लगा दी । पर यह क्या, वह कूदा तो था दूसरी मंजिल से और उछलकर जा पहुँचा चौथी मंजिल पर । अपने मन की पड़ताल करो, कहीं ऐसा ही तो हमारे मन के साथ नहीं हो रहा। लोगों ने सोचा चादर पर फेवीकॉल लगा दो, इस बार कूदेगा तो चिपक ही जाएगा। बेचारा एक बार फिर कूदा और नतीजा ! कपड़े तो चिपक गए और वह आठवीं मंजिल पर उछाल खाकर जा पहुँचा। तुम्हारा मन भी इसी तरह उछलता रहता है । कभी यहाँ, कभी वहाँ । मन की स्थिति बहुत विचित्र है, उसकी अराजकता भी अति विचित्र है। बाहर से तो शायद सभी पर विश्वास किया जा सकता है, पर अन्तर्मन की दृष्टि से शायद कोई भी विश्वसनीय नहीं है । विश्वसनीयता लाई जा सकती है अगर व्यक्ति अपने भीतर के शोरगुल को समाप्त कर ले, आंतरिक कषायों को, कर्दम को, कालिख को हटाने का प्रयास करे तो ! भीतर का शोरगुल समाप्त होने पर जो घटना घटेगी वह है परम शान्ति । ध्यान स्पष्ट तौर पर भीतर की यात्रा है । भीतर के कालिख को काटने की कारगुजारी है। जीवन को परिवर्तन की प्रवाई चाहिये, बदलाव का बसन्त चाहिये। ध्यान मृण्मय की मृत्यु है, चिन्मय का जीवन है । ध्यान अमृत है। ध्यान पर ध्यान दें। ध्यान स्वयं औषधि है – भीतर के कोलाहल को शांत करना ही ध्यान का ध्येय है, परिणाम है । हम समझें कि इस भीतरी शोरगल को कैसे शांत किया जाए। मन को कैसे मुक्त किया जाए या मन से कैसे मुक्त हुआ जाए। इसके लिए तीन सूत्र दूंगा – पहला, आपका मन जैसा भी है इसे पहचानो और स्वीकार करो कि आप इस प्रकार के हैं। न तो इससे परहेज करो और न ही निषेध । न कुछ पाने की, न छोड़ने की चेष्टा करो। सिर्फ यह देखो कि तुम्हारे मन की क्या स्थिति है। स्वयं में उतरकर देखो कि क्या तुम मनुष्य के रूप में विकसित हो चुके हो या अभी भी अंदर पशुता मौजूद है। अगर मनुष्य पूरा मनुष्य हो जाए तो For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ - इक साधे सब सधे नैतिकता, धर्म, अध्यात्म की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है । पूर्ण मनुष्य होना ही परमात्मा हो जाना है । अभी तो तुम्हारा मन बंदर की तरह इस डाल से उस डाल पर कूद रहा है। पुरानी कहानियों में पढ़ा है कि पहले किसी-किसी की जान (प्राण) तोते में या इसी तरह किसी भी पक्षी में बाँध कर रखते थे। उसकी गर्दन मरोड़ो कि इधर इन्सान के प्राण भी निकले । मैं नहीं जानता कि यह कहाँ तक सच है, पर आज जो सच देखता हूँ वह यह कि लोगों की जान तिजोरियों में बँधी रहती है। तिजोरी पर हाथ लगा कि प्राण डाँवाडोल होने लगते हैं। प्राण अब पैसा हो गया है । अभी तक मनुष्य पैदा ही कहाँ हुआ है । इसे नया जन्म दिया जाना चाहिए। स्वयं के पशुत्व को पहचानने पर ही नया जन्म हो सकता है । स्वयं की पशुता को पहचानना प्रभुता की ओर बढ़ने का सार्थक कदम है। हमें बढ़ना है आत्म-स्वरूप को पहचानने की ओर, अरूप की ओर । मन भी रूपातीत है । मन भी इन्द्रियातीत है। मन को पहचानना मन से मुक्त होने की ओर पहल है । मनोमुक्त ही, मनोमौन ही अस्तित्व के गूढ़ रहस्यों को जान और जी पाता है। बस, मन की पहचान चाहिये । मन का मौन चाहिये। दूसरा सूत्र है – मन को पहचानने के बाद उसे सम्यक् दिशा प्रदान करो। मन की गलत दिशाओं के कारण हमारे सबसे करीब होने के बावजूद मन ही हमसे सबसे अधिक दूर है, अज्ञात है। मन के रूपांतरण से ही हमारी चेतना में क्रांति घटित हो सकती है। जब तुम्हें पता है कि किसी के प्रति तुम्हारे मन में वैर-विरोध है तो उसे प्रेम में बदलो । मन को प्रेम का पाठ पढ़ाओ, उसे प्रेम से आपूरित होने दो । मन को मीरा हो जाने दो । मीरा के मन हो जाओ। अंधकार को मिटाने के लिए प्रकाश की एक किरण ही पर्याप्त है। जहाँ-जहाँ विकार उठता है, जिनके प्रति विकार उठता है वहाँ पवित्रता की भावना लाएँ । नर और नारी के स्थान पर नारायण को खड़ा कर दो। तुम्हारी दृष्टि स्वयं ही बदल जाएगी। अपने हर कार्य को परमात्मा को समर्पित कर दो। कर्तृत्व तुम्हारा समर्पण और पूजन बन जाए। मन का सद्गुणों से श्रृंगार करो। For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन की पुरवाई तीसरा सूत्र है – मनोमौन । मन का, वाणी का माधुर्य । सदा नपे-तुले शब्दों का प्रयोग करें। अगर वाणी से किसी को सुख नहीं दे सकते तो मौन रह जाना बेहतर है । अपनी वाणी से आप कितनी हिंसा करते हैं और कष्ट पहुँचाते हैं इसका आपको अनुमान भी न होगा ! मैंने किसी व्यक्ति से पूछा, क्या आप अपनी बीमार पत्नी की सेवा करते हैं ? वह बोला, ‘हाँ करता हूँ।', मैंने पूछा, 'वह कैसे? क्योंकि आप तो अपने व्यवसाय में अत्यधिक व्यस्त दिखाई देते हैं।' वह बोला, 'मैं अपनी आँख में ललाई और वाणी में खराश नहीं आने देता। इससे अधिक और क्या सेवा हो सकती है अपने परिवार की, जिसमें क्रोध और वाणी की कर्कशता नहीं है।' इतने नपे-तुले शब्दों का प्रयोग करें जैसे किसी को टेलीग्राम दे रहे हों। यह वाणी का संयम, भाषा-समिति का पालन और वचन-गुप्ति का निर्वाह हो जाएगा। जैसे चल रहे हो वैसे ही चलो, सिर्फ चलने की शैली बदलनी है। वाणी का तो उपयोग करना है, लेकिन विवेक लाना है । खाओ लेकिन जरूरत से अधिक नहीं और न ही भूखे रहो। इससे जीवन में नियमितता आएगी, परमितता आएगी। ये बहुत छोटी-छोटी बातें हैं लेकिन इन्हीं के द्वारा हम जीवन को नया रास्ता, नया मार्ग दे सकते हैं। स्वयं को नई दिशा दे सकते हैं। तुम ध्यान को जीओ। ध्यान तुम्हें स्वयं विवेक देगा। ध्यान के द्वारा मन परिवर्तित किया जा सकता है, उसे पहचाना जा सकता है। ध्यान में अपनी वृत्तियों की सजगतापूर्वक प्रेक्षा करो, विपश्यना करो। ओम् के द्वारा, प्राणयाम के द्वारा अपने भीतर की सफाई करने का प्रयास करो। मोह को ज्ञान की कैंची से काटो और लोभ को ॐ की गदा से मारकर भगाओ। अभी मन में विचार ही विचार हैं, इन्हें देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो। यह देखना ही विचारों को शांत कर देता है । बल्ब तब तक ही जलेगा जब तक उसे करंट मिलेगा। करंट के ऑफ करते ही बल्ब शांत (बुझ) हो जाता है। तमने शरीर को सोते हए तो देखा है, पर कभी मन को सोते हए देखा है? जिस दिन मन शांत हुआ, समझो सो गया। मन का सोना और स्वयं का जगना – मुक्ति की इतनी-सी राह है। मन चलते-चलते, दौड़ते-भागते बहुत थक गया है । उसे विश्राम चाहिये । उसे सोने दिया जाये। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे बुद्ध के जीवन की घटना है कि एक दिन उन्हें प्यास लगी और उन्होंने आनंद से कहा, 'वत्स, मुझे प्यास लग रही है । यहाँ पास में जो सरिता बह रही है उसमें से जल भर लाओ।' आनंद वहाँ गए। उन्होंने देखा कि जहाँ से वे पानी लेना चाहते हैं वहाँ से अभी-अभी कुछ बैलगाड़ियाँ निकली थीं। अत: पानी गंदा हो रहा था । आनंद भगवान के पास पहुँचे और कहा, 'भन्ते उस नदी का पानी तो बहुत गंदा है । आज्ञा दें तो किसी दूसरी झील या सरोवर से पानी ले आऊँ।' 'नहीं, मुझे तो उसी सरिता का पानी पीना है।' आनंद फिर गए। देखा, पानी गंदला है। पहले से कम है पर गंदा तो है । वापस आकर कहा, 'भंते ! पानी पीने योग्य नहीं है।' भगवान मुस्कुराए । कहा, 'आनंद जाओ, इस बार पानी साफ मिलेगा।' जाकर आनंद जल भर लाए। भगवान ने पूछा, 'वत्स कुछ समझे ?' 'नहीं, भंते मैं तो कुछ भी नहीं समझा।' 'तुम बार-बार आए-गए यह तुम्हारा पुरुषार्थ था। लेकिन पानी किसी ने साफ नहीं किया। सिर्फ धैर्य धारण किया मन के प्रति । आतुरता न रखी। धीरे-धीरे गंदगी जम गई और निर्मल पानी तैर गया।' ऐसे ही जीवन भी धीरे-धीरे बदलता है, रूपान्तरित होने लगता है और जिस तरह पानी पीने लायक हो जाता है वैसे ही जीवन भी जीने योग्य हो जाता है। तब जीवन में जीवंतता होती है, आनंद का उत्सव रहता है, अमृत महोत्सव बनता है । अंतिम बात, मन से मुक्त हो जाओ, मन को मुक्त हो जाने दो। नियति में जैसा जो होना है उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं, उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं। सहज, सौम्य रहकर अपना जीवन जिओ। तब वास्तविक अर्थों में जीना होगा, यही जीने की कला बन जाएगी । वह आत्मवान है जो मन से मुक्त है, शांत है । वह जीवन का तपस्वी है । जीना स्वयं एक तपस्या है। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह में देहातीत [ संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर, ७-६-९६, प्रश्न- समाधान ] ध्यान के दौरान अनुभूति होती है कि डूबते समय कहीं ऐसा न हो कि बाहर ही न आएं, यह डर का भाव क्यों पनपता है अर्थात् कहीं विक्षिप्त अवस्था न हो जाए । प्रश्न पूछने वाले महानुभाव बहुत समझदार हैं । वे पहले ही सब कुछ तय कर लेना चाहते हैं। उन्हें डर है कि कहीं पागल न हो जाऊं, जो है उससे भी वंचित न हो जाऊं । पानी में उतरने से डरते हैं कि कहीं डूब ही न जाऊं इसलिए पहले तैरना सीखना चाहते हैं । अब पानी में उतरे बिना कोई तैरना कैसे सीख सकता है। बिस्तर पर तुम कितने ही हाथ-पाँव चला लो, कलाबाजियाँ खा लो पर तैरना तो पानी में ही हो सकता है । इसी तरह डरते रहे तो कुछ भी नहीं कर पाओगे। घर से बाहर निकला और मर गया तो ? दुकान खोली और घाटा लग गया तो ? इस तो का कहीं अंत नहीं होगा । सिर्फ इस 'तो' में जाकर ही कुछ पाया जा सकता है । डरो मत, 1 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ स्वयं से क्या डरना । खुद से ही डर गए तो निर्भय किससे रहोगे ? स्वयं में उतरकर अगर खतरा लगता है कि कहीं भीतर ही खो गया तो, तो यह तुम्हारा परम सौभाग्य होगा कि ध्यान में मृत्यु का जीवन घटित हो गया। किसी ट्रक के नीचे कुचलकर जीवन मृत 'हो जाए इससे तो अच्छा ध्यान में उपलब्ध हो जाओ । करंट का झटका खाकर मृत्यु आए इससे तो समाधि-मरण अधिक श्रेयस्कर है । काँटों में मरना पड़े तो बेहतर है कि फूलों में मरा जाए । इक साधे सब सधे अभी तुम असुरक्षित महसूस कर रहे हो, लेकिन असुरक्षा ही जीवन की सबसे बड़ी सुरक्षा है । असुरक्षा जीवन का स्वभाव है । तुम जहाँ-जहाँ सुरक्षा खोजने जाओगे, वहाँ असुरक्षा ही हाथ आएगी। अभी तुम भयभीत हो, इसलिए सुरक्षा खोजते हो । लेकिन सोचो जिन्हें तुमने सुरक्षा मान रखा है वहाँ भी तुम सुरक्षित हो ? फिर अपने में डूबने से भय कैसा ? जब तुम असुरक्षित होते हो, सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हारी सुरक्षा करता है । अपनी ओर से जो भी तुम बचाते हो, वह खो जाता है । और जो खो देते हो, अंतत: वही मिल जाता है । इसलिए एक बार खतरा उठा ही लो। आज की जो विक्षिप्तताएँ हैं वे समाप्त हो जाएंगी। आत्म-विश्वास और आत्म- गौरव आविष्कृत हो जाएंगे । तुम पूछते हो, 'कहीं विक्षिप्त न हो जाऊं ?' विक्षिप्त तो मनुष्य है ही । विक्षिप्तता की ही तो चिकित्सा करनी है । एक पागल इसलिए पागलपन के इलाज से बचना चाहता है कि कहीं वह पागल न हो जाए। यह क्या कम विक्षिप्तता है कि 'ध्यान में डूबा, कहीं डूबा ही रह गया तो । बाहर न आया तो ।' भगवान करे डुबकी गहरी लग ही जाए। गहरे पानी पैठ । गहरे पैठें, तो ही मोती मिलेंगे । बाहर की चिन्ता मत करो । बाहर तो तुम आओगे ही। ठीक वैसे ही जैसे तरणताल में कूदो, तो पानी से आखिर तो बाहर आओगे ही। पर यह बाहर आना, कुछ होकर आना हुआ। कुछ पाकर आना हुआ । 'जिन खोजा तिन पाइयां' जिसने खोजा, उसने पाया । जो डूबने से डर गया, वह लहरों को गिनता रहा । ध्यान तुम्हें समझ देता है कि तुम कितने विक्षिप्त हो । ध्यान से विक्षिप्तता नहीं आती । हाँ, कोई और तुम्हें पागल कह सकता है । क्योंकि तुम For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह में देहातीत ३३ उनसे कुछ अलग हट गए, तुम्हारी दीवानगी कहीं और लिप्त हो गई। तभी तो मीरा को लोगों ने बावरी कहा, चैतन्य महाप्रभु दीवाने कहलाए। महावीर और बुद्ध भी जन-आलोचनाओं का शिकार बने । इन संसारियों की दृष्टि में तो वे पागल ही थे और आप अगर उन्हें समझदार कहते हैं तो जो काम उन्होंने किए आप भी करके दिखा दीजिए। एक काँटा निकालने के लिए दसरा काँटा सहयोगी होता है, लेकिन हम उन्हें संभालते नहीं हैं; आखिर फैंक ही देते हैं। आगे बढ़ें, खतरे की चिन्ता न करें। मैंने सुना है : एक व्यक्ति को पहाड़ के शिखर तक जाना था। गहन अंधकार था, पर उसके हाथ में लालटेन भी थी, जिसका प्रकाश दस फुट तक जाता था। उसने लालटेन उठाई, चला और ऊपर की ओर देखा, दूर-दूर तक गहरा अंधकार ! वह वहीं बैठ गया। उसके साथ एक मुसाफिर और था उसने पूछा 'भाई, रुक क्यों गए !' 'अरे देखते नहीं, कितना अंधेरा है, वहाँ तक कैसे पहुँचूँगा।' ‘पर तुम्हारे पास तो लालटेन है ।' 'है तो सही लेकिन इसका प्रकाश तो दस फीट तक ही जाता है।' 'मूर्ख कहीं के ! जब तुम दस फीट चलोगे तो प्रकाश और आगे दस फीट तक चला जाएगा।' जैसे-जैसे डूबोगे डूबने के खतरे कम होते जाएंगे, तैरना स्वयं ही आता जाएगा। श्वास-प्रक्रिया के अन्तर्गत जब ध्यान अन्तर्मुखी होता है तो आकाश और धीमी छाया के योग से एक विराट छाया दिखाई देती है जो प्राय: मेरे कार्यक्रम के साथ-साथ चलती रहती है। वह अन्तर्मन में ऐसे प्रकट होती है जैसे मेरी ही छोटी तस्वीर अति विराट कर मेरे सामने प्रस्तुत कर दे। श्वास-प्रक्रिया जैसे-जैसे सूक्ष्म होकर अन्तर्मुखी होती है व्यक्ति का स्थूल शरीर से संबंध शिथिल हो जाता है और सूक्ष्म शरीर से संबंध निर्मित हो जाता है। सूक्ष्म शरीर से संबंध होने पर ही वह स्वरूप उभरता है जो वास्तव में है। प्राय: ऐसा होता है कि मनुष्य को अपना विराट स्वरूप ही बूंद की भाँति दिखाई देता है और कभी बूंद जैसा रूप For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ इक साधे सब सधे सागर के समान दिखाई देता है । आपके साथ जो छाया रहती है उससे आपको कोई नुकसान नहीं होगा, वह आपकी लेश्याओं की ही परछाई है। इसलिए उस छाया से तनिक भी विचलित न हों । एक तो स्थूल शरीर की परछाई होती है जिसे हम शरीर की तस्वीर कहेंगे और एक सूक्ष्म शरीर की परछाई है जिसे भाव-शरीर की परछाई कहेंगे। यह हमारे भाव-शरीर की ही छाया है । छायाओं की रासलीला व्यक्ति जब स्वयं को देह से भिन्न देखता है, तो उसके लिए देह भी एक छाया ही बन जाती है। देह का दृष्टा विराट् होकर जीता है । देह का जो आकार है, उससे भी विशाल होकर जीता है। अच्छा होगा, अपनी सजगता के प्रति और सजग हों। स्वयं को ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त दैवीय सत्ता और मुक्त आत्मा से जोड़ें। पहले चरण में अतिमनस् होकर मन की विपश्यना करें। विचारों को देखें, वृत्तियों को देखें, उनसे स्वयं को अलग देखें और उनके प्रति तटस्थ रहें । दूसरे चरण में हृदय में आएं । हृदय में परमात्म-सत्ता का स्मरण करें, अनुभव करें, अहोभाव से उसमें डूबें । तीसरे चरण में अपने मस्तिष्क में आ जाएं। मस्तिष्क के आकाश में, इस भीतर के शून्य में प्रविष्ट हो जाएं । और फिर मुक्त हो जाएं इस क्षेत्र से भी। स्वयं को ऊर्ध्व आकाश की ओर उठा दें। दैवीय तत्त्वों से एक लय हो जाएं । दैवीय शक्ति से आप स्वयं सम्बद्ध हो जाओगे। वापस लौटोगे तो दैवीय होकर, प्रकाश होकर । तब परछाई नहीं होगी, हम स्वयं होंगे। हममें देवत्व होगा। जब मैं स्वयं को सौंदर्य, प्रतिष्ठा, मेधा और प्रतिभा में अन्य लोगों से पीछे पाती हूँ तो मन अत्यंत खिन्न हो जाता है और जीवन नीरस लगता है। कृपया, मार्गदर्शन दें। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह में देहातीत जीवन को कभी भी प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा में नहीं उलझाना चाहिए । हम स्वयं के मौलिक व्यक्तित्व के विकास में विश्वास रखें । तुलना करने में तो व्यक्ति प्राय: अपने को छोटा ही पाता है और इसी से मन में आत्म-हीनता की ग्रंथि निर्मित होती है। अपने पड़ोस में चार मंजिला भवन देखकर हीनता आती है, वहीं दूसरी ओर झोंपड़ी देखकर संतुष्टि भी होती है। निश्चित ही अपने व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए। अपनी मेधा का, प्रतिभा का, सौन्दर्य का विकास करना चाहिये, लेकिन प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा से नहीं। आप अपने अन्तसौंदर्य का विकास करें। यहाँ ध्यान के माध्यम से आपकी प्रतिभा और मेधा भी निखर जाएगी। चेहरा सुन्दर हो या न हो, हृदय तो सुन्दर हो ही जाएगा। आप किसी की बात काट सकें या न काट सकें, पर लोग आपकी बात अहमियत के साथ सुनें यह क्षमता तो आ सकती है। मनुष्य की प्रतिभा और मेधा भीतर छिपी हई है, कंठित है। उसी को जगाने के लिए ही ध्यान का मार्ग है। मेधा और प्रतिभा का जागरण ही ध्यान का व्यावहारिक परिणाम है । मन का सौन्दर्य चेहरे को सुन्दर बनाता ही है। मन में तेजस्विता आ रही है, तो वह चेहरे पर प्रगट होगी ही। व्यवहार में, विचार में, सबमें वह तेजस्विता आएगी। तुम प्रतिभाहीन नहीं हो । प्रतिभा दबी हुई है। अपनी प्रतिभा को उजागर करने के प्रति सजग बनो, तो प्रतिभा निखर ही आएगी। ध्यान का कार्य है व्यक्ति का मौलिक व्यक्तित्व उजागर करना। वह मौलिक व्यक्तित्व जो भी है, जैसा भी है, हमारी प्रतिभा का ही उजागर होना हुआ। आप निरंतर प्रयास करते रहिए ईश्वर ने चाहा तो सदपरिणाम अवश्य मिलेंगे। वैसे मेरी सेवाएँ तैयार हैं, वैसे जब चाहें संपर्क कर सकते हैं। - स्पंदन-शक्ति के स्पंदन की अनुभूति के पश्चात् परम चैतन्य-शक्ति की अनुभूति किस प्रकार की जानी चाहिए और अनहद नाद की ओर कैसे बढ़ा जाए । कृपया मार्गदर्शन दें। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ इक साधे सब सधे धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय । ओ रे मन तू रुक जा, इतनी जल्द मत कर । तू जितनी जल्दी करेगा उतनी ही देरी से पहुँचेगा। अभी तू बालक है अभी तुझे किसी की अंगुली थामने की जरूरत है । जिस दिन तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे पाँव पूरी तरह मजबूत हो चुके हैं तुम खुद ही अपनी माँ की अंगुली छोड़ दोगे और दौड़ने लगोगे। और जब तक ऐसा न हो, बहुत ही धैर्यपूर्वक, चलते रहना है । अन्तर्विकास आकस्मिक घटना नहीं है; यह शनै: शनै: बीज से बरगद बनना है। अनुभूति स्वयं अनुभूतियों को बढ़ाती है। एक अनुभूति दूसरी अनुभूति का दरवाजा खटखटाती है। एक शक्ति दूसरी शक्ति को उद्दीप्त करती है। खुदाई शुरू की है तो खोदते-खोदते पानी भी निकलेगा। आपके स्पंदनों की अनुभूति अभी स्थूल है, इसीलिए प्रश्न उठ रहे हैं । चैतन्य-शक्ति के स्पंदन स्वयं समाधान होते हैं। उनके प्रति कभी संदेह-शंका, प्रश्न और प्रतिप्रश्न नहीं उठते । उनकी अनुभति विरल और स्पष्ट होती है। ध्यान के द्वारा हम भीतर प्रवेश करते हैं। हमारे कर्मों की कितनी निर्जरा होती है, मन कितना शान्त होता है, अपनी वृत्तियों के प्रति साक्षी और तटस्थ रह पाते हैं, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि ध्यान का फूल कितना खिलेगा। शून्य आकाश घटित होने के बाद, चित्त की शून्य दशा उपलब्ध होने के पश्चात् जिस शक्ति का अनुभव होगा वही परम चैतन्य-शक्ति है। मन के शांत होने पर, मन के रिक्त हो जाने पर, मन के निरभ्र आकाश हो जाने पर स्वयं के भीतर जिस सत्ता का अनुभव होता है वह व्यक्ति स्वयं है। उसकी अपनी अस्मिता है, अपना अस्तित्व है, अपनी स्वसत्ता है, उसे चाहे जो नाम दो, परम चैतन्य या शक्ति या कुछ भी। प्रश्न का अगला चरण है; अनहद नाद की ओर कैसे बढ़ा जाए । नाद तो स्वयं फलित होता है । वह तो अस्तित्व से आई ध्वनि है। इसे प्राप्त करने के लिए हम अनुगूंज के रूप में प्रयोग कर रहे हैं । अनुगूंज का कार्य है कि वह अनहद नाद के मार्ग को खोले । जैसे बंद कक्ष में छेद कर दिया जाए तो सूर्य का प्रकाश स्वयं ही कक्ष में पहुँचेगा। अनुगूंज का कार्य भीतर में छिद्र करना For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह में देहातीत ३७ है। उस भावदशा में छिद्र करना जहाँ अनहद नाद घटित हो सके। अस्तित्व अपनी पूर्णता से अन्दर प्रविष्ट हो सके। यह क्रिया नहीं, परिणति है। इसके लिए अधीर मत होइए, केवल प्रतीक्षा कीजिए, सश्रम प्रतीक्षा ! अनहद नाद आकस्मिक घटना है, चमत्कार ! गत दस वर्षों से नियमित साधना करने वाले साधक को आध्यात्मिक दृष्टि से क्रोध पर विजय प्राप्त करना कहाँ तक सहायक हो सकता है या नहीं, जबकि साधक पूर्ण स्वस्थ रहा हो ! क्रोध और साधना एक दोराहे पर खड़े हैं। काम और साधना इनका अलग दोराहा है । वैर और साधना एक अलग रास्ते पर हैं। अहंकार और साधना अलग तलहटी पर हैं। मनुष्य के भीतर अपना एक मूल संवेग होता है। सामान्यतया मनुष्य में तीन मूल संवेग होते हैं- क्रोध, भय और काम । इन तीनों में से किसी व्यक्ति में क्रोध का तापमान अधिक होता है, किसी में काम का बुखार अधिक रहता है और किसी में भय की कंपकंपी ज्यादा रहती है। __ मनुष्य को अपने मूल संवेग से युद्ध करना होता है और यही जितेन्द्रियता है। ध्यान के द्वारा पहले चरण में हम अपने मूल संवेग को पहचानते हैं। संभव है कि कोई निर्भय हो लेकिन अत्यधिक क्रोधी हो । एक व्यक्ति क्रोध बिल्कुल न करे लेकिन कामुक हो सकता है । एक न क्रोध करता है न कामी है फिर भी क्रोध विद्यमान है तो इसका अर्थ है कि जितना गहरा क्रोध है उतनी गहराई तक साधना नहीं पहुंची है। साधना ऊपर-ऊपर ही रह गई और क्रोध ठेठ अंतरंग में व्याप्त है । आपकी जड़ों में तो क्रोध जमा ही रहा । जब तक सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश करके उन जड़ों को नहीं हिलाते तब तक साधना का निखार नहीं आता। और साधना करते हुए भी साधना को समझ नहीं पाते। यह ठीक है कि साधक को क्रोध नहीं करना चाहिए, साधक ही क्यों For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ किसी भी प्राणी को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध तो हमेशा ही जलाता है । 'फितरत को नापसंद थी तेजी जुबान में, पैदा न की इसलिए हड्डी जुबान में ।' इक साधे सब सधे उस वाणी का क्या अर्थ जो अपनी ओर से दूसरे को पीड़ा पहुँचाए । अगर कोई पूछे कि अहिंसा का स्वस्थ आचरण क्या होगा तो मैं कहूँगा अपनी वाणी के द्वारा दूसरों को माधुर्य प्रदान करना अहिंसा का स्वस्थ आचरण है ! क्रोध निश्चित ही टूटना चाहिए। जितना गहरा क्रोध है उतनी गहराई तक साधना में जाएँ । अपने क्रोध को समझें, क्रोध के कारणों को समझें । स्वीकार करें कि क्रोध आता है और उन कारणों के निवारण का प्रयास करें जिनके कारण क्रोध आता है । इसके उपरांत भी यदि क्रोध आता है तो बेहतर होगा वाणी का, होठों का मौन लेना शुरू करें। प्रारंभ में तो यह भीतर गहरी पीड़ा, गहरी प्रतिक्रियाओं को जन्म देगा, लेकिन धीरे-धीरे क्रोध नहीं आएगा । आए तो क्रोध पी जाइए। शराब से तो बेहतर ही है । क्रोध वह जहर है जिसे पीने के लिए बहुत ताकत चाहिए । अमृत हुए बिना जहर नहीं पीया जा सकता और जहर पी-पीकर ही अमृत बनता है । विष ही अमृत में रूपान्तरित होता है । पीना सीखो। किसी के क्रोध को, किसी के कटु वचन को पीना सीखो, उन्हें जीना सीखो । कहीं से तो यात्रा शुरू करनी ही होगी । इसलिए पीओ । आज अगर तुम किसी के कटु शब्द सह सकते हो तो उम्मीद की जा सकती है कि मच्छर की काट को सह जाओगे । आज मच्छर की काट सह सकते हो तो कल किसी का चाँटा भी सह जाओगे। आज अगर एक चांटा सह सकते हो तो उम्मीद की जा सकती है अगर तुम पर लाठी बरसे तो तुम कह सकते हो यह संयोग था । जैसे पेड़ के नीचे से निकले और टहनी गिर गई यह सांयोगिक था वैसे ही लाठी का गिरना भी सांयोगिक हो जाएगा। जैसे टहनी के गिरने पर पेड़ को कुछ नहीं करते-कहते, वैसे ही लाठी पड़ने पर भी मौन-भाव रहेगा। आज लाठी सह पाए तो उम्मीद है कि कभी क्रॉस पर भी लटक सकते हो। उम्मीद की जा सकती है कि आप कभी कानों में कीलें भी ठुकवा सकते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि फिर से नया जीसस, नया महावीर, नया बुद्ध, नया सुकरात पैदा हो सकता है । पीना है क्रोध को पीओ, For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह में देहातीत जीना है खुद को जीओ। - क्या क्रोध का सम्बन्ध स्वस्थता-अस्वस्थता से है ? क्या स्वस्थता और अस्वस्थता का संबंध केवल शारीरिक नहीं है । क्रोध स्वयं एक बीमारी है। जहाँ बीमारी है वहाँ स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है ? कई महापुरुषों ने बीमारियों से ग्रसित होकर शरीर त्यागा जैसे रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रामचन्द्र डोंगरे आदि । क्या इसका कारण इन लोगों का ध्यान शरीर से हटना या शरीर से हटकर जीवन जीना था अर्थात् शरीर के प्रति आसक्ति होनी चाहिए या नहीं? आसक्ति आवश्यक हो तो कितनी? महापुरुष स्वयं तो ग्रसित हुए नहीं, न ही बीमारियों को निमंत्रण दिया। अतिथि की खातिरदारी तो करनी ही पड़ती है । उसे धक्का देकर निकाला नहीं जा सकता। अध्यात्म-पुरुष के लिए शरीर की बीमारियाँ मेहमान ही हैं, क्योंकि उनके लिए शरीर धर्मशाला है । ये बीमारियाँ, ये विचार, ये विकल्प इस धर्मशाला में आने-जाने वाले मुसाफिर हैं। आते हैं, चले जाते हैं। सबका अपना-अपना धर्म । शरीर के धर्म को कब तक निभाते रहेंगे, कब तक उसका साथ देते रहेंगे। जिसने अपने शरीर में जीते जी अपनी मृत्यु को देख लिया उसकी शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रह पाएगी । जो शरीर को ही सब कुछ मानता है, उसी की शरीर के प्रति आसक्ति रह सकती है और जिसने शरीर और आत्मा या शरीर और चेतन-तत्त्व को अलग-अलग जान लिया, उसके लिए शरीर में बीमारियाँ आएँ या न आएँ वह तटस्थ ही रहता है। शरीर तो अन्तत: त्याज्य है। इसके प्रति चाहे जितना मोह रख लो अन्तत: इसे टूटना ही है । इसे खंडहर होना ही है । शरीर का वैभव, शरीर की नेमत चाहे जो हो यह श्मशान का घर है। वहीं जाना है इसे । एक साधक निश्चित ही स्वयं को शरीर से अलग देखता है। न केवल शरीर को अपित् For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० इक साधे सब सधे इसके परिणाम भी देखता है । लेकिन शरीर के स्वभाव से अलग होना सामान्य बात नहीं है । हमने पाया है कि तीर्थंकर जिन्हें जन्मजात अवधि-ज्ञान होता है वे भी शरीर के धर्म से अलग नहीं चल पाते । तीर्थंकर के विवाह ही नहीं होते, बल्कि सौ-सौ संतानें तक होती हैं। अपने शरीर के स्वभाव और परिणामों से मुक्त होना इतना आसान नहीं है जबकि वे अवधि-ज्ञान के, एक विशिष्ट ज्ञान के धारक ! किसके मन में कौन से विचार आ रहे हैं इसके भी दृष्टा ! लेकिन फिर भी जानते हैं इस शरीर का स्वभाव । वे लोग धन्य हैं जिन पर शरीर का प्रभाव और शरीर का धर्म असर नहीं करता। वे देहातीत होते हैं, विदेही होते ____ अध्यात्म का धर्म यही कहता है तुम्हें शरीर के जो परिणाम दिखाई देते हैं उन्हें उनसे अलग होकर देखो। उनके प्रति सजग रहो, उनके दृष्टा बनो। आचार्य कुन्दकुन्द ने एक बहुत प्यारी-सी बात कही "क्षायिक सम्यक्त्व जीव ! उसके द्वारा चाहे चेतन द्रव्यों का सेवन हो या अचेतन द्रव्यों का सेवन, कर्मों की निर्जरा ही होगी।" वह मुक्त ही होगा ! आत्म-द्रष्टा स्वयं को शरीर से अलग समझेगा, जानेगा, देखेगा और अपना जीवन जीयेगा। वह भोक्ता भी बन गया तो भी मुक्ति की राह ही खलेगी। इसीलिए अध्यात्म-पुरुष के लिए कोई बीमारी नहीं है, रोग रोग नहीं है, भूख भूख नहीं है – ये सब शरीर के धर्म हैं। शरीर के प्रति आसक्ति? केवल उतनी ही होनी चाहिए जिससे आप अपना कल्याण कर सकें। कहीं ऐसा न हो कि शरीर आप पर हावी हो जाए और शरीर में ही फँसकर रह जाएँ। सभी तो शरीर में उलझे हुए हैं। कभी-कभी शरीर अपने स्वभाव में आ जाता है, लेकिन तब भी अपने मौलिक स्वभाव का सदा स्मरण रखो कि ये दूसरी चीजें तुम पर हावी न हों। उत्तराध्ययन का सूत्र है ‘सरीर माह नावत्ति जीवो वच्चई नावियो, संसारो अण्णवो वुतो जं तरंति महेसिणो ।' शरीर नौका के समान है, जीव नाविक के रूप में है जिसे महर्षि जन, प्रज्ञा से सम्पन्न लोग पार कर जाते हैं। लेकिन नौका को नाविक के कंधे पर चढ़ा दें तो कैसे पार करेंगे। नाविक नाव में हो, नाव नाविक के नियंत्रण में हो, तो ही नौका पार लगने का साधन है, नौका नाविक पर आ जाए, तो जन्म-मरण के भंवर में फंस गए, डूब गए, उलझ गए। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह में देहातीत शरीर स्वयं एक सौगात है। हम इसका उपयोग करें । इसमें मूर्च्छित न हों । इसकी स्वच्छता और स्वस्थता पर ध्यान दें, पर इसके श्रृंगार में अपनी जीवन-शक्ति को उलझाकर न रखें। व्यक्ति शरीर के प्रति जितना आसक्त/मोहित होगा, वह उतना ही शारीरिक होगा। अनासक्ति विदेह-जीवन के रास्ते खोलती है। अतिमनस् व्यक्ति देह से ऊपर उठ ही जाता है। मन मौन रहे, हम अन्तर-दशा में स्थित रहें, तो देह के धर्म हम पर हावी नहीं होंगे। कभी कोई इन्द्रिय-धर्म, शरीर-धर्म काम कर भी जाये, तो वह क्षणिक होगा। बालू में खींची लकीर की तरह। रोग तो शरीर का धर्म है, शरीर सड़न-गलनशील है। सहज चिकित्सा से वह स्वस्थ हो जाए, तो स्वीकार्य । ज्यादा छातीकूटा मत करो। तुम स्वस्थ रहो, मन से प्रसन्न रहो, शरीर पर उसकी स्वस्थता का स्वत: प्रभाव पड़ेगा। स्वस्थ मन स्वस्थ शरीर के लिए प्राथमिक चरण है। देह में रहो, देह के मत बनो । विदेह हुए महानुभावों को भावपूरित नमस्कार । For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारों की विपश्यना [ संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; ८-६-९६, प्रवचन] नुष्य के अन्तर्मन में सोच-विचार और चिंतन की अनवरत धारा चलती रहती है। कोई क्षण ऐसा नहीं होता जब वह विचारविहीन हो। वे धन्यभागी हैं जिनके विचार-विकल्प शांत हो चुके हैं, लेकिन हमारे अन्तस् में तो यह प्रवाह निरंतर जारी है। हमारे विचार तो नदी की धारा के समान सतत प्रवाहमान हैं। कभी-कभी हम किसी बिंदु-विशेष को केन्द्रित कर सोचते-विचारते हैं, कभी अनगढ़ विचार दौड़ते रहते हैं। विचार मनुष्य के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं। जिसके जैसे विचार होते हैं, वैसा ही उसका व्यक्तित्व निर्मित होता है। विचारों का आंदोलन व्यक्तित्व का आंदोलन बन जाता है। विचारों की खिलावट जीवन की खिलावट बन जाती है । विचारों की गिरावट जीवन को नरक बना देती है। For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारों की विपश्यना हमारी हर गतिविधि अन्ततः हमारे सोच-विचार का ही प्रतिनिधित्व करती है और हमारे मानस को प्रतिध्वनित करती है । जैसे कोई व्यक्ति जंगल में जाकर आवाज़ लगाए तो उसकी आवाज़ प्रतिध्वनित होकर उसी पर बरसती है ऐसे ही मनुष्य का आइना उसका चिंतन-मनन है । इसलिए जो स्वयं को ऊंचा उठाना चाहता है उसे अपने सोच और चिंतन को ऊँचा उठाना होगा अस्वस्थ विचारों को लेकर जीवन, घर, परिवार और समाज को स्वस्थ नहीं किया जा सकता । स्वस्थ समाज की रचना के लिए स्वस्थ विचारों का स्वामी होना आवश्यक है । 1 ४३ दुनिया में विभिन्न प्रकार के मनुष्य हैं, लेकिन सभी के पास चिंतन- मनीषा नहीं होती। क्या वाज़िब है और क्या गैरवाज़िब, इसका निर्णय करने की विवेक भरी चेतना उनके पास नहीं होती । बुद्धि की सार्थकता किसी बिंदु पर विचार करने और समाधान पाने में ही है । अन्यथा पढ़ने-लिखने वाले भी अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम करते हैं और अनपढ़ भी भूखे नहीं मरते । फिर भी बुद्धिमत्ता का मूल्य यही है कि व्यक्ति अपनी जीवनगत समस्याओं को सुलझाने के लिए इन समस्याओं पर थोड़ी देर सोचे-समझे। जिनके पास सोच नहीं उनके पास कोई समाधान भी नहीं । समाधान की आत्मा उसके पास है जिसके पास सोच के प्राण हैं । समाधान का महल उसके पास है जिसके पास सोचने की नींव है। जो व्यक्ति विचारने की क्षमता रखता है, वही अपने मस्तिष्क के विकास की भी क्षमता रखता है। दुनिया में मनुष्य ही वह प्राणी है जिसका मस्तिष्क विकसित है । अन्यथा जिनकी जैसी प्रकृति है, वैसा ही वे जी जाते हैं I जब मैं चिंतन की, मनन की या विचार की बात कहता हूँ तो यह नहीं कहता कि आप बहुत बड़े विचारक, चिंतक या दार्शनिक ही बनें। विचारक तो सत्य पर केवल सतही विचार करके रह जाता है, सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाता। बड़े-बड़े पंडित, प्रोफेसर विचारों को बहुत ही शानदार तरीके से अभिव्यक्त तो कर देंगे, लेकिन उनके जीवन में आचार और विचार के बीच एक विरोधाभास प्रतीत होगा। उनके मुंह से अगर लार भी टपक पड़े और For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ इक साधे सब सधे कोई शिकायत कर जाये तो वे यही कहेंगे कि तुम इसे लार नहीं, गंगा की धार समझो। एक बार ऐसा ही हआ कि एक पंडितजी के मुँह से लार पड़ी। पास में खड़े युवक से कहने लगे यह लार नहीं गंगा की धार है। युवक दस मिनट बाद पंडितजी के पास पहुँचा और कहा, महानुभाव अपना मुँह खोलिए। पंडितजी ने सोचा कथा कुछ जमके सुनाई है, तो प्रसादी दे रहा है । उन्होंने मुँह खोला, उस युवक ने मुट्ठीभर राख पंडितजी के मुँह में डाल दी । पंडितजी थू-थू कर थूकने लगे, पूछा कि यह क्या है ? युवक ने बताया कि बारह दिन पहले ही मेरे दादाजी का देहावसान हुआ है । मुझे उनकी हड्डियाँ, उनके फूल बिसराने के लिए हरिद्वार जाना था, पर जब आपने कहा कि गंगा की धार यहीं बह निकली है तो हरिद्वार जाने की जरूरत ही क्या ! पंडितजी के पांडित्य और जीने के तौर-तरीके में विरोधाभास है। मुझे विरोधाभास कतई पसंद नहीं। जीवन तो साफ-सपाट होना चाहिए, जैसे हाथ की खुली हथेली, जैसे खुला प्रांगण। आचार और विचार के बीच फासला या दुराव होने पर तुम सोचोगे कुछ और करना कुछ और चाहोगे। जीवन में आत्म-दमन होता रहेगा। दमित आत्मा स्वयं के अंतरंग में सुख के स्रोत नहीं ढूँढ सकती। उसकी स्थिति तो स्प्रिंग जैसी होती है। स्प्रिंग को दबाया जाए दब जाती है और हाथ हटाया कि वह दुगुने वेग से उछल पड़ती है। दबाने पर, दमन करने पर तो और परेशानी बढ़ेगी । मैं भावों और विचारों को दबाने के पक्ष में नहीं हूँ। पहले चरण में तो यही कहता हूँ कि विचारों को समझो, पहचानो। उसके बाद ही उन्हें सुधारने का कोई सूत्र ढूंढ़ा जाए। विचारों पर इसलिए बोल रहा हूँ कि दिनभर आदमी विचारों की उधेड़बुन में रहता है। वह सोचता ही रहता है । जागा है तब तो विचार चल ही रहे हैं, मगर नींद में सपनों के रूप में सोच-विचार चल रहा है। हालांकि यह गीता, ये पिटक, ये वेद, ये शास्त्र सभी हर मनुष्य को विचार की दशा से ऊपर उठने की बात कहते हैं, पर कौन विचारों से ऊपर उठ पाता है। विचार से ऊपर उठना ही तो ध्यान की अवस्था है, व्यक्ति की संबोधि है, संबोधि की सुवास और प्रकाश है । लेकिन व्यक्ति विचारों से ऊपर उठ ही नहीं पाता, निर्विकार और निर्विकल्प हो नहीं पाता। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारों की विपश्यना चूंकि हम विचारों और चिंतन में जीते हैं तो क्यों न इस चिंतन को नई दिशा दें, वह आयाम दें कि हमारा जीवन एक सकारात्मक और सृजनात्मक रूप लेकर उभरे । हमारा जीवन बिना किसी व्यग्रता के, बिना किसी आक्रोश और आवेश के, बिना किसी तनाव के सानंद सम्पन्न हो सके। हमारा जीवन हमारे लिए आनंद, उत्सव और महोत्सव बन सके। उत्थान, सृजन, प्रेम और आनंद से भरे विचारों को अपने जीवन में रखोगे तो ही दया, करुणा और प्रेम प्रतिबिम्बित होगा। अगर आप अपने घर के वातावरण को बहुत ही सौम्य, निर्मल और परस्पर त्याग करने वाला बनाना चाहते हैं तो घर के हर सदस्य को प्रेरणा दो कि वह कभी भी गलत विचार न लाए । हमेशा ऊँची सोच रखे। अपने बच्चों को, अपने परिवार को वह संस्कार दो कि वे ऊँची सोच के स्वामी बनें, सम्यक् विचारों के सम्राट बनें । मुझे याद है : राजा मिडास ने देवताओं की प्रार्थना की और उसकी लंबी प्रार्थना को सुनकर देव प्रसन्न हुए और प्रकट हुए। देवताओं ने प्रकट होकर कहा – मिडास माँगो, तुम हमसे क्या माँगना चाहते हो। सम्राट के विचार तो वैसे ही होंगे जैसी उसकी आसक्ति होगी, जैसी उसकी मूर्छा होगी। मिडास ने देवताओं से माँग की कि देव अगर आप वाकई मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दो कि मैं जिस चीज को छुऊं वह सोने की बन जाय । देवताओं ने वरदान दे दिया। मिडास खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था। वह सोचने लगा अब मेरे राज्य में सोने की कमी नहीं रहेगी। मैं जिस किसी चीज को हाथ लगाऊँ, वह सोने की बन जायेगी। वह सिंहासन पर बैठा। उसका स्पर्श होते ही सिंहासन सोने का हो गया। वह पागल सा हो गया। उसके छूने से महल का कायाकल्प हो गया। सभी ओर सोना ही सोना । उसकी बिटिया ने जब यह चमत्कार देखा तो वह भी खुशी से झूम उठी। पिता को बताने के लिए उनके कक्ष की ओर दौड़ी। कक्ष में पहुँचकर उसने पिता को गले लगाया। वह अपनी खुशी का इजहार भी न कर पाई कि सोने की मूर्ति में बदल गई । सम्राट पहली बार चौंका । सब खुशियाँ काफूर हो गईं, खुशियों के फूल क्षणभर में ही मुरझा गए। भूख लगी तो सम्राट खाने बैठा, मगर जैसे ही भोजन को For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ इक साधे सब सधे अंगुलियों का स्पर्श मिला वह सोने में तब्दील हो गया। मिडास कांप उठा। अगर ज्यादा सोना मिल जाय तो वह भी निरर्थक हो जाता है । सम्राट ने एक बार फिर देवों से प्रार्थना की और कहा कि मुझे माफ कर दो, क्योंकि मेरे सोच-विचार केवल सोने पर केन्द्रित थे, सोने को ही मैं सब कुछ समझता था, मुझे क्षमा करें। एक और घटना याद आती है जब ध्रुव के परिवार वाले उससे नाराज थे, सौतेली माँ फब्तियाँ कसती थी, पिता प्यार से बोलने को राजी न था, माँ भी संतुष्ट न थी। तब ध्रुव ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। जंगलों में जाकर कठोर तपस्या की कि भगवान प्रसन्न हो जाये, ताकि उसके परिवार के रूठे सदस्यों को मनाया जा सके। कहते हैं कि ध्रुव की कठोर तपस्या और तल्लीनता से अभिभूत होकर स्वयं विष्णु अवतरित हुए। भगवान ने कहा - ध्रुव, तुम जो चाहो तुम्हें मिलेगा। तुम्हारे मन में जो भी इच्छा, तुम जिस विचार को लेकर इस आराधना के लिए बैठे हो, तुम्हारा विचार पूर्ण होगा। भगवान विष्णु ने कहा – वत्स अब अपनी आँखें खोलो। ध्रव ने आँखें खोलनी चाहीं, पर आँखें नहीं खुलीं । विष्णु ने अपना शंख ध्रुव के होठों से स्पर्श कराया। जैसे ही स्पर्श मिला ध्रुव एक अलौकिक आनंद, एक परमज्ञान से अभिमंडित हो गया। ध्रुव की आँखें खुलीं, लेकिन भगवान तब तक अतध्यान हो चुके थे। ध्रुव को अफसोस हुआ कि स्वयं परमात्मा उसके सामने आए, मगर उसने भगवान से क्या माँग लिया। ध्रुव जीवनभर यह प्रायश्चित करता रहा कि परमात्मा को पाकर भी वह परमात्मा को न पा सका। आराधना की - लेकिन उसके सही परिणाम से वंचित रहा। परमात्मा को पाकर भी मनुष्य परमात्मा से वंचित रह जाता है क्योंकि हमारा सोच-विचार, हमारे चिंतन की दशा और दिशा या तो पैसे से जुड़ी हुई है या पद और प्रतिष्ठा से । ये तीन ही दिशाएँ हैं जिनमें मनुष्य के सोच की धाराएँ बहती रहती हैं। मेरी समझ से तो व्यक्ति यदि अपने सोच के प्रति, अपने विचारों के प्रति जागरूक हो रहा है तो यह जागृति उसकी आत्मा के प्रति ही है। तुम जिन विचारों को रात-दिन जीते हो, तुम्हारी समझ तो उनके प्रति भी नहीं है, तभी तो तुम कहते हो यह सबसे करीबी मित्र है, सबसे करीबो दुश्मन For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारों की विपश्यना ४७ है। अगर सद्विचारों के मार्ग पर चल रहे हो तो वे विचार तुम्हारे मित्र हैं और दुर्विचारों के मार्ग पर बढ़ गए तो वही विचार तुम्हारे शत्रु हैं। शत्रुता और मित्रता दोनों के धरातल हमारे अपने मस्तिष्क में हैं। प्रेम और क्रोध दोनों के धरातल, दोनों की ऊर्जा-शक्तियाँ हमारे अपने ही पास हैं। अगर आप प्रेम करते हैं, तो यह मत समझो कि ऐसा करके आप किसी दूसरे को अपना बना रहे हैं। आदमी जितनी देर प्रेम से भरा हुआ रहेगा, उतनी ही देर वह प्रसन्नता और मुस्कान से सराबोर रहेगा। उसके मस्तिष्क की कोशिकाएँ उतनी ही स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट रहेंगी। अगर बार-बार क्रोध कर रहे हो, आवेश से भर रहे हो, उत्तेजना से ग्रसित हो रहे हो, तो मस्तिष्क की कोशिकाएँ जर्जरित ही होंगी। अगर कोई व्यक्ति यह चाहता है उसका मस्तिष्क हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ रहे तो पहला सूत्र यही अपनाए कि आप किसी तरह का तनाव नहीं रखेंगे, क्रोध नहीं करेंगे, न ही आवेश से भरेंगे और सदा स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे। सांसारिक कार्यों के प्रभावों से मुक्त हो – मैं तो अपनी मस्ती में मस्त । घर में सास-बहू लड़े उनका भाग्य ! मैं क्यों नाराज होऊँ ? विचार-परिवर्तन, उनके प्रति तटस्थता भी सुधार का मार्ग हो सकता है । क्रोधी आदमी का पेट कभी पूरा नहीं भरता, वह तो हमेशा भूखा ही रहता है । जो आदमी शांत-सौम्य हृदय का स्वामी है उस व्यक्ति को कभी भूख नहीं सताती, क्योंकि भूख की अनुभूति करने वाला तो तृप्त रहता है। चंचलता शांत हो चुकी है। जो मन रूप को देखकर विकल हो रहा था वह मन तो सौम्य हो चुका है, वह मन सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् का संवाहक हो चुका है। अपने विचारों के घर को सजाओ। जैसे अपने कमरे को सजाते हो, ऐसे ही अपने भीतर के घर को सजाओ। जैसे घर में अंधेरा होने पर दीया जलाते हो, बल्ब जलाते हो ऐसे ही अपने अन्तर्घट में उज्ज्वल विचारों के, सम्यक् विचारों के, संतुलित और समग्र विचारों के दीये रोशन करो । मनुष्य के भीतर कुछ अच्छे विचार होते हैं उनको कैसे बढ़ाया जाय, उनको जीवन में आचरित किया जाय, इसके प्रति सजगता चाहिए । जैसे-जैसे घर में दीये जलते जाते हैं वैसे-वैसे अंधेरा कम होता जाता है, वैसे ही अन्तर्घट में सही और सम्यक् विचारों के आने पर बुरे विचार स्वयं निकलते चले जाते हैं। बरे For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ इक साधे सब सधे विचारों को अच्छे विचारों के द्वारा संस्कारित करें, जैसे ज़हर को अमृत के द्वारा संस्कारित किया जाता है। हम अपने विचारों को ऊँचा बनाएँ, ऊँचा उठाएँ । सौन्दर्य से प्रेम करें, अपने विचारों को सुंदर बनाएँ । सौन्दर्य बुरी चीज नहीं है, सौन्दर्य तो प्रभु का वरदान है । लेकिन सौन्दर्य का यह अर्थ नहीं कि किसी सुन्दर चेहरे को देखकर मन में विकृति लाओ। किसी अच्छे संगीत को सुनकर अपने होशोहवास ही खो बैठो, अच्छी खुशबू के पीछे फूलों को डाल से ही अलग कर दो। जो सौन्दर्य से प्रेम करने वाला है, अनिवार्यत: शिवत्व से प्रेम करेगा ही, सत्य से प्रेम करेगा ही। वह उसी सौन्दर्य से प्रेम करेगा जिसमें शिव और सत्य का निवास होगा। वह सौन्दर्य ही क्या जो मिथ्या हो, जिस पर कृत्रिमता का आवरण हो। हमारा हर कृत्य सुन्दर होना चाहिए, हर विचार सुंदर होना चाहिए। सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् का अपने जीवन में आचमन करने वाला व्यक्ति हिंसा नहीं करेगा, चोरी नहीं करेगा। हिंसा स्वयं में कुकृत्य है । सुकृत्य हो तो सौन्दर्य होगा, लेकिन कुकृत्य है इसलिए उसमें सौन्दर्य का निवास भी नहीं है। अपने जीवन को सौन्दर्यमय बनाइए, हर कुकृत्य से, हर असत् विचार से जीवन को बचाइए। अगर तुम चाहते हो ऊँचे विचारों के स्वामी बनें तो पहली बात यही कि तुम आवेश या उद्वेग में विचार मत करो। जिस क्षण तुम्हें लगता है कि तुम तनाव से ग्रस्त हो, किसी भी बिंदु पर निर्णय मत करो। अगर लगता है कि इस समय हमारा दिमाग़ निर्णय लेने में पूरी तरह समर्थ नहीं है, तो स्पष्ट कह दो कि अभी मैं इस बिंदु पर विचार नहीं करना चाहता। अभी मेरा मस्तिष्क अस्वस्थ है। तनाव, आवेश या उद्वेग की दशा में जब भी सोच-विचार करने के लिए बैठोगे, आपका सोच-विचार पूरी तरह से गलत होगा। तब आपका कोई भी निर्णय सही निर्णय नहीं हो सकता। तब वह निर्णय आपके आवेश का होगा, आपके क्रोध का होगा, वह अभिव्यक्ति आपके उत्तेजना की होगी। निर्णय देने से पहले दूसरे पक्ष को भी ध्यान पूर्वक सुना जाए । घर पहुँचे और पता चला कि आपकी पत्नी आपकी माँ के बारे में उल्टा-सीधा कह रही है, आपने पूरा सुना-न-सुना और इस निर्णय पर पहुँच गए कि माँ गलत है। तुम माँ पर For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारों की विपश्यना ४९ आग-बबूला हो जाते हो । उस समय तुम्हारा कर्त्तव्य था कि तुम माँ के पक्ष को भी सुनते। हो सकता है पत्नी की शिकायत सही हो, मगर गलती कभी एकतरफा नहीं होती । तुम पत्नी को भी सुनो और माँ को भी। दोनों को सुनने के बाद तुम्हें अपनी ओर से जो कुछ भी कहना हो, प्यार से कह डालो। तुम्हारे उस निर्णय में, उस अभिव्यक्ति में उग्रता नहीं होगी, क्रोध और आवेश नहीं होगा। उस उद्गार में तुम्हारी सही सोच मुखरित होगी। क्षण चाहे अच्छे हों या बुरे, निर्णय लेते समय पूरा-पूरा विवेक रखा जाय। अगर उग्रता के पलों में आपने कोई निर्णय ले लिया तो यह निर्णय पश्चाताप का सबब बन सकता है । मुझे याद है बहुत पुरानी कहानी है - कहते हैं सम्राट श्रेणिक अपनी सुख-शय्या पर सोया हुआ था। उसके पास ही उसकी महारानी चेलना भी सो रही थी। तीव्र ठंड का मौसम था। रजाइयों में भी सर्दी नहीं रुकती थी। अचानक रानी का हाथ रजाई से बाहर निकल गया और सर्दी से ठिठुर गया। रानी के मुँह से निकला ! ओह ! उनका क्या होता होगा, वे कैसे रात गुजारते होंगे। संयोग की बात कि चेलना के इन मंद स्वरों को सम्राट ने सुन लिया। सम्राट संदेह से घिर गया। उसने सोचा, रानी चेलना का किसी के साथ संबंध है, इसके शब्द साफ-साफ यह बात कह रहे हैं। अगले ही दिन सम्राट ने राजमहल का त्याग कर दिया। उसने अपने पुत्र अभयकुमार को जो उसका मंत्री भी था, आदेश दिया कि किसी को कानों-कान खबर न हो और राजमहल को आग लगा दी जाय । वह चौंका राजमहल में तो मेरी माँ है पर क्या किया जाए, सम्राट का, पिता का आदेश था। उस समय लोग पिता के आदेश पर कुछ भी कर सकते थे, वनवास भी ले लेते थे। आज तो पिताओं को वनवास न दे दें तो बलिहारी है। अभयकुमार कशमकश में था। एक तरफ पिता का आदेश और दूसरी ओर अनिष्ट की आशंका । लेकिन उसने इतना ही कहा – जैसा सम्राट का आदेश। सम्राट् वहाँ से भगवान महावीर के सभामंडप में पहुँचे । भगवान का उपदेश चल रहा था। महावीर ने चर्चा के दौरान कहा, तुम्हारी रानी चेलना धन्य है, उसका सतीत्व, उसके विचार धन्य हैं । इस तरह के विचार सम्राट ने सुने, वह चौंका कि भगवान चेलना के लिए ऐसी बात कह रहे हैं वह चेलना जिसके For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० लिए मैंने यह घटनाचक्र रचा, वह जो कुलटा है I सम्राट ने जिज्ञासा प्रगट की, तब भगवान ने कहा तुम नासमझ हो सम्राट ! तुम्हारे पास इतनी भी सोचने की क्षमता नहीं कि एक महारानी क्यों किसी से ऐसे संबंध रखेगी। तुमने यह उसी से क्यों न पूछा ? मैं तुम्हें बताता हूँ । दरअसल कल शाम को जब वह मेरी सभा से वापस जा रही थी, तो रास्ते में उसने एक संत को एक पाँव पर खड़े होकर तपस्या करते देखा । संत निर्वस्त्र थे । चेलना ने उसे प्रणाम किया और महल पहुँच गई। रात को सोते समय जब चेलना का हाथ बंद कमरे में रजाई से बाहर निकला तो उसे सर्दी की प्रचंडता महसूस हुई। वह सोचने लगी कि जब मेरी यह हालत है तो उनकी क्या हालत होगी । संत आत्मस्थित हैं, यह जानकर उसके अन्तर्हृदय में श्रद्धा का भाव जाग पड़ा । T एक साधे सब सधे I सम्राट महल की ओर लपका। वह सिहर उठा कि कहीं आग तो नहीं लगा दी गई । वह जानता था अभयकुमार कभी उसके आदेश की अवहेलना नहीं करता था । उन्होंने आधा ही रास्ता तय किया था कि अभयकुमार मिल गया। सम्राट ने पूछा, तूने कहीं आग तो नहीं लगा दी । अभयकुमार ने कहा प्रभु मैंने आग लगा दी है। सम्राट गिड़गिड़ाने लगा यह तो मुझसे भयंकर अपराध हो गया । उस सती के साथ यह मैंने क्या कर डाला। बेटे ने कहा पिताश्री, चिंता मत कीजिए । मैं जानता था आपने जरूर कोई ऐसा निर्णय लिया है जिसे लेते समय आपका सोच, आपका चिंतन निश्चित ही क्रोधित और उद्विग्न रहा होगा, तभी आपने ऐसा फैसला लिया है। इसलिये मैंने आग बहुत दूर लगाई है, जिसे महल तक पहुँचते-पहुँचते वक्त लग जाएगा। सम्राट ने सुना तो राहत की सांस ली। उन्होंने आग बुझाने के आदेश दे दिये । For Personal & Private Use Only - हम अपने में टटोलें किं कहीं ऐसी आग हमने भी तो नहीं लगा डाली है । अपने ही असद् विचारों की आग, अपने ही निकृष्ट सोच की आग । अच्छा होगा आज की रात आप अपने विचारों से जुड़ें, उन्हें परखें, अपनी सोच की समीक्षा करें और देखें कि किस तरह की सोच भीतर चलती है । किस तरह के विचार उठते हैं। क्या ऐसे कोई सकारात्मक सूत्र, कोई सृजनात्मक दृष्टिकोण है — Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारों की विपश्यना जिसे अपनाकर मैं अपने विचारों को निर्मल, सौम्य और सुखद बना पाऊँ । यदि ऐसा हो तो सादा जीवन उच्च विचार और चिंतन यही आपकी आस्तिकता की पहचान होगी, यही आपकी अन्तर आत्मा के अभ्युत्थान का एक सीधा-सादा, सौम्य और व्यावहारिक मा होगा। अपनी ओर से इतना ही निवेदन कर रहा हूँ। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत [ संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; ८-६-९६, प्रश्न-समाधान] . जब गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं तो श्वास क्षीण और शरीर जड़ होने लगता है, कभी-कभी प्रतीत होता है शरीर बहुत स्थूल हो गया है, कभी अति सूक्ष्मता महसूस होती है। ऐसा क्यों? शरीर भौतिक पदार्थों की जीवंत कृति है। शरीर जीवन का आधार है। शरीर से जीवन की भाषा प्रारम्भ होती है। इसने हमें मूर्त रूप दे रखा है। शरीर से तुम मुक्त हो जाओ, शरीर-भाव प्रक्षीण हो जाये, तो तुम्हीं निराकार ब्रह्म हुए, विदेह-मुक्ति को उपलब्ध हुए। श्वास शरीर का आधार है। श्वास तो सेतु है – अन्तर्जगत् और बहिर्जगत् के बीच का । श्वास तुम्हारा प्राण है, श्वास प्राणों का पोषक है। श्वास की संतुलितता और लयबद्धता शरीर की स्वस्थता और लयबद्धता है। श्वास लड़खड़ायी यानी शरीर लड़खड़ाया। श्वास तो मानो जीवन की नींव For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत है । सूक्ष्म से स्थूल के बीच का सेतु है, संयोजक है, संवाहक है | शरीर-स्थूल है, महाप्राण सूक्ष्म है । महाप्राण से ही शरीर संचालित है । महाप्राण और शरीर दोनों के बीच प्राणधारा को जोड़ने का काम श्वास का है । शरीर के व्यर्थ के कार्बन-परमाणुओं को भीतर से बाहर उलीचना और बाहर के जीवन- पोषक ऑक्सीजन-परमाणुओं को भीतर तक पहुँचाना श्वास का यही काम है, यही उसका कर्मयोग है । ५३ श्वास भीतर के जगत् की ओर जा रही पगडंडी है । तुम इसके सहारे भीतर तक उतर सकते हो । श्वास सूक्ष्म है, पर ध्यान के लिए तो श्वास भी स्थूल ही है । श्वास के जरिये तुम भीतर की ओर यात्रा करते हो । श्वास पर स्वयं को केन्द्रित करके स्थूलों में जो सबसे सूक्ष्म है, उस पर तुम स्वयं को ला रहे हो । श्वास पर जैसे-जैसे सजगता बढ़ेगी, श्वास पर एकाग्र होने की जैसे-जैसे पकड़ बढ़ेगी, श्वास पर तुम्हारा केन्द्रीकरण और त्राटक होगा, मन की उच्छृंखलता पर भी स्वत: ही नियन्त्रण होता लगेगा । केन्द्रीकरण के पहले चरण में तो मन और भड़केगा, भटकता हुआ लगेगा, जैसे किसी बन्दर को पकड़ा जा रहा हो, पर श्वास पर होने वाली एकाग्रता मन को एकाग्र कर देती । श्वास-विजय दूसरे अर्थों में मनोविजय का ही सूत्र है । “जब गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं, तो श्वास क्षीण और शरीर जड़ होने लगता है । " श्वास का सम्बन्ध शरीर के साथ है, क्योंकि श्वास शरीर का प्राण है । तुम्हारे भीतर प्राणों का प्राण विराजमान है। श्वास तो स्थूल प्राण है श्वास कोई जीवन थोड़े ही है। श्वास तो जीवन की अभिव्यक्ति भर है । ध्यान में श्वास के जरिये प्रवेश करते हैं, पर ध्यान में प्रवेश ही तभी होता है, जब तुम शरीर-भाव, समाज-भाव, संसार-भाव, मनोभाव से स्वयं को विलग देखो । शरीर से तुम्हारा तादात्म्य शिथिल होता है, तो शरीर तुम्हें स्थूल या सूक्ष्म कुछ भी महसूस हो सकता है । शरीर का सूक्ष्म-स्थूल, भारी - हल्का महसूस होने के मायने ही यह है कि तुमने शरीर को स्वयं से अलग देखा । शरीर को स्वयं से विलग देखना, स्वयं को अलग देखना, ध्यान की शुरुआत है । शरीर के प्रति रहने वाली आसक्ति और मूर्च्छा को तोड़ना ध्यान की पहली सार्थक सफलता है । For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ एक साधे सब सधे शरीर के साथ रहने वाली तादात्म्य-सत्ता के कारण ही श्वास और शरीर दोनों आबद्ध हैं। तुम हृदय-गुहा में प्रवेश कर गये, ध्यान गहरा उतर गया, अन्तर-सागर में उतर ही गये, तो श्वास की गति अत्यन्त सूक्ष्म और मन्द हो जाएगी। इतनी मन्द-शान्त होगी कि फेफड़ों को आन्तरिक ऊर्जा ही संचालित करती रहेगी। यह समाधि का ही एक रूप है। यह चीज घटित हो, तो मन की इच्छाएँ तो कम होंगी ही, शरीर की जरूरतें भी कम होंगी। ध्यान से निष्पन्न ऊर्जा, शरीर को सक्रिय और चार्ज कर देगी। भोजन-पानी से जो स्फूर्ति, ताज़गी और ताक़त मिलती है, ध्यानयोग तुम्हें वह विटामिन दे जाएगा। मान लो, अभी तुम्हें प्यास और भूख या थकान महसूस होती होगी, शरीर शिथिल-अस्वस्थ लगता होगा, पर ध्यानयोग की एक बैठक, उसकी एक चूंटी, तुम्हें तृप्त कर देगी, ऊर्जस्वित, स्फूर्त और अधिक सशक्त कर देगी। शरीर-भाव से अलग होने के कारण ही श्वास और शरीर हल्का, सूक्ष्म या स्थूल महसूस होता है। ध्यान पूरा हुआ, सागर की गहराई में गोता खाकर वापस किनारे पर आये, सहज दशा में, श्वास और शरीर वापस उसी अवस्था में आ जाते हैं, जैसे पहले थे, पर इस सबने शरीर और श्वास को एक अलग ही शान्ति सुकून दिया, स्वास्थ्य और आनन्द प्रदान किया। श्वास और शरीर के बीच एक पुलकभरी लयबद्धता विकसित हुई। हम कुछ नये होकर बाहर आये। फिर मुस्कराओगे तो उस मुस्कान में भी वैसी गहराई होगी, जैसी गहराई ध्यान में रही होगी। तुम्हारी आँख से बहे पानी में भी एक गहराई होगी। वाणी में भी, व्यवहार में भी दम होगा। सबके बीच तुम अपना अलग ही वजूद रखोगे, अलग ही पहचान । तुम्हारी गहराई तुम्हें ऊँचा उठाएगी। गहरे उतरो, और गहरे, इतने गहरे कि 'मणिरत्नम्' हमारे हाथ हों, हम हमारे साथ हों, संस्कार-धारा का तिरोभाव हो। देह-भाव का विलीन होना निःश्रेयस् की ओर उठा सही-सार्थक कदम For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत ५५ प्रभु श्री, ध्यान में नाचना, मस्ती में झूम उठना क्यों और कैसे होता है? हम जब कुछ लोगों को नाचते हुए देखते हैं तो सब नाटक लगता है। लगेगा ही; मीरा और कबीर के घर वालों को भी लगा था। चैतन्य के चेलों को भी लगा था। जिनके भी हृदय में नृत्य उमड़ा, उनसे जुड़े लोगों को यह सब नाटक ही लगा, पागलपन ही लगा। पहले तुम उन्हें नाटक लगे, अब वे तुम्हें नाटक लगने लगे। नाटक ही है दोनों – एक बारात के बीच का नाटक और दूसरा गिरधर को पाने का, राम की दुलहनिया हो जाने का नाटक । __ जब भी कोई मीरा नाची है, तो लोग उस पर हंसे ही हैं। दुनिया और कर ही क्या सकती है, सिवा हँसने-हँसाने के, ठट्ठा-मजाक करने के । राणा क्या कम हँसा मीरा पर, क्या कब फबतियाँ कसी थीं? पर उसका दीवानापन इतना जबरदस्त कि भले ही नाचना न आये, आँगन टेढ़ा हो, पर नाच फूट ही पड़ा, हृदय को कैसे रोकोगे ! कभी, जब तुम बारात में बैंड के आगे नाचते हो, जरा कभी उनसे पूछा कि तुम नाच क्यों और कैसे रहे हो, वो कहेंगे क्यों और कैसे का तो मालूम नहीं, बस ताल छिड़ा और पाँव थिरक पड़े। भूल ही गये लोकलाज, भूल ही गये कि मकान में नहीं, सड़क पर हैं, सड़क पर नाचना कोई सभ्य आदमी का काम नहीं है, पर क्या करें नाचना हो ही जाता है । ध्यान जब प्रेम में, भक्ति में परिणित होता है, तो वही हृदय का उत्सव बन जाता है । उत्सव में आदमी नाचेगा ही। ध्यान अगर कोरा ध्यान ही बना रहे, साक्षी का ध्यान, सजगता का ध्यान, तो नृत्य उमड़ आये, कम सम्भावना है। ध्यान जैसे ही हृदय-तल का स्पर्श करेगा, हृदय श्रद्धा और आनन्द का आधार है, प्रेम का केन्द्र है, अहोभाव उमड़ ही आएगा। आँखों से आँसुओं के निर्झर बह ही सकते हैं, करताल बज ही सकते हैं, पाँव थिरक ही सकते हैं, यही तो ध्यान का भक्ति हो जाना हुआ। ध्यान में जैसे ही तुम औरों से बेखबर हुए और हृदय से रूबरू हुए कि कुछ-न-कुछ फूटेगा, उमड़ेगा। अब वह क्या For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ फूटेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह नृत्य एक अलग ही रूप लिये होगा, वे आँसू एक अलग ही रूप लिये होंगे, वे आँसू एक अलग ही भाव लिये होंगे, वह पीड़ा एक अलग ही अभीप्सा लिये होगी । यह 'अपूर्व' स्थिति है, अद्भुत स्थिति ध्यान और भक्ति के सामंजस्य की जीवंत घटना । एक ऐसा चमत्कार जिस पर दुनिया हँसेगी, जबकि तुम उससे एकलय, एकरस हुए, जिसके लिए ध्यान से जुड़े हो । - इक साधे सब सधे ध्यान एक अलग मार्ग है, भक्ति एक अलग मार्ग है । अकेला ध्यान सजगता है, मौन है, शून्य है, बोध है, अकेली भक्ति नाम-जप है, धुन है, तीर्थों और मंदिरों में हर रोज की आवाज ही है । ध्यान और भक्ति दोनों एक हो जायें, तो जीवन कोरी एकाग्रता नहीं, वरन् एकाग्रता का उल्लास हो जाएगा । केवल शांति नहीं, वरन् शांति का उत्सव हो जाएगा। पर हाँ, यह सब करने से नहीं होता, यह अनायास घटता है । ध्यान और भक्ति का मिलाप एक आकस्मिक घटना है । मैंने स्वयं में ऐसा आनन्द, ऐसा भावनृत्य, ऐसा अहोभाव, ऐसी मस्ती को उमड़ते हुए देखा है, जाना है, जीया है । I पर हाँ, जो लोग ध्यान में प्रवेश करने से पहले नाचते - झूमते हैं, वह एक अलग अभ्यास है, उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना। जिसकी जो मौज। पर मैं जिस भाव की बात करता हूँ, वह हर किसी के साथ घटे ही, कोई जरूरी नहीं है। घट भी सकता है, नहीं भी घट सकता । ध्यान मनुष्य को महावीरत्व की ओर, बुद्धत्व की ओर भी बढ़ा सकता है और चैतन्य और मीरा की ओर भी । ध्यान अपनी गहराई में, हमें जिस महागुहा में ले जाना चाहे, जाने ही दिया जाए; पता नहीं कौन कैसे पहुँच जाए। 1 ध्यान किसी को महावीर की शांत मूर्ति बना दे, किसी के लिए बुद्धत्व का कमल हो जाये, किसी को मीरा की तरह नृत्यमय कर दे; एक के लिए दूसरा नाटक हो सकता है, पर स्वयं के लिए वह स्वयं की पूर्णता है । प्रज्ञा के मार्ग से चलने वाले लोग सजगता और आत्म-नियन्त्रणपूर्वक आगे बढ़ते हैं, हृदय से चलने वाले लोग थिरक उठें, तो कोई आश्चर्य नहीं । मीरा का हृदय हुए नहीं और ऐसे ही देखा-देखी करने लगे, तो वह नाटक ही । ऐसे नाटक से बच For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत सको, तो अच्छा ही है । वज्र हृदय को कोमल हो जाना चाहिये, फूल हो जाना चाहिये और जो कोमल हृदय हैं, उन्हें निर्लिप्त हो जाना चाहिये। यह एक गुर है । जो पंडित हैं, भक्त हो जायें और जो भक्त हैं, उन्हें ध्यानी हो जाना चाहिये । रावण जब भजन में मगन हुआ, भक्ति में नाच ही उठा, झूम ही उठा, तो उसका यह नर्तन ही उसे तीर्थंकरत्व का सूत्र दे गया । जैन कहते हैं कि रावण भी, भविष्य में होने वाले तीर्थंकरों में एक है । पंडित जब भक्त हो जाएंगे, मस्तिष्क से हृदय में आ जाएंगे, तो तीर्थंकरत्व स्वयं अंकुरित हो जाता है । आज जरूरत बुद्धिमानों को हृदयवान् बनाने की है । मन से हृदय, और फिर हृदय से सहस्रार - यही मार्ग है । मन के चक्रव्यूह से बचने के लिए, मुक्त होने के लिए हृदय में प्रवेश करें । हृदय जब हमारा घर हो जाये, तो हृदय से ऊपर उठ जायें। ब्रह्मकमल ऐसे ही खिलता है, ऐसा ही मार्ग लगता है । ५७ मन हो मौन और हृदय हो जाग्रत, जीवन को स्वर्ग बनाने की यह चाबी है, कुंजी है । बगैर हृदय का आदमी बुझा हुआ दीया है, पत्थर का इंसान है I · पूज्य गुरुजी, कभी-कभी लगता है नाड़ियाँ, शरीर सब टूट जाएगा, अव्यक्त तनाव-सा प्रतीत होता है, उस क्षण में क्या किया जाए क्योंकि तब ध्यान गहन होता है और एकदम चेतना के वापस आने से सिर भारी-भारी हो जाता है। ध्यान एक प्रक्रिया है, गहरे अर्थ में प्रसूति जैसी ही प्रक्रिया समझो इसे । प्रसूति कोई ऐसे ही नहीं हो जाती । समय की एक लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है, मितली उठती है, पीड़ा जनमती है, भीतर गर्भ में हलन चलन होती है और यह सब परीक्षा के रूप में होती है । यह मातृत्व को जन्म देने की, संतति को जन्म देने की एक प्रक्रिया है । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ इक साधे सब सधे अब, जब स्वयं को पुनर्जन्म देना हो, तो भीतर तो ऐसा परिपाक होगा ही । ऐसा होता है, इसलिए चिन्तित होने जैसी कोई बात नहीं है । कुछेक का गर्भ काल ऐसा होता है कि पता भी न चले और आराम से परिपाक हो जाता है। कुछेक के लिए प्रसूति इतनी पीड़ादायी और घुटन भरी होती है कि मानो किसी को जन्म देने के लिए नारी ने अपना जीवन ही मृत्यु की डगर पर खड़ा कर दिया हो। "कभी-कभी लगता है कि नाड़ियाँ, शरीर सब टूट जाएगा, अत्यन्त तनाव-सा प्रतीत होता है"। टूटता कुछ नहीं है । ध्यान से किसी का शरीर नहीं टूटा है। शरीर के प्रति रहने वाला भाव, मूर्छा भले ही टूट जाये, शरीर नहीं टूटता । नाड़ियाँ टूटती नहीं हैं, नाड़ियों में अतिरिक्त ऊर्जा का एकत्रीकरण हो सकता है । तुम कहते हो 'अव्यक्त तनाव-सा महसूस होता है। तुमने ध्यान में तो प्रवेश किया, मगर मन को पहले शिथिल नहीं किया। तनाव भरे मन से ध्यान में उतरे । ध्यान में प्रवेश करने से पहले मन को हर तनाव से दूर खड़ा करो। और इसके लिए ही दो तरह की प्रक्रिया है। एक है कायोत्सर्ग और दूसरी है तनावोत्सर्ग । कायोत्सर्ग शरीर के तनाव और दर्द को विसर्जित करने के लिए है, थकावट से राहत पाने के लिए है, जबकि तनावोत्सर्ग मन को, शरीर के रोम-रोम और अंग-अंग को प्रसन्नता से भर देने के लिए है। तनावोत्सर्ग खिलावट की विधि है। हाँ, आपके लिए सुझाव है कि आप ध्यान और प्राणायाम करते वक्त तीव्र श्वास-प्रश्वास को, कपाल भस्त्रिका को तभी करें जब आपको लगे कि मन शान्त हो ही नहीं रहा है। कपाल भस्त्रिका मन की उच्छंखलता को चोट पहुँचाने के लिए है। तीव्र श्वास-प्रश्वास से मन कुछ देर के लिए विलीन हो ही जाता है। एक बात और, ध्यान-योग में कभी भी अकड़कर मत बैठो। सीधे बैठो, मगर ,ठ की तरह अकड़कर नहीं । सहजता से ध्यान में प्रवेश करो और सहजता से ही ध्यान की बैठक को पूरा होने दो । प्राणायाम पर तभी तक ध्यान दिया जाना चाहिये, जब तक ध्यान का गुर हाथ न लगे। ध्यान का गुर हाथ For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत लगने पर मंद श्वास और दीर्घ श्वास ही प्राणायाम का सही प्रारूप होगा। सजगता पर ध्यान दो । सजगता ही संबोधि की, संबोधि-ध्यान की, विपश्यना की आत्मा है । वृत्तियों के प्रति सजगता और उनकी अभिव्यक्ति की सम्भावना लगे, तो अभिव्यक्ति में विवेक की दृष्टि, विवेक की चेतना का, समझ का पूरा-पूरा उपयोग हो। पूछते हैं कि “तब ध्यान गहन होता है और एकदम चेतना के वापस आने से सिर भारी-भारी हो जाता है', ध्यान का गहन होना शुभ है, पर उस गहनता में भी हमारा होश और ज्ञाता-दृष्टा-रूप बरकरार रहे । ध्यान का पाँचवाँ चरण, अंतिम चरण सहज स्थिति तक आने के लिए ही है। सहज स्थिति के मायने हैं पूर्ण विश्राम । केवल स्वयं के सम्पूर्ण अस्तित्व में, स्वरूप में, शरीर में चेतनागत ऊर्जा का संचार होने के लिए यह पावन अवसर है, अमृत अवसर । हाँ, अगर सिर में भारीपन लगे, तो स्वयं को पाँच मिनट के लिए सिर से हटा लें, और हृदय की ओर स्वयं को निढाल हो लेने दें। हृदय में स्थित हो जाएँ। हृदय स्वयं शांति और आनन्द का, प्रेम और श्रद्धा का घर है। वहाँ आ जायें। ध्यान में ही नहीं, वरन् जब भी सिर में तनाव महसूस हो, शरीर में थकावट और संत्रास महसूस हो, दस-बीस दीर्घ श्वास लें और मन को प्रसन्नता से भरकर हृदय में आ जाएँ । हृदय की छाँव बड़ी शीतल है, सुखद है, सौम्य है । हृदय को तुम मध्यबिन्दु समझो । मध्यम मार्ग समझो। यह हर अति की आग से हमें बचा लेता है । हृदय संबोधि के आनन्द का जन्मदाता है। फिर भी, आप महानुभाव मुझसे बाद में मिल लें । मुस्कराएँ, समाधान आपकी हथेली में होगा। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय के खुलते द्वार [ संबोधि ध्यान-शिविर, अजमेर, ९-६- ९६, प्रवचन ] मे रा लक्ष्य जीवन है । जीवन को जानने के प्रति होने वाली जिज्ञासा से ही वास्तविक धर्म का जन्म होता है। धर्म का प्रारम्भ किसी पुस्तक से नहीं, वरन् जीवन से है । जीवन से ही धर्म का शुभारंभ होना चाहिए और धर्म के मार्ग से गुजरने के बाद हमारे अनुभव, हमारे परिणाम, जो सम्पादित हों वही जीवन के अनुभव और जीवन की किताब बन जाए । पुस्तकीय ज्ञान केवल बुद्धि और मस्तिष्क का विकास करता है । इससे जीवन में वह फूल नहीं खिलेगा जिसकी सुवास से वातावरण सुरभित होता है, पर्यावरण प्रफुल्लित होता है, जीवन कुसुमित और आनन्दित होता है । सम्पूर्ण जगत में महान - से- महान शास्त्र उपलब्ध हैं, लेकिन उन्हें पढ़ने के लिए मनुष्य के पास फुर्सत नहीं है और अगर समय है भी तो For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय के खुलते द्वार इन किताबों को अपने जीवन में आचरित करने का संकल्प और दृष्टिकोण नहीं है। इन महान शास्त्रों के अतिरिक्त एक शास्त्र और भी है जो हमारे आसपास रचित है । वे शास्त्र हवा के झोंकों से डोलायमान इन फूलों और पौधों पर लिखे घास के छोटे-से-छोटे तिनके का भी अपना मौलिक अस्तित्व है । जब हमारी मंगल-मैत्री, अन्तर्-प्रेम, आत्मिक प्रेम विस्तृत होता है तब हमारे अस्तित्व की विराटता खुद ही आत्मसात् होने लगती है। उस स्थिति में केवल परमात्मा से ही प्रेम नहीं होता, हर इन्सान से भी प्रेम होता है । तब इन्सान ही नहीं, जानवर, पौधे, पक्षी, फूल सभी प्रेम के पात्र हो जाते हैं। नदी, झरने, पहाड़ भी अछूते नहीं रह पाते । वे भी प्रिय होते हैं। मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण से यदि मुरझाए हुए पुष्प के पास गए तो वह भी पुन: प्राणवान और जीवंत हो जाएगा। वहीं अगर विपन्न-खिन्न हृदय से किसी खिले हुए फूल के पास जाओ, तो वह फूल भी आपको सूख नहीं देगा। मंगल मैत्री का विस्तार जीवन के प्रति विधायक दृष्टिकोण रखने से होता है । पदार्थ की पूजा द्वितीय है; जीवन सर्वोच्च है । जीवन के विश्लेषण से ही जीवन में अध्यात्म का अभ्युदय होता है। जीवन चाहे स्वयं का हो या अन्य किसी का, जीवन को पढ़ें, जीवन सबसे बड़ा शास्त्र है। जीवन को निहारें, क्योंकि इससे अधिक सौंदर्यपूर्ण, प्रीतिकर और मंगलमय तत्त्व अन्य नहीं है। जीवन से प्रेम करो क्योंकि इससे बढ़कर प्रेम योग्य अन्य पदार्थ नहीं है। जहाँ-जहाँ चेतना की संभावना है, वहाँ सर्वत्र जीवन है। बाह्य रूप से तो जीवन बहत लीलामय, रास भरा और सखी दिखाई देता है, लेकिन जब भी किसी की अन्तरात्मा में झाँकते हैं तो पाते हैं वह कितना दुखी और अवसादग्रस्त है। यह दुख चारों ओर फैला हुआ है । जिधर और जितनी दूर निगाह उठाओगे वहाँ दुःख ही पाओगे। और दुःख भी ऐसा जिसमें सुख ढूँढ़ते हैं। परपीड़ा का सुख । मनुष्य ने अपने विनाश का पूरा इन्तज़ाम कर रखा है। एक अणु बम एक तिहाई पृथ्वी को नष्ट करने में सक्षम है और For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे ऐसे हज़ारों बम मनुष्य ने बना रखे हैं। अगर इन बमों का विस्फोट हो गया तो पृथ्वी पर प्राणी नाम की चीज़ ही नहीं बचेगी, जीवन नाम का तत्त्व ही नहीं रहेगा । विनाश के इतने इन्तज़ाम हैं। जीवन का कितना इन्तज़ाम है यह सोचने जैसा है। यही वह बात है जिसका हमें चिन्तन-मनन करना I ६२ मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ उसके ही अन्त:करण में हैं। सभी दुष्प्रवृत्तियाँ उसके अपने मन में हैं । यहीं क्रोध, हिंसा, व्यभिचार की गाँठें हैं । तनाव और टकराव है । क्यों न हम अपनें भीतर का निदान करें, उपचार करें । क्योंकि कहा नहीं जा सकता कब हिटलर, ट्रूमेन, स्टैलिन या चाउशेस्कू पैदा हो जाए। यह सब हममें से ही आएंगे। जो अपने भीतर की वृत्तियों को सुधारने में रत है, उसके लिए यहीं से धर्म का शुभारम्भ है । T सामान्यतः मनुष्य मन व बुद्धि में जीता है । मन में जीना तनाव को जन्म देना है और बुद्धि में जीना पांडित्य में वृद्धि करना है, पुस्तकीय ज्ञान की अभिवृद्धि करना है । जीवन का आनन्द और उत्सव न तो मन में है और न बुद्धि में है । हमने बड़े-बड़े बुद्धिमानों को बुद्धू बनते देखा है और बुद्ध-से दिखाई देने वाले कभी-कभी अति बुद्धिमानी की बात कर जाते हैं । आपको आनन्द और उत्सव का आस्वादन करना है तो मैं अज्ञात सागर की ओर आमंत्रण देता हूँ । वह अज्ञात सागर मनुष्य के ठीक मध्य बिंदु में है । मन और बुद्धि तो परिधि पर है, नाभि भी परिधि पर है । सागर का केन्द्र है मनुष्य का हृदय । हृदय जब नीचे की ओर बहता है तो वह विकार का रूप लेता है । यह एक परिधि हुई। हृदय जब ऊपर बढ़ता है तो बुद्धिमय होता है, यह है दूसरी परिधि। मेरे लिए प्रज्ञा परिधि और हृदय मूल केन्द्र है। मैं तो हृदय में जीता हूँ । और जब व्यक्ति हृदय में जीता है तो महसूस होता है कि उसके सिर तो है I हीं नहीं । मैं यही चाहता हूँ कि व्यक्ति सिर- विहीन होकर हार्दिक हो जाए । बुद्धि से तुम दूसरों के प्रश्नों का समाधान कर सकते हो, लेकिन हृदयवान होने पर सारे सवाल ही तिरोहित हो जाएँगे । तुम्हारे पास प्रश्न ही नहीं होंगे, बल्कि तुम स्वयं ही एक समाधान हो जाओगे, उत्तरों के उत्तर, जवाबों के जवाब ! प्रज्ञा For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय के खुलते द्वार ६३ के द्वारा मन को जीतेंगे, प्रज्ञा से प्रश्नों के उत्तर देंगे और तर्कों को काटेंगे, पर हृदय से अन्यों को और करीब लाएंगे। हृदय से एक सेतु बनाएँगे। उस संवेदनशीलता का निर्माण करेंगे जिसकी आज जमाने से मृत्यु हो चुकी है। अगर हृदय के द्वार नहीं खुले तो जीवन अंधकारमय है। फिर चाहे मन कितना ही मौन क्यों न हो या बुद्धि अपनी पूरी गहराई पर हो । हृदय में उतरे बिना जीवन में सरसता नहीं आएगी। मन और बुद्धि में जीने वाले के लिए हृदय विभाव-दशा है और मेरे लिए स्वभाव-दशा। हार्दिक व्यक्ति अपनी ओर से हर समय, हर क्षण प्रेम बरसाता है। जबकि प्रज्ञा-मनीषियों की दृष्टि में यह प्रेम राग है, विभाव-दशा है। तुम्हारे जीवन में सरसता होनी ही चाहिए। जब तुम नितांत एकान्त के क्षणों में हो और हृदय में स्नेह की रसधार न हो, तो जीवन की सार्थकता क्या? जीवन में रस न हो, प्रेम का झरना न हो, हृदय का उत्सव न हो, आनन्द का महोत्सव न हो, तो जीवन में क्या पाया? हृदय के पास अपनी आँख हैं ऐसी आँख जो सारे संसार को देख सके । संसार से टूट तो सभी सकते हैं पर जुड़ हर कोई नहीं सकता। तुम एक संकुचित दायरे से तो स्वयं को जोड़ सकते हो, लेकिन कहा जाए कि सम्पूर्ण अस्तित्व को अपने में समाविष्ट कर लो तो यह कठिन कार्य होगा। प्रार्थनाएँ जरूर विश्व-कल्याण की कर लेते हो, पर कल्याण न तो कोई करता है, न चाहता है। अपने भाई को जिस समय हम सौ रुपए दे रहे हैं, उसी क्षण कोई जरूरतमंद सहयोग के लिए पहुँच जाए तो हम उसकी उपेक्षा कर बैठेंगे, उसे लौटा देंगे। हमारे हृदय में सभी के लिए प्रेम नहीं है। एक सीमा तक ही प्रेम विस्तीर्ण होता है। हमारा प्रेम बहुत ही छोटा है; वह भी मानसिक या शारीरिक । आपका प्रेम हृदय से उत्पन्न नहीं हुआ है, आपका प्रेम ध्यान से निष्पन्न नहीं हुआ है । जब प्रेम हृदय और ध्यान से आएगा, वह कुछ पाना नहीं चाहेगा, सदा देने को तत्पर होगा। जिस क्षण प्रेम लुटाया जाता है एक नए धर्म का उद्भव होता है जिसे हम करुणा कहते हैं। जब तक लुटने का भाव न आए, लुट जाने की आकांक्षा न हो तब तक करुणा प्रेम रहता है । यही प्रेम जब पाने की इच्छा करने लगता है, तो मन का विकार हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ इक साधे सब सधे मन को साधने की बात नहीं कहूँगा, मन को तो विसर्जित करना है। हमें हृदय से जीना है । हृदय से जीकर ही जीवन का आनन्द लिया जा सकता है। हर क्षण आनन्द में रह सकते हो । हृदय की आँख से केवल इन्सान में ही प्रभु की मूरत दिखाई नहीं देती, बल्कि पेड़-पौधों, फल-पत्तों, नदी-झरनों में भी उसी प्रभु की मूरत दिखाई देती है। तब वेद के मंत्र ही मंत्र नहीं होते, वरन् चिड़िया की चहचहाट में भी वेदों के मंत्र, वेदों की ऋचाएँ साफ-साफ सुनाई देती हैं। प्रकृति से प्रेम करके देखो तब यह प्रश्न ही न उठेगा कि परमात्मा है या नहीं, क्योंकि वही सब ओर है। कभी यह तर्क नहीं जगेगा कि आने वाले कल में क्या होगा क्योंकि वह सब व्यवस्था कर रहा है। हृदयवान होकर ही कुछ कर सकते हो । प्रेम और करुणा को जी सकते हो । हृदय ही प्रेम और करुणा का सागर है । हृदय ही प्रेम और करुणा का आधार है। हृदय के होने पर ही प्रेम, करुणा और शांति है। बाहर की आँखें कुछ भी देखती रहें, पर हृदय की आँख ही आँख है। महावीर ने संदेश दिया था सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्ष-मार्ग है । सम्यक् दर्शन का अर्थ है हृदय की आँख से देखना। हृदय की आँख के बिना पूरा-पूरा और सही नहीं देख पाओगे। अगर मुझे हृदय की आँख से देखो तो ही जान पाओगे कि मैं क्या हैं। अगर बद्धि और तर्क की आँखों से मुझे देखोगे तो मेरे प्रति स्वयं तुम्हारे सौ संदेह खड़े हो जाएंगे। सम्राट के दरबार में मजनूं के लिए शिकायतें पहुँची कि वह लैला के लिए दीवाना हो रहा है । सम्राट ने समाधान निकाला और नगर भर की दर्जनों सुन्दरियाँ उसके सामने लाकर खड़ी कर दी और कहा 'अपनी लैला इनमें से ढूँढ लो।' मजनूं ने हरेक पर अपनी दृष्टि डाली, एक से बढ़कर एक रूपसी। सबको देखने के बाद बोला, 'इसमें मेरी लैला नहीं है।' कहते हैं लैला बहुत सुन्दर नहीं थी। राजा ने कहा 'यहाँ तेरी लैला से भी अधिक रूपवान स्त्रियाँ हैं और तू कहता है तेरी लैला नहीं है।' मजनूं मुस्कराया, बोला, 'ये सभी सुन्दर तो बहुत हैं, पर इनमें मेरी लैला नहीं है । लैला को देखने के लिए तो मजनूं की आँख चाहिए।' For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय के खुलते द्वार ६५ तुम्हारी आँख लैला को नहीं पहचान सकती, उसमें वह रसधार नहीं है जो मजन में है। हृदय की आँखें खोलो तभी संसार को पहचान पाओगे अन्यथा परिचय नहीं होगा। जब मैंने संन्यास लिया तब अपने बुजुर्गों से यही जाना-समझा कि सबका त्याग कर दो, सबको छोड़ दो, यही मुनित्व है। भगवान की कृपा कि उसने हृदय में यह समझ दी कि सबको अपना लो, सारे जगत को अपना लो। सारे जगत के साथ तुम्हारे अन्तर्संबंध हैं। तुम एक अकेले न रहो बल्कि सारे जगत का जीवन बन जाओ। पहले तो आसक्ति को छोड़ने के प्रयास किए जाते थे, फिर पता ही न चला कि आसक्ति कहाँ चली गई। अब तो लुटा रहा हूँ, लुट रहा हूँ, तुम जितना अधिक लूट सकते हो, लूटो । लुटाना ही आनन्द बन गया है। चाहता हूँ कि मैं मैं न रहूँ, अन्दर जो अखंड ज्योति है वही साक्षात् रहे। प्रभु करे आप सभी अपनी ओर से करुणा के फूल बाँटें । प्रभु करे आप अपना प्रेम एक दूसरे को प्रदान करें। जब भी विपरीत वातावरण बने, अपने हृदय में चले जाओ। कुछ देर वहीं रुके रहो ताकि वह विपरीत वातावरण तुम्हारे हृदय में असर न करे, वह मन और बुद्धि के दरवाजों तक पहँचे और वहीं से वापस लौट जाए। हमें तो जीवन का आनन्द चाहिए और वह हृदय में ही घटित होगा। इच्छा केवल माटी में मिल, तव चरणों के निकट पर्छ । आते-जाते कभी तुम्हारे, श्री. चरणों से लिपट पडूं। किसी हार्दिक व्यक्ति की इससे ज्यादा और क्या प्रार्थना होगी, और क्या इच्छा होगी। हृदयवान की सारी प्रार्थनाएँ हृदय में समाहित होती हैं। उसकी सारी इच्छाएँ हृदय में आकर तिरोहित हो जाती हैं। श्रीचरण ही उसके हृदय की प्रार्थना बनते हैं और वे ही उसकी इच्छा । इच्छा केवल रज-कण में मिल तब चरणों के निकट पडूं। आते-जाते कभी तुम्हारे श्री चरणों से लिपट पडूं। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे हृदय तो स्वयं भावना का मंदिर है, पूजा का घर है, जीवन का आधार है । जब मन शांत होता है, तो हृदय का वह द्वार खुलता है, जिसे हम आनंद का द्वार कहेंगे। जब मन पसीजता है, तो हृदय से वह निर्झर फूटता है, जिसे हम करुणा का निर्झर कहेंगे। जब मन प्रफुल्लित होता है, जब मन एक प्राण दुई गात' बनता है, तो जीवन में प्रेम की वह रसधार बरसने लगती है, जिसे हम हृदय का प्रेम कहते हैं। हृदय आधार है, हृदय सेतु है, हृदय रस है । हृदय का अपना स्वाद है, अपना प्रकाश है । मन के निरोध के लिए, मन से मुक्त होने के लिए, मन को मौन करने के लिए बस एक बैठक चाहिये, जिसे हृदय की बैठक कहते हैं। हृदय में जीने वाला आदमी दुनिया का सबसे जीवंत आदमी है। उससे ज्यादा प्रेमपूर्ण, रसपूर्ण, आनंदपूर्ण आदमी मिलना कठिन है। ध्यान का जो सार-सूत्र है, जो रहस्य की बात है, वो इत्ती-सी है – मन से मुक्त बनो, हृदय में उतरो और अपने भीतर के आकाश में निमग्न रहो, आत्मलीन रहो, पारब्रह्म के संगीत से ओत-प्रोत रहो। मैंने हृदय के खुलते द्वारों को देखा है । मैंने अपने को भी, औरों को भी, हृदय की निर्झरणी में स्नान करते पाया है । मैं इतना-सा ही कह सकता हूँ कि तुम्हें अगर जीवन के गहरे सुख को जीना है, तो हृदय के होकर जीयो। हृदय के होकर स्वयं को और औरों को जीयो । मन-मस्तिष्क के होकर काफी जी लिये, अब कुछ हृदय के होकर जीयो । हृदय के धरातल पर एक अलग नृत्य है, वृंदावन की एक अलग ही रास-लीला है । कुंडलिनी-योग में तो हृदय को अनाहत कहा है। हृदय स्वयं चक्र है। हृदय का जागरण जहाँ मेरी समझ से बोधि और अन्तर्दृष्टि का कारण बनता है, वहीं परामनोवैज्ञानिक शक्तियाँ भी प्रवाहित होती हैं । हृदय को कोई मामूली केंद्र न समझें। यह जीवन का स्वर्ण-कमल है, एक ऐसा छिपा हुआ गुलाब, एक ऐसा 'मिस्टिक रोज़' है, जिसकी पंखुड़ियाँ तब खिलती हैं, जब ईसाई साधक कहते हैं हृदय में ईसा-रूप बालक का जन्म होता है। अच्छा For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय के खुलते द्वार ६७ होगा मनोविकारों और मनोकषायों से स्वयं को अलग करने के लिए सब लोग हृदय के द्वार पर दस्तक दें, हृदय के हो जाएं । अरविंद कहते हैं कि हृदय ही चैत्य-पुरुष का स्थान है। चाहे जो हो, चाहे वह चैत्य-पुरुष का स्थान हो या चैत्य-प्रकृति का, मैं तो इतना ही जानता हूँ यह चित् का स्थान अवश्य है, सत् का स्वरूप अवश्य है, आनंद का निर्झर अवश्य है। हृदय सच्चिदानंद की आत्मा है। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण [ संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; ९-६-९६, प्रश्न-समाधान ] यूं अचानक मुलाकात हो गई जैसे राहगीर को बे-तलब बे-दुआ राह में एक मोती मिले ! क्यों ऐसा होता है? सौभाग्य ! बिन माँगे, बिन चाहे, बगैर दुआ-मिन्नत के अगर मोती हाथ लग जायें, तो इसे अपना सौभाग्य समझो। रास्तों पर चलते तो सभी हैं, प्रार्थना और दुआ तो सभी करते हैं, मगर मिलता है किसी-किसी को ही। संयोग ही मिलाते हैं और संयोग ही वियोग करा देते हैं। अच्छे नसीब वालों को अच्छे लोग मिलते हैं और बुरे नसीब वालों को बुरे लोग, यह तो सीधा-सादा नियम हआ। संयोग उसे कहेंगे जब बरे नसीब वालों को भी अच्छे लोग मिल जायें । पत्थरों में फूल ऐसे ही खिलते हैं । मित्र और प्रेमीजनों For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण का मिलन भी ऐसे ही होता है । ढूंढ़ने जाओ, तो न मिले, बिन माँगे ही मोती मिल जाते हैं । ‘यूं अचानक मुलाकात हो गई' । मिलन अकस्मात् ही होता है । मिलने का जैसे ही सही वक्त आता है, मिलन हो जाता है। दोबारा मिलना हो, तो उसके लिए मेहनत फलदायी हो सकती है, पर पहली मुलाकात तो अचानक-अकस्मात् ही होती है। मैंने कहा अचानक, पर सच तो यह है वियोग की वेला के अंधकार के छँटते ही, विरह का कुहासा हटते ही मिलन हो जाता है, जीवन में सूर्योदय हो जाता है। कुदरत मिला ही देती है । न मिलाये तो सौ वर्ष भी न मिलाये, कई जन्मों तक न मिलने दे । मिलाना चाहे तो वह एक ही झलक में मिला देती है, बिन चाहे, बिन माँगे ही मिला देती है । मिलने की इच्छा न थी, फिर भी अचानक मुलाकात हो जाती है । ६९ मिलने की इच्छा रखो, तो मिलना होता ही नहीं है । कितना तड़फना पड़ता है। कितनी प्रतीक्षा करती पड़ती है । प्रतीक्षा परीक्षा बन जाती है । चकवा-चकवी अगर बिछुड़ जाये, तो कई रातें गुजर जाती हैं एक-दूजे से मिलने की तड़फ में, पिऊ-पिऊ की रटन- पुकार में । चातक मुँह खोले बादलों की टोह लेता रहता है, स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा करता है, बस एक बूँद मिल जाये । इक बार दिखाकर चले जाओ झलक अपनी हम जल्वए-पैहमके तलबगार कहां हैं ? प्रतिदिन और प्रतिक्षण दीदार मिले, पर तलबगार तो मात्र एक झलक पाना चाहता है । एक झलक में ही वह अपने आपको निहाल समझेगा, धन्यवाद और आनंद से भर उठेगा। तुम्हें तो झलक मिल ही चुकी है। जीवन की यात्रा में यह मिलन बिल्कुल ऐसे ही है जैसे बे-तलब, बे-दुआ राहगीर को कोई मोती मिल जाये । मुझे नहीं लगता कि यह मुलाकात अचानक हुई हो । जीवन में संचित हुई अभीप्सा ने ही यह मिलन कराया । जबसे तुम्हारी अपनी ओर नज़र उठी है, तुमने स्वयं को एक अलग ही प्यास से भरा हुआ पाया है। मिलना तो कइयों For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० इक साधे सब सधे से हुआ, पर उस मिलन को मिलन कैसे कहा जाये, जो हमारी प्यास को, हमारी अभीप्सा और उत्कंठा को तृप्त न कर पाये, बुझा न पाये। एक अभीप्सा थी मन में कैसे खुद को पाऊं, विगलित हो अंधकार कहीं से ज्योति-किरण पाऊं। तुम, आए लेकर उजाला रोम-रोम सुलग उठा पर, कैसी शीतलता छाई सब शांत, निर्मल है कहाँ से पाई, यह तरुणाई ! वैभव-विलास के आंगन में यह वैराग्य कहाँ से आया, वीतराग तुम, पावन वेश तुम्हारा अहोभाग्य, अहोभाव तुम ही ने यह दीप जलाया। हमारी अभीप्सा ही संयोगों का निर्माण करती है, संयोगों के ताने-बाने बुनती है और फिर हमारी अभीप्सा जिससे पूरी हो सके उसे मिला देती है, तो अचानक मुलाकात हो जाती है, ठीक ऐसे ही जैसे किसी राहगीर को कोई मोती मिल जाये, मरुस्थल में फूलों की सुवास मिल जाये, पानी के प्यासे को पीने को अमृत मिल जाये। प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । राजा परजा जेहि रुचै, सीस देय ले जाय।। जिहि घट प्रीति न प्रेम रस, पुनि रसना नहिं राम । ते नर इस संसार में, उपजे भए बेकाम ।। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण अकथ कहानी प्रेम की, कछु कहि न जाय । गूंगे केरी सरकरा, खाई और मुसकाय ।। प्रेम का मार्ग है ही ऐसा – नि:स्वर, फिर भी संगीत से सराबोर । मौन, फिर भी मुखर । मिटना, फिर भी पाना । मृत्यु, फिर भी अमरत्व । प्रेम यानी बूंद समानी समुद्र में । पहले बूंद समुद्र में समाने को आतुर होती है, फिर समुद्र समाना बूंद में । फिर समुद्र बूँद में चला आता है। पहले कुंभ कूप में, फिर कूप कुंभ में । मार्ग ही ऐसा है। 'प्रेम न बाड़ी ऊपजै प्रेम न हाट बिकाय ।' प्रेम की कोई खेती नहीं होती। यह कोई बाड़ी में नहीं उपजता। करने जाओ तो इसकी कृषि नहीं होती। यह तो अपने आप ही खिलने वाला फूल है। प्रेम कोई बाजार में बिकता नहीं है। बाजार में प्रेम के नाम पर शरीर खरीदा-बेचा जा सकता है, पर प्रेम कोई वस्स थोड़े ही है कि खरीद लोगे, बेच दोगे। प्रेम तो हृदय की सुवास है, हृदय की झंकार है, हृदय का आनन्द है । हृदय ही प्रेम का आधार है । यह खरीद-फरोख्त की वस्तु नहीं है। मन से उपजा प्रेम काम है, विकार है; हृदय से उपजा प्रेम जीवन का शृंगार है, भावना है, भक्ति है, समर्पण है। यह प्रेम मौन है, कुर्बानी है। यही प्रेम, प्रेम है । बदले में कुछ पाना चाहे, तो वह प्रेम कहाँ हुआ। वह तो प्रेम का सौदा हुआ, स्वार्थ हुआ। प्रेम बदले में कुछ पाना नहीं चाहता, व्यवस्था भी नहीं, आदेश भी नहीं, यह तो अनुशासन हो गया। प्रेम तो केवल लुटना जानता है, लूटना नहीं । मिटना जानता है, मिटाना नहीं । प्रेम स्वयं अमृत है, पर यह अमृत बनता है ज़हर से । प्रेम जहर पीता हैं । जहर पीकर अमृत लौटाता है । यही तो प्रेम-मार्ग की खासियत है। मीरा ने ज़हर ही पीया। लोगों ने उसके प्रेम की परीक्षा ज़हर से ही ली। यह तो मार्ग ही कसौटियों से भरा है और जिसमें अगर यह प्रेम परमात्मा से जुड़ा हो, तब तो उसका रूप ही अनेरा हो गया। 'राजा परजा जेहि रुचै सीस देय लै जाय ।' देखा, प्रेम क्या कुर्बानी चाहता है । छोटे-मोटे में राजी होने वाला नहीं है ये। शीष ही चाहता है। शीष देओ और प्रेम ले जाओ। नमक और पानी, दूध और मिश्री एक हुए बगैर, For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे एकरूप-एकरस हुए बगैर प्रेम अपना वास्तविक रूप ले ही नहीं पाता। प्रेम तो कुर्बानी का पर्याय है । प्रेम तो सीधी मृत्यु है । छलांग लगानी है सागर में – अरूप, अनमोल मोती को पाने के लिए। अपने प्राणों की वीणा को उस अथाह गहराई में ले जाना है, जहाँ स्वरहीन तारों के गीत अनादिकाल से गाए जाते हैं । प्रेम तो अपने आखिरी छोर में अनंत के स्वर से अपना स्वर मिला लेता है। और जब ये वीणा अपना आखिरी गीत गुनगुनाकर नि:स्वर, नि:शब्द, मौन हो जाए तो उसे प्रभु के चरणों में रख दिया जाए। यह शीष चढ़ाने की बात हुई। ___ जब शीष ही चढ़ा दिया, तो फिर चढ़ाने को बचा ही क्या ! शीष चढ़ता है श्रद्धा में । अश्रद्धा में तो शीष कतराता है, अकड़ कर रहता है; श्रद्धा में लुट ही जाता है । 'राजा परजा जेहि रुचै सीस देय लै जाय ।' प्रेम तुम्हें चाहिये; आओ, प्रेम तैयार है। उधार में नहीं मिलेगा। नगद चाहिये। ‘सीस देय लै जाय ।' खुद को चढ़ाओ और मुझको ले जाओ। मैं बंजारा, प्रेम का सौदागर, प्रेम देता हूँ, इस हाथ देओ, उस हाथ लेओ। यह मार्ग तो कृष्ण का मार्ग है। मीरा का मार्ग है । आनन्द का मार्ग है, अहोभाव का मार्ग है । कृष्ण का मूल मार्ग तो प्रेम का ही मार्ग है । ज्ञान और संन्यास, युद्ध और कर्मयोग तो गीता की गाथाओं में वे भले ही कह गये हों, उनका जीवन तो प्रेम की ही रासलीला रहा। इसीलिए तो कहा गीता में कि तुम मुझसे प्रेम रखो, मैं तुम्हारे योगक्षेम को, तुम्हारे कुशलक्षेम को स्वयं वहन करूंगा। कबीर कहते हैं 'जिहि घट प्रीति न प्रेम रस' जिसके जीवन में प्रेम-प्रीति का रस नहीं है, उसका तो जीवन ही नीरस है। वेद कहते हैं वह रस रूप है । प्रेम रस है । अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं, तो जीवन नीरस ही हुआ। घट में प्रेम नहीं और जिह्वा पर राम नहीं, तो जन्म लेकर भी अजन्मे ही रहे । जन्म ही व्यर्थ गया। जीभ रस का स्वाद लेती है। जीभ हर स्वाद का रस देती है। राम से बढ़कर रस कौन-सा; भजन से बढ़कर गान कौन-सा । रसना तो राम से जोड़ो। रसना का रस ठेठ हृदय तक पहुँचेगा । हृदय में प्रेम और रसना पर राम, जन्म For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण m को, जीवन को सार्थक ही करेंगे। डूब रहे हो, तो भी एक बार तो तिर ही जाओगे। तुम्हारी रसना ही तुम्हें तिरा देगी, प्रेम-रस ही तुम्हारे जीवन को पहाड़ी झरने-सा सुकून दे देगा। प्रेम को जीओ । प्रेम का विस्तार करो । प्रेम अहिंसा का ही, करुणा का ही, हार्दिकता और भाईचारे का ही सार है । आज घर-घर में, समाज-समाज में प्रेम के गीत गाये जाने चाहिये । प्रेम है तो एकता है । प्रेम है तो एक-दूसरे के लिए त्याग और कुर्बानी है। प्रेम है तो एक-दूजे के बीच माधुर्य है । प्रेम है तो सहयोग और कृतज्ञता है। प्रेम स्वयं पुण्य है, प्रेम स्वयं प्रसाद है । प्रेम स्वयं प्रणाम है, प्रेम स्वयं आशीष है । जीसस कहते हैं प्रेम ही परमात्मा है, परमात्मा ही प्रेम है । प्रेम और परमात्मा दोनों एक-दूसरे के बिम्ब-प्रतिबिम्ब हैं। तुम ध्यान कर रहे हो; पर अपने ध्यान को प्रेम से अलग मत करो। प्रेम तो खुद ध्यान का परिणाम है । काम और प्रेम का कहीं कोई संबंध नहीं है। काम तो उफान है, उत्तेजना है, विकृति है। प्रेम तो तुम्हें सौम्य बनाता है, आत्मा का सामीप्य देता है । तुम्हें अपने प्रेम के बदले में क्या मिलता है, यह मत देखो। तुम बस अपनी ओर से प्रेम दो । प्रेम ‘देकर' ही प्रसन्न होता है, सार्थक होता है। संचय कृपणता है। प्रेम कृपण नहीं, कंजूस नहीं। प्रेम तो सागर है, विस्तार है । देकर आनन्द मनाओ। देना ही प्रेम की परिभाषा है। 'अकथ कहानी प्रेम की।' अकथ्य है इसकी कहानी। प्रेम तो बस जीना है । 'गूंगे केरी सरकरा।' प्रेम का स्वाद, प्रेम की मिठास कैसी है, तो कहा कि गूंगे केरी सरकरा – गूंगा कैसे कहेगा कि कैसा स्वाद है गुड़ का, शक्कर का। वह तो बस खा रहा है और मुस्करा रहा है । गूंगा बोल नहीं सकता, पर मुस्कान ही उसकी भाषा है, खीज ही उसकी भाषा है । खाता है और मुस्काता है, यानी तृप्ति आ गयी। मजा आ गया। यह परम स्वाद रहा। मुस्कान ही स्वाद की अभिव्यक्ति है । प्रेम का स्वाद ऐसा ही है । पीड़ा है तो भी, प्रेम की पीड़ा अपलक, अनवरत सुकून ही देती है । अहोभाव से ही भरती है । तुम तो बस प्रेम को आत्मसात् हो जाने दो, परमात्मा स्वयं तुम्हें आत्मसात् होते जाएंगे। प्रेम आखिर परमात्मा का प्रतिबिम्ब ही है, परछाई ही है। छाँह को For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ बरगद से अलग नहीं किया जा सकता । मोह के संसार से ऊपर उठो और प्रेम के संसार को असीम होने दो । राग के बंधन नहीं, प्रेम के संबंध हों । तुम तो प्रेम की प्याली बनो, दिव्य प्रेम की प्याली । अपनी छलकती प्याली से संत्रस्त और पीड़ित मानवता को, प्राणिमात्र को जितना सुख और सुकून दे सकते हो, अवश्य दो 1 सबसे प्रेम करो । प्रेम को ध्यान ही हो जाने दो। इंसानों से तो प्रेम करो ही, वृक्षों से भी प्रेम करो। अपने हृदय से उनका भी आलिंगन होने दो । फूलों से प्रेम करो, उन्हें पुचकारो, उन्हें अपने होठों से स्पर्श करो। इस स्पर्श की सुखानुभूति और ध्यान में डूब जाओ। तुम एक अलग ही आह्लाद से भर उठोगे । तुमसे फूल खिलेंगे और तुम फूलों से। ऐसे ही जीवन में आनन्द का सवेरा होता है । इक साधे सब सधे मेरा प्रेम आप सब तक पहुँचे अनन्त रूप में, अनन्त वेश में, सदा-सर्वदा । नि:संशय भाव से आगे बढ़ो, फिर मैं तो आपके साथ हूँ ही । मेरा प्रेम आपके साथ है । हम सब एक-दूसरे के साथ हैं । - · प्रभु श्री, मानव-जीवन में दीक्षा का महत्व ! क्या भवसागर पार करने के लिए दीक्षा लेना अनिवार्य है ? मेरे लिये दीक्षा का अर्थ है रूपांतरण, परिवर्तन | मन का, हृदय का । परिवर्तन और रूपांतरण चाहे जब और चाहे जिस क्षण घटित हो सकता । किसी और की मदद से भी आप रूपांतरित हो सकते हैं और स्वयं के संकल्पों से भी स्वयं को परिवर्तित कर सकते हैं । दीक्षा तो जीवन में अनिवार्य है। दीक्षा नहीं है तो जीवन भी नहीं है। दीक्षा का पर्याय ही रूपान्तरण है, तो अनिवार्यतः रूपान्तरण होना ही चाहिए । अगर स्वयं को रूपान्तरित नहीं करोगे, तो क्या सदा-सदा के लिए जन्मों-जन्मों तक नरक को ही जीते रहोगे ? हमेशा पशुता को ही जीते रहोगे ? दीक्षा तो जीवन में For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण ७५ आत्मसात् होगी, आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में । बिना आत्म-रूपान्तरण के आत्म-मुक्ति नहीं हो सकती। आज भले ही कीचड़ में तुम्हें सुख लगे, लेकिन जिस दिन कीचड़ के सुख से ग्लानि उभर जाएगी उस दिन तुम जानोगे कि तुम्हारी आत्मा परिवर्तन के लिए कितनी छटपटा रही है । परिवर्तन तो होगा ही। अच्छा होगा आप छोटी-छोटी दीक्षाएँ लें । बड़ी दीक्षा हो सके या न हो सके, छोटी-छोटी दीक्षाएँ तो ली जा सकती हैं। कल तक आप अपने बेटे को डाँटते रहे अब डाँटना बंद कर दिया, दीक्षा हो गई। कुछ मन बदला, कुछ दृष्टि बदली । अगर कल तक सिगरेट पीते थे, किसी व्यसन से ग्रस्त थे और अगर आज संकल्प जग गया कि कब तक सिगरेट पीते रहेंगे, इसी ने हमको पी लिया है, यह संकल्प जगा कि दीक्षा हो गई। यह आत्म-दीक्षा है । किसी भी बुरी आदत को टालो, दीक्षा हुई। सम्राट अशोक ने कलिंग-युद्ध किया । लाखों प्राणियों की हत्या हुई। सम्राट ने विजय का उत्सव, जीत का जश्न मनाया। कुछ भिक्षु अशोक के पास पहुँचे और पूछा 'तुम किस जीत का जश्न मना रहे हो? इस हिंसा का जश्न ? इस त्रासदी का जश्न ?' तब एक क्रांति घटित हुई। सम्राट बदला । सम्राट के हृदय में हिंसा की जलने वाली होली करुणा के झरने में बदल गई। मेरी दृष्टि में यही वह क्षण था जब सम्राट की दीक्षा हुई। कल तक अगर कोई डाकू फूलन देवी थी और आज वह आत्मसमर्पण कर सामाजिक सेवा के लिए कृतसंकल्प हुई यह उसकी दीक्षा हुई। हर इन्सान गिरा हुआ है, मैं भी हो सकता हूँ, आप भी हो सकते हैं। संभव है कि नब्बे मार्गों पर हम ऊँचाइयों को छू रहे हों और दस मार्ग ऐसे हों जहाँ हम गिरे हुए हों। उन दस मार्गों को छोड़ने के लिए कृतसंकल्प होना दीक्षा की ओर कदम बढ़ाना है। दीक्षा तो प्राणिमात्र के लिए अनिवार्य है। क्या पता कोई चण्डकौशिक बदल ही जाए महावीर के सत्संग से और डंक मारना त्याग कर दे। इन्सान देवत्व को उपलब्ध होगा या नहीं यह तो हम पर निर्भर है, पर एक सर्प देवत्व को उपलब्ध हुआ, दीक्षा के घटित होने पर । For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ इक साधे सब सधे ध्यान करते हुए यह शरीर जो इतना ठोस मालूम होता है एकदम हल्का हो जाता है, इतना सूक्ष्म कि केवल तरंगें-ही-तरंगें तथा पोल-ही-पोल और कुछ भी नहीं, कृपया समझाएँ। सामान्यतया मनुष्य का शरीर ठोस होता है। लचीला होते हुए भी ठोस । लेकिन जब ध्यान में उतरते हो तो तुम्हारा शरीर के साथ जो तादात्म्य है, जिसके कारण शरीर ठोस लगता है वह तादात्म्य टूटता है और तुम ऊपर उठते हो । यह ऊपर उठना ही शरीर के ठोसपन को हल्का कर देता है । ठीक ऐसे ही जैसे कोई पानी में उतरे और हल्के हो जाए। एक पन्द्रह साल का लड़का भी, अगर आप पानी में डूब रहे हो तो बाल पकड़ खींचकर बाहर निकाल देगा। डूबोगे तो हल्के होओगे ही। डूबने से कतराए तो जितने ठोस अभी हो उससे अधिक ठोस हो जाओगे। यह तो वह मार्ग है जहाँ इबने वाला उबर जाता है। शरीर से तादात्म्य हटने पर हमारे भीतर इतनी सूक्ष्म तरंग हो जाती है कि एक बार 'ओम्' बोलो तो अन्तस् का ब्रह्माण्ड परिव्याप्त हो जाता है। तभी 'ओम्' का उपयोग सार्थक होता है जब ध्यान में इतनी सूक्ष्म तरंग बनती है । इसके पूर्व तो ध्यान में उतरने का अभ्यास चलता रहता है कि शरीर से अलग हो जाएँ, मन से रिक्त हो जाएँ, भीतर एक शून्य उभर आए, जैसे बाहर आकाश है वैसा ही आकाश अन्दर उभर आए। इसके पश्चात् जो होगा वह अत्यन्त प्रभावी होगा। परमात्मा करे वह प्रभाव आपके जीवन में व्याप्त हो । . वीर्यकण में जो ऊर्जा है क्या शरीर के दूसरे कणों में उतनी नहीं है ? वीर्य खोकर भी क्या कोई ध्यान को उपलब्ध हो सकता है? उसे कैसे बचाया जाए। बचाने की कोशिश जाग्रत अवस्था में तो संभव है पर स्वप्न में नहीं। कृपया इस पर सुझाव देने की कृपा करें। ध्यान को ऊर्जाशक्ति चाहिए। ध्यान को For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण ७७ एकाग्रता और तन्मयता चाहिए । ध्यान को ध्येय चाहिये । यदि शारीरिक ऊर्जा संरक्षित रह सके तो निश्चित ही ध्यान में सहायक होगी। यदि वह संरक्षित-सुरक्षित नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं कि आप ध्यान को उपलब्ध नहीं हो सकते। ध्यान का संबंध शरीर से नहीं है और वीर्य-कणों का संबंध शरीर से है । जब शरीर-भाव से स्वयं को अलग कर लिया जाता है तब शरीर के अंग विशेष में शक्ति संरक्षित रहती है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। जिसने ऊर्जा-कणों को नष्ट किया है वह ध्यान को उपलब्ध नहीं होगा यह ध्यान की शर्त नहीं है । यह तो वे कण हैं जिनका निर्माण सतत है। चाहे नष्ट हों या न हों। यह तो ऐसे ही जैसे आप किसी को रक्तदान करते हैं तो चौबीस घंटे में शरीर में उस रक्त का पुनर्निर्माण हो जाता है। इसलिए ऊर्जस्वित कण अगर निष्कासित हो भी गए हैं तो उन्हें लेकर आत्मग्लानि महसूस न करें । शरीर का अपना स्वभाव है । अपना ध्यान मन व हृदय पर केन्द्रित करें परिणामत: जाग्रत अवस्था में तो आप सुरक्षित रख ही लेते हैं, शरीर-भाव से मुक्त होने पर वह स्वप्नावस्था में भी सुरक्षित रहेगा। स्वप्न-अवस्था में निष्कासन तभी होता है जब शरीर से तादात्म्य जुड़ा होता है। ध्यान आपको मार्ग दे रहा है। संबोधि का अर्थ यही है कि वह समझ जिससे आप शरीर को अलग देख सको। उसके स्वभाव और अपने स्वभाव को अलग समझ सको। अपने स्वभाव को . समझने के बाद, अपने स्वभाव को उससे अलग देखने के बाद, अपने स्वभाव में स्थिर होने के बाद भी अगर शरीर का कोई गुण-धर्म सक्रिय होता है तो आप उसके लिए निर्दोष कहे जाएंगे। - आप ध्यान में जीएं, ध्यान में उतरते रहें। भगवान करे आपका मनोमस्तिष्क स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो । आने वाला भविष्य आपके लिए ध्यान-मार्ग का भविष्य बने। - 'विपश्यना' शब्द को स्पष्ट कीजिए। विपश्यना का अर्थ है मन को अंधकार For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ रहित करने के लिए चित्त को देखो, शरीर को ग्रंथियों से मुक्त करने के लिए शरीर को देखो, हृदय को निष्पाप करने के लिए हृदय को देखो। इन सबसे बढ़कर अपने को देखने के लिए, अपने परम शून्य को उपलब्ध करने के लिए मन, वचन, काया से अलग होकर बहिरात्मपन का त्याग करके अन्तर - स्वरूप में रमण करते हुए अपने आपको देखो । इक साधे सब सधे विपश्यना का अर्थ है देखना । महावीर ने बिलकुल इसके समकक्ष शब्द दिया अनुप्रेक्षा । इसी में से 'अनु' शब्द को हटाकर प्रेक्षा- ध्यान की एक और पद्धति प्रचलित है । विपश्यना एक अच्छी ध्यान पद्वति है । जो विपश्यना में निरंतर डूबा हुआ अनवरत अभ्यासरत है, उसके लिए यह बहुत लाभदायी है । संबोधि-ध्यान का दूसरा चरण अन्तर- सजगता, वास्तव में आप उसे विपश्यना समझें। अन्तर - सजगता और विपश्यना में साम्यता है । ध्यान में प्रवेश के लिए, अन्तर्यात्रा के लिए प्रिय-अप्रिय संवेदनाओं के प्रति सजग और शून्य होने के लिए अन्तर - सजगता और विपश्यना चामत्कारिक प्रयोग हैं। वर्तमान में जीने के लिए वर्तमान को जीने के लिए अन्तर- सजगता आवश्यक है । ध्यान का सार - संदेश यही है कि व्यक्ति चित्त की चंचलताओं का भोक्ता नहीं, वरन् द्रष्टा और साक्षी भर रहे । वह उस चंचलता को देखे, उसे जीये नहीं। बहाव में बहे नहीं । महावीर की भाषा में यही अनुपेक्षा है, अनुपश्यता है । बुद्ध की भाषा में यही विपश्यना है । आप इसे साक्षी की सजगता समझें । आत्मा का आदि रूप क्या है और कब प्रारम्भ होता है, कृपया मार्गदर्शन करें । अरूपी का कैसा रूप, निराकार का कैसा For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण आकार । आत्मा के रूप और आरम्भ आदि के झंझट में न पड़ें तो ही बेहतर है। आखिर सर्वज्ञ भी यहाँ आकर मौन हो गए और जिसने जवाब देने का प्रयास किया वे अभिव्यक्ति न दे पाए। यह तो वह सत्य है जिसे 'नेति-नेति' ही परिभाषित कर सकता है । जिसने जाना वह कह नहीं पाया और जिसने कहने की कोशिश की, वह भी अधूरा ही रह गया। तुम तो आज क्या हो, यह देखो। आज तुम्हारी आत्मा का क्या स्वरूप है इसे जानो। विकृत आत्मा हो या संस्कारित, पता लगाओ। अपने भीतर उतरकर यह देखो कि तुम्हारी आत्मा मनुष्य की आत्मा है या पशुता की आत्मा । अपने भीतर जाकर ही जान सकोगे कि तुम्हारी आत्मा का आदि रूप कैसा है। तुम्हारा आज जो रूप है, तुम्हारी आत्मा का आज वही रूप है। अगर तुम शरीर की पर्यायों को आरोपित समझते हो, तो तुम्हारी आत्मा की वर्तमान स्थिति भी आरोपित है । काया तुम्हारे साथ है, तो वह कायनात भी तुम्हारे साथ है। तुम्हारी सीमा में वह असीम है । तुम्हारे साकार में वह निराकार है । तुम्हारी धड़कन में उसी की निनाद है। ___ आत्मा तो बिल्कुल ऐसी है, जैसे बिजली के बल्बों में तारों में बहती करंट होती है। तारों में बहती विद्युत दिखाई नहीं देती। अरूपी है उसका रूप । अरूप ही उसका रूप है । आत्मा के प्रकाश को देखा जाता है, बिजली को नहीं देखा जा सकता । जो वैज्ञानिक बिजली की परिभाषाएँ कर रहा है, वह भी बिजली को नहीं देख पाया होगा। बिजली का प्रभाव ही बिजली को अहसास करा देता है । तुम अगर एक लाश को देखो और फिर उसी के साथ अपने आपको देखो। यह देखना ही तुम्हें आत्म-दर्शन करा देगा, आत्मज्ञान करा देगा । स्वयं को सिद्ध करा देगा। आत्मा जीवमात्र का त्रैकालिक सत्य है, सबका, स्वयं का प्राण है, महाप्राण है । आत्मा सूक्ष्मतम है । ध्यान सूक्ष्म की ओर बढ़ने का प्रयत्न है। रूप से अरूप की ओर उठने का नाम ही जीवन में अध्यात्म का अंकुरित होना For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे है। मेरी समझ से, जो लाश में और स्वयं में फर्क करना जानता है, वह स्वयं को जान लेता है । लाश को देखकर भी, जो रूह को न समझ पाया, उसके प्रति संदिग्ध रहा, वह खुद लाश है। मृत है। अपने में आत्म-अस्तित्व देखो, न केवल अपने में, वरन् औरों में भी। सबके प्रति आत्मवत् व्यवहार-आत्मवत् भाव रखो। अगर ऐसा हुआ तो आविर्भाव तुम्हारा चाहे जब हुआ, भविष्य तुम्हारे हाथ होगा। अ सि आ उ सा, अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्व साधुभ्यः, णमो अरिहंताणं आदि नमस्कार-मंत्र, इनके अतिरिक्त अन्य कोई महामंत्र का संक्षिप्त या बड़ा रूप है ! वह कौनसा है ! इनमें से सर्वश्रेष्ठ अनुकरणीय, मननीय, पठनीय, चिन्तनीय कौन-सा पाठ है ! आप मुझे चुनने को कहते हैं। माफ कीजिए मैंने वोट देना बंद किया हुआ है। किसको छोडूं और किसको अपनाऊं। जब मंत्र है, तो मंत्र है। और मंत्र का अर्थ होता है जिसका मनन किया जा सके। मनन तो करते नहीं, माला लुढ़काए चले जाते हो। कहीं ठहरते नहीं, स्थिर होते नहीं। अस्थिर चित्त हो स्थितिकरण चाहिये। फिर भी जानना ही चाहते हो तो 'ओम्' ही ऐसा मंत्र है जो बीज मंत्र है। प्राय: सभी मंत्रों के प्रारम्भ में ओम् लगता है। यह सारे मंत्रों का मंत्र है। मंत्र के द्वारा, मंत्र की सहायता से ध्यान में उतर सकें इसीलिए सुबह के चैतन्य ध्यान में 'ओम्' जोड़ा गया है। दरअसल, मंत्र जितना छोटा और सूक्ष्म होगा उतना ही प्रभावशाली होगा। जितना बड़ा मंत्र होगा मन को उलझाने में सहयोगी होगा। वृक्ष को उत्पन्न करने के लिए वृक्ष की नहीं, बीज की आवश्यकता है। बीज में ही बरगद की संभावना है। आज जिसे छोटा समझकर उपेक्षित कर दिया जाता है अगर उसकी संभावनाएँ जाग्रत हो जाएं तो वह विराट रूप ले सकता है। अणु-बम और परमाणु-बम की विस्फोटक क्षमताएँ आज सभी को ज्ञात हैं। इसलिए मंत्र भी यदि सूक्ष्मतम हो और For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण अंतर-तरंगों के साथ एकात्म रूप ले ले तो इससे श्रेष्ठ कुछ नहीं हो सकता। 'ओम्' को मैंने, बहुतों ने जीया है । 'ओम्' सार्वभौम है । प्रकृति की मूल-ध्वनि है । इसे ध्यान में इसीलिए सम्मिलित किया है। यह कोई मतवाद या धर्म विशेष का प्रतीक नहीं है । 'ओम्' सबसे सूक्ष्म मंत्र है, पराध्वनि । मैं तो यही कहूँगा जब भी प्रतिकूलता महसूस हो, गहरी सांस के साथ 'ओम्' को अंदर जाने दीजिए और बाहर आने दीजिए। तीन बार ऐसा कीजिए आप खुद ही अपूर्व शांति का अनुभव करेंगे । मन-मानस को संयमित पाएंगे। पूर्णमिदः पूर्णमिदम् पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । कृपया, पूर्ण से पूर्ण निकालने पर किस प्रकार पूर्ण शेष रहता है, स्पष्ट करें। पूर्ण में से अधूरा निकालोगे तो अधूरे बचोगे और जब पूर्ण में से पूरा निकालोगे तो पूर्ण ही रहेगा। शून्य से शून्य का गुणा करोगे तो क्या होगा? शून्य में से शून्य घटाओगे तो क्या बचेगा? शून्य में शून्य का भाग दो तो क्या होगा? शून्य में शून्य जोड़ो तो क्या मिलेगा? हमें गणित का आभारी होना चाहिए अन्यथा यह सूत्र बहुत-सी उलझनें खड़ी कर देता । गणित ने सिद्ध किया कि शून्य का परिणाम शून्य । पूर्ण से आए हो, पूर्ण में समा जाओगे। एक बिंदु के रूप में अवतरित होते है। शरीर आकार लेता है। एक दिन पुन: बिंदु के रूप में रह जाते हो और अस्तित्व में लीन हो जाते हो । इसीलिए कहा गया है पूर्ण से आता है व्यक्ति और पूर्ण में समाविष्ट हो जाता है। बीज से बरगद बनता है, मनुष्य से मनुष्य विकसित होता है। पूर्ण से पूर्ण मुखरित होता है । यह पूर्णता की यात्रा सूक्ष्म से विराट की और विराट से सूक्ष्म की यात्रा है। गंगोत्री से गंगासागर की और गंगासागर से गंगोत्री की। For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ व्यक्ति अधूरा तब तक ही रहता है जब तक उसकी वृत्तियाँ कायम रहती हैं । ध्यान-साधना के द्वारा हम इन वृत्तियों को, इन अपसंस्कारों को, इस कालिमा को निर्जरित और प्रक्षालित करते हैं । आन्तरिक पूर्णता और निर्मलता से ही तीर्थंकरत्व, बुद्धत्व और संबोधि हमारे भीतर प्रकट होती है । यही हमें पूर्णता की ओर ले जाती है । पूर्ण से आते हैं और पूर्ण में समाविष्ट हो जाते हैं । ज्योति परमज्योति में आत्मलीन हो जाती है । इक साधे सब सधे For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षित्व के किनारे | संबोधि-ध्यान-शिविर, अजमेर; १०-६-९६, प्रवचन] र मनुष्य के भीतर एक पागल मन है, जो किसी नदी के प्रवाह की तरह सतत चलायमान है । कोई भी व्यक्ति किसी समूह के मध्य हो या एकान्त में, मन के भीतर अन्तर्धारा चलती ही रहती है। अन्तर्वार्ता जारी रहती है। स्वयं से तटस्थ होकर खुद से बातें करना तो चिन्तन और मनन के अन्तर्गत रखा जा सकता है, किन्त बिना लक्ष्य और बिना बोध के मन से मन की बातें तो मन का पागलपन ही है। पागलों की किस्म अलग-अलग हो सकती है। कुछ तो प्रकट रूप में पागल होते हैं, कुछ ऐसे हैं जो अप्रकट पागल हैं। प्रकट पागल तो जिह्वा से अनर्गल बोला करते हैं, लेकिन ईमानदारी से अपने मन को पड़तालो तो पाओगे कि हमारा मन भी अनर्गल, बेमतलब/बेहिसाब बोलता ही रहता है। हम अप्रकट पागल हैं। For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ लेकिन हमारा पागलपन पागलखानों के पागलों से भी अधिक खतरनाक है क्योंकि वे तो सिद्ध पागल हैं और अनर्गल प्रलाप करते मन के पागलपन को न सिद्ध किया जा सकता है और न प्रमाणित । अनर्गल प्रलाप करते मन के पागलपन की चिकित्सा का नाम ही ध्यान है । अपने पागलपन की परीक्षा करनी हो तो स्वयं को चौबीस घंटे के लिए किसी एकान्त कक्ष में बंद कर लो । बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे, यह देखकर कि चौबीस घंटे भी तुम अकेले नहीं रह सकते । मन तड़पेगा, छटपटाएगा, परेशान हो जाओगे । वह घबड़ा उठेगा भीड़ में जाना, किन्हीं से मिलना, किन्हीं को देखना, किन्हीं में घुसना चाहेगा । 1 इक साधे सब सधे वह वैज्ञानिकों का मत है कि किसी व्यक्ति को खाने-पीने की सुविधा के साथ किसी एकान्त कमरे में तीन सप्ताह के लिए बंद कर दिया जाए, तो स्वयं से बातें करने लगेगा, बड़बड़ाने लगेगा और तीन माह में तो अनिवार्यतः पागल हो जाएगा । अन्तर् - स्वरूप में स्थित रहने का, रमण करने का ध्येय न हो, तो अकेला मन, फालतू पड़ा दिमाग शैतान का घर है । मनुष्य का मन चंचल है । मन के भीतर तीव्र कामनाएँ हैं । इन कामनाओं के कारण पीड़ाएँ भी हैं। कई शिकवे भी हैं। मन में कई खरोंचें भी लगी हुई हैं, कई अनभरे घाव भी हैं । एक नई खोज है : 'द रैमेडीज़ ऑफ फ्लावर'। इसके लेखक डॉ. बैच का मत है कि मनुष्य की सभी बीमारियाँ उसके अपने ही मन के कारण हैं। हर बीमारी उसके मन का प्रतिबिम्ब है । अगर मन की चिकित्सा कर दी जाए तो खुद-ब-खुद शारीरिक चिकित्सा हो जाती है। क्रोध मन का रोग, मन का पागलपन है । ईर्ष्या-द्वेष, वैर - विरोध, चिड़चिड़ापन, प्रतिस्पर्धा, डर, आत्महत्या की भावना, ये सभी मानसिक बीमारियाँ हैं । मनुष्य बाहर से स्वस्थ दिखाई दे सकता है, लेकिन ये मनोरोग तो लगे ही हैं । हमें मन को उद्वेगों से बचाना है, ताकि जीवन में शांति का रसास्वादन कर सकें । मन को कामनाओं से बचाना है ताकि अन्त:करण में मौन क्षण और मौन आनन्द को उपलब्ध कर सकें। ऐसा करने के लिए मन को नई दिशा देनी होगी, चेतना को नए क्षितिज और नए आयाम देने होंगे । For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षित्व के किनारे ८५ भगवान के जीवन से जुड़ी घटना है कि उन्होंने अतिमुक्त नामक बालक को श्रमणत्व प्रदान किया। आठ वर्ष का बालक अतिमुक्त अपने अन्य साथी मुनियों के साथ जंगल में सैर करने गया। वहाँ देखा, पानी का नाला बह रहा था। उसे अपने बचपन की याद आ गई। जब वह और छोटा था, अपनी सखी चम्पा के साथ कागज की नावें बनाकर नाले में तैराया करता था। उसे याद आया, उसकी नाव चम्पा की नाव से आगे बढ़ गई, तो उसने विजय का घोष किया था लेकिन चम्पा में उसे चाँटा लगाया और कहा तेरी नौका डूब गई, मेरी नौका पार लग गई। विचारों के इस बहाव में चलता हुआ नाले के किनारे पहुँच गया और अपने हाथ का ‘काष्ठ-पात्र' नाले में उतार दिया। हाथ से पानी हटाने लगा। पात्र पानी में चलने (तैरने) लगा। पहले क्षण में भाव उठा, चम्पा ! तब भले ही मेरी नौका डूब गई हो लेकिन आज देखो मेरी नौका तिर रही है। अपनी नौका का खेवनहार मैं स्वयं हूँ। मेरी नौका पार लग रही है। हाथ से पात्र खेता जा रहा है। भावों में विशिष्ट भावदशा निर्मित हो रही है। गुण-स्थानों पर आरोहण हो रहा है । ओह ! प्रभु तुमने मुझ पर कितनी महान कृपा की, मुझ जैसे छोटे बालक को श्रमणत्व प्रदान किया। यह नदिया नहीं, संसार की नदी है और यह पात्र, पात्र नहीं मेरा जीवन है । हे प्रभु ! तुमने मुझे श्रमणत्व प्रदान किया, मेरी नौका पार लग रही है । मन मुक्ति की ओर बढ़ रहा है। परम कृपालु देव ! देखो, देखो मेरी नौका तिर गई, पार लग गई । ओह, मैं डूबने से बचा, पार लगा, मुक्त हुआ, अतिमुक्त हुआ। अन्य मनि अतिमक्त की इस क्रिया को देख उद्विग्न हो गए। भगवान से कहा, 'भन्ते आपने किस नादान बालक को संन्यास दे दिया। उसे अभी तक श्रमणत्व की मर्यादा का भी बोध नहीं है।' भगवान ने कहा, 'भिक्षुओ, तुम जिस बालक की निंदा कर रहे हो, नहीं जानते हो कि वह बालक महान पद प्राप्त कर चुका है। सभी श्रमण चौंके कि भगवन् क्या कह रहे हैं। 'हाँ, तुम सभी उससे क्षमा-प्रार्थना करो क्योंकि अब वह वास्तविक अर्थ में अतिमुक्त हो चुका है। उसने कैवल्य उपार्जित कर लिया है। वह निर्वाण के महामार्ग पर परम ज्योति के रूप में रोशन हो चुका है । वह केवली हुआ, मुक्त हआ, 'णमो सिद्धाणं' उस सिद्ध को मेरे प्रणाम है। For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ इक साधे सब सधे ___ अपने मन को नई दिशा दी जाए, नए आयाम दिये जाएं, तो यही मन प्रकृति की ओर से मिला महान पुरस्कार साबित हो सकता है। मन को अध्यात्म की ओर मोड़ दिया जाए तो मन हमारे लिए अस्तित्व की ओर से मिला उपहार बन सकता है । यह मन जो अभी विचलित लौ की तरह डगमगा रहा है अगर उसमें आने वाली विचारों के झौंकों की हवा रुक जाए तो यह मन अकंप लौ की तरह सारे जीवन को प्रकाशित कर सकता है । हमारा मन हमारे लिए सहायक बन सकता है । हमने अभी तक बुद्धि को ही भरा है, बुद्धि का ही उपयोग किया है। मन को नहीं पढ़ाया, मन को नहीं समझाया, मन को नहीं समझा। यह हमारी आध्यात्मिक वंचना रही। मन को मारो मत, मन को जीतो। मन हमारा दुश्मन नहीं; मित्र है। उससे मंगल-मैत्री साधो। मन को अपना सहयोगी बनाओ। जब भी मन न लगे तो उसे ध्यान की ओर प्रवृत्त करो। ध्यान से ही मन लगाया जा सकता है। मन का लगना ही ध्यान है। मन की स्थिरता ही ध्यान है। मन का विसर्जन, मन का मिट जाना ही ध्यान है । मन की उछलकूद का, मन के बन्दर का शान्त हो जाना ही ध्यान है । जब मन स्थिर हो जाता है, अपने स्वभाव से हटकर हमारे अस्तित्व का सहकारी बन जाता है, तब वह मन नहीं रहता । अस्तित्व का मौन बन जाता है। मन अगर उदास हो जाए तो उसका भी स्वागत किया जाए। उदासी का भी आनन्द लो। जिस क्षण उदासी में भी आनन्द लेना शुरू करते हो, उसी क्षण अन्तर्घट में शान्त, सौम्य, सुन्दर मौन घटित होता है। ऐसा मौन क्षण जिसका द्रष्टा व्यक्ति स्वयं ही होता है। उस आनन्दपूर्ण मौन के लिए उदासी के भी कृतज्ञ बनो । उदासी के प्रति आभारी रहो जो जीवन में मौन का नया सूत्र देकर जाता है । यह मरघट-मन मंदिर का माधुर्य हो जाता है। जीवन में परिवर्तन तो होगा ही। बाह्य नहीं अपितु आंतरिक परिवर्तन । गृहस्थी छोड़ने के लिए नहीं कहता, गृहस्थ-संत होने के लिए कहता हँ । कीचड़ को काटने के लिए नहीं, कीचड़ में कमल हो जाने को कहता हूँ। धन, संसार को त्याग राम हो जाने के लिए नहीं कहता, बल्कि राजमहलों के For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षित्व के किनारे बीच रहते हुए भरत की तरह जीवन-यापन करने की बात कहता हूँ । हिमालय की गुफाओं में तो ब्रह्मचारी हो ही जाओगे, लेकिन उस ब्रह्मचर्य की आभा कितनी अनूठी होगी जो किसी कोशा वेश्या के यहाँ जाकर स्थूलिभद्र की तरह बेदाग लौटकर आता है | आग के पास जाकर तुम कितने शांत और सौम्य रह सकते हो, यही तुम्हारी परीक्षा है, तुम्हारी कसौटी है । गुफा ब्रह्मचारी का अभ्यास-स्थल है, नियन्त्रण-स्थल है; वेश्यालय ब्रह्मचारी की कसौटी है । सोना कितना कैरेट है, इसकी कसौटी वहीं होगी । मैं तुम्हें वेषधर साधु बनने को नहीं कहता। मैं चाहता हूँ तुम्हारा मन जरूर साधु बन जाए। हर व्यक्ति को वेश और बाने से साधु नहीं बनना है, केवल अपने अन्तर्मन को साधु बनाना है । साधुता को तो जीया जाता है । साधुता वेश और कपड़ों में नहीं रहती, साधुता तो अन्त:करण में रहती है 1 हमारी निजता में, सरलता में, सहिष्णुता और समता में रहती है । वह पुरुष धन्य है जो भीतर-बाहर दोनों दृष्टि से साधु है । बचपन में पाठ्य-पुस्तकों में एक श्लोक पढ़ा था. - ८७ शैले-शैलेन माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे- गजे । साधवो न हि सर्वत्र, चंदनं न वने वने । बहुत ही सत्य बात प्रतीत होती है। हर साधु साधु नहीं होता । हर शैल (पर्वत) माणिक्य से अभिमंडित नहीं होता, हर वन में चंदन के वृक्ष नहीं मिलते । हर व्यक्ति साधु होकर भी साधु नहीं होता, उसमें गृहस्थी के बीज रहते हैं और हर गृहस्थ भी गृहस्थ नहीं होता, उसमें भी कहीं साधुता विद्यमान होती है । मन को गृहस्थी का आयाम दो तो मन में तो गृहस्थी बस ही जाएगी और मन को संन्यास का आयाम दो तो मन संन्यासी हो जाएगा । 'आमी संन्यासी मुक्ति बलिया' - हम तो ऐसे संन्यासी हैं जो मुक्ति के पागल हैं । एक तो सांसारिक पागलपन है दूसरा मीरा, चैतन्य, सूर, तुलसी, कबीर का पागलपन है जो परमात्मा के द्वार पर पहुँचाता है । एक पागलपन में भटकाव है दूसरे में प्राप्ति है । एक में विकार और क्रोध है, दूसरे में प्रेम और श्रद्धा है । सिर्फ मन को दिशा देने की आवश्यकता है । स्वयं के गुरु बनें, स्वयं के मार्गदर्शक बनें । हम ही अपने को सुधार सकते हैं, नया आयाम दे सकते हैं 1 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे कब तक दूसरों के भरोसे मन को बदलाना चाहेंगे। जब तक आपका और मेरा नैकट्य बना है, अगर तभी तक का बदलाव घटित होता है तो यह अधिक मूल्यवान् नहीं है; क्योंकि मुझसे बाह्य दूरी आते ही आप पुन: अंधकार में चले जाते हैं, चले जाएंगे। आपकी स्वयं की सजगता और मूल्यवत्ता होनी ही चाहिए। मैं सहायक हो सकता हूँ पर स्वयं को रूपांतरित करने का दायित्व आपका स्वयं का है । दीये को ज्योतिर्मय रखने की जवाबदारी स्वयं आप पर है। बस, यह कर्त्तव्य निभता रहे, तो आप एक अपूर्व आनंद को जीएंगे। सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से अप्रभावित रहकर आनन्दित रहने की कला सीख जाएंगे। कचरा जन्मों-जन्मों का है, पर बुहारी तो लगानी ही पड़ेगी। जब बुहारी लगाएंगे तो कुछ धूल भी उड़ेगी, मन में उचाटपन भी महसूस होगा। जब ध्यान करोगे तब मन में यह कचरा उड़ेगा, मन नहीं लगेगा क्योंकि अभी तक हमने मन को सुन्दर बनाने का उपक्रम किया ही नहीं, अपने अन्तस् की स्वच्छता का कोई साहसिक अभियान छेड़ा ही नहीं, अपनी अन्त:करण की वीणा को झंकृत करने के लिए अंगुलियाँ चलाई ही नहीं। थोड़ी-सी असुविधा होगी। थोड़ा सजग-सचेष्ट होना होगा। लेकिन जैसे भोजन शरीर के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही ध्यान को जीवन का अनिवार्य अंग स्वीकार कर लो। ध्यान अमृत है, अमृत, जीवन है । ध्यान में समाविष्ट हो जाओ। चाहे मन की चिकित्सा हो, चाहे मन के विकार हों, चाहे मन की शांति हो या अंत:करण की पवित्रता, हमने हर दृष्टि से अब ऐसा मार्ग पा लिया है, जिसमें जब भी चाहा एक डुबकी लगा ली और पुन: कर्म में लग गए। मैं कर्म का, कार्य का विरोधी नहीं हूँ । कर्म करें लेकिन अन्तर्दृष्टिपूर्वक । होशपूर्वक कर्म, होशपूर्वक विचार । गृहस्थी के प्रति भी होश, जागरूकता और सजगता रहनी चाहिए। स्वयं को ऊपर उठाना होगा। साक्षित्व के किनारे बैठक लगानी होगी। मन को परिवर्तित करने की राह स्वीकार करो। मन को परिवर्तन का सूत्र दो। यह परिवर्तन का सूत्र है साक्षित्व के किनारे बैठना। साक्षित्व के किनारे बैठना ही मन को पहिचानने और मन को परिवर्तित करने का सूत्र है। ध्यान स्वयं को अवलोकित करने की प्रक्रिया है। अनुपयुक्त से बचकर For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षित्व के किनारे ८९ उपयुक्त में जीने की कला है। अपनी मन:स्थितियों को पहचानना ध्यान का पहला अनुभव है । अपने मन का शांत होना, मौन होना ध्यान का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण अनुभव है । ध्यान में होने वाली अनुभूतियों और भावदशा से स्वयं को ऊपर उठाओ तभी शायद तुरीय घट सकता है । ध्यान की सभी क्रियाएँ मन को आघात पहुँचाने के लिए हैं, मन को मौन बनाने के लिए हैं । मन के मौन होते ही, साक्षित्व के उतरते ही ध्यान की प्रक्रियाएँ महत्त्वहीन हो जाती हैं। तब एक ही प्रक्रिया होगी सुबह हो या शाम, दिन हो रात धीमे से आँख बंद की, सांस पर आए, मंद-मंद सांस पर ध्यान केन्द्रित हआ, साक्षित्व के किनारे बैठे, डूबे रहे । बस इतनी-सी प्रक्रिया होगी और ध्यान घटित हो जाएगा। लेकिन, जब तक अंगुलियाँ चलानी न आएं तब तक वीणा और अंगुलियों के बीच लयबद्धता लानी होगी। अभ्यास जोड़ना होगा। महावीर को जब परमज्ञान घटित हुआ वे एक नदी किनारे बैठे थे। नदी का नाम था ऋजुबालिका। यानी ऐसी नदी जो बालिका की तरह ऋजु, सरल, निश्छल रही। महावीर ऋजुबालिका नदी के किनारे बैठे थे – ऋजु आत्मन् होकर । और यह नदी किनारे बैठना एक बहुत बड़ा प्रतीक है । जिस तरह तीर्थंकर नदी किनारे बैठे हैं तुम भी अपने अन्तस्तल में चलने वाले बहाव से अलग होकर बैठो। यह नदी किनारे होना ही साक्षित्व के तट पर बैठना है। तब होश होता है । सजगता रहती है। एक मधु का प्याला छलकता रहता है। साक्षी-मन सुख की खान है, साक्षित्व सुख का सागर है, साक्षित्व अस्तित्व का अमृत है। साक्षित्व अध्यात्म की चाबी है, ध्यान का गुर है। साक्षी होने की कला हाथ लग जाये तो मुक्ति की 'की' हाथ लग गयी । साक्षित्व सम्यक्त्व का दाता है । साक्षी निरन्तर मुक्ति की ओर बढ़ रहा है, मुक्त हो रहा है । साक्षी के अभाव में जीवन महज मन की खटपट है; शरीर और मन का खेल है। कोई मुझसे पूछे कि महावीर कौन थे, बुद्ध कौन थे? मैं कहूँगा साक्षी थे। तीर्थंकरत्व और बुद्धत्व साक्षित्व के विकास हैं। चरम विकास ! महावीर चौदह वर्ष तक ध्यानरत रहे । साक्षी बने रहे। जो होता रहा, उससे निरपेक्ष रहे । जो होना था, सो होने दिया। नियति को, कर्म को परिणित होने दिया। खुद साक्षी रहे, द्रष्टा रहे, विनिर्मुक्त रहे । उनके लिए इतना काफी रहा। साक्षी For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे राग-विराग से ऊपर रहता है, वीतराग होता है । साक्षित्व को हम बीज मानें, ध्यान की त्रचा माने, अध्यात्म की आत्मा समझें। साक्षी-बोध के लिए सबसे पहले हम शरीर को देखते हैं । देह-द्रष्टा द्वारा देखते-देखते शरीर से तादात्म्य छूटने लगता है, लेकिन उसके प्रति सौम्यता आ जाती है। ऐसी सौम्यता कि शरीर हमारा साथ निभा सके। अभी हमारे शरीर में ऐसी कोई स्वस्थता-सरलता नहीं है कि वह हमारा साथ निभा सके। जब शरीर के साथ संतुलन स्थापित होता है तभी वह हमारा साथ निभाता है। माना अभी हमारे शरीर में पीड़ा है, तब इस शरीर में जो साक्षित्व देखा जाता है वही साक्षित्व उस पीड़ा में से आनन्द का अंकुर उत्पन्न करता है। यही अंकुर उस पीड़ा के साथ साम्यता लाता है । यह मेरा निजी अनुभव है। आत्मा तो एक है, लेकिन इस शरीर में रोग अनेक हैं। जब-जब भी हम उन रोगों के साक्षी होते हैं तो पाते हैं कि जैसे पहाड़ों में से झरने निकलते हैं वैसे ही उस व्याधि में से समाधि अंकुरित होती है। तन में व्याधि, मन में समाधि । शरीर की संवेदनाओं का, स्पर्श की अनुभूति का साक्षी होना अनंत की यात्रा की ओर कदम बढ़ाना है। पहले चरण में शरीर का साक्षित्व, दूसरे चरण में विचारों का साक्षित्व। अपने विचारों के प्रति सजगता, उनके प्रति होशपूर्ण होना । क्योंकि व्यक्ति स्वयं के विचारों से ही उद्विग्न है, व्यथित है । वह आत्महत्या भी करता है, तो विचारों से परेशान होकर । वह स्वयं के मन के कारण ही कठिनाई में फँसा है इसलिए विचारों के प्रति साक्षित्व। ध्यान की अवस्था में अपने भीतर चलने वाले ऊहापोह को, विचारों के यातायात को देखो । सजगता के आते ही वे विचार, विकल्प शांत हो जाएंगे। यह नहीं कहा जा सकता कि वे कब तक शांत रहेंगे, पर उनमें शांति तो आएगी। चौबीस घंटे निर्विकल्प नहीं रहा जा सकता, चौबीस घंटे निष्काम रह सकें यह भी संभव नहीं है । आखिर, शरीरगत अनुद्विग्नता चाहिये। मन का मौन चाहिये। मन का निर्वाण चाहिये। आखिर सबके शरीर के वीर्यकण इतने पवित्र नहीं हैं कि साधना पवित्रता की ऊंचाइयों को छू सके। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षित्व के किनारे इन दो चरणों के बाद व्यक्ति को अपनी भाव-दशाओं से ऊपर उठना होता है । कुछ ऐसी दशा जो भले ही गहरी हो, लेकिन अन्त:स्थल के शून्य में घटित होने वाले शून्य के अस्तित्व में पहुँचने के लिए उन भाव-दशाओं से भी ऊपर उठना होगा। विचारों का सम्बन्ध है मन से और भावदशा हृदय से सम्बन्धित है। शरीर से मन की ओर, मन से हृदय की ओर यात्रा करनी होगी। अन्तत: हृदय से भी पार होना होगा। जो अपने हृदय से भी पार लगता है उसके जीवन में मौन आनन्द होता है। ऐसा आनन्द जिसके होने का कोई कारण नहीं है । वह आनन्द जो दूसरे की उपस्थिति-अनुपस्थिति से अप्रभावित है। यह तो वह आनन्द है जो स्वयं से उपजा हुआ उपहार है । इसे तो प्रकृति भी हजारों आशीष के साथ देती है। इसे तो अस्तित्व अपने प्रेम और सत्य के साथ सौन्दर्य सहित आत्मा पर बरसाता है । मेरा तो अभी तक का जाना हुआ यही अनुभव है । और जब तक इसके पार के अनुभव नहीं होते तब तक जीवन के इन अज्ञात, अज्ञेय, मौन, अखूट भंडार में छिपे इन रहस्यों को जी लो। पी लो ! तब आपका जीवन दृश्य से स्वयं को अलग करेगा और नवीन जीवन का शुभारंभ होगा। आपके कदम अरूप की ओर होंगे। साक्षी पर तो आनन्द का अमृत झरता है। परिवेश और परिस्थितियाँ चाहे जो हों, पर वह उनका भी साक्षी ही होता है। साक्षी को परिस्थितियाँ क्या प्रभावित करेंगी। वह परिस्थितियों में सौम्यभाव से जीना और समायोजित होना जानता है। साक्षी मध्यस्थ है, स्थितप्रज्ञ है, तटस्थ है। साक्षी में तीनों का संगम है – बुद्ध की मध्यस्थता, कृष्ण की स्थितप्रज्ञता, महावीर की तटस्थता। साक्षी सबके बीच जाकर भी, सारी स्थितियों-परिस्थितियों से गुजरकर भी न-जीया जैसा है, न-गुजरा जैसा है। साक्षित्व वीतराग-जीवन जीने का आधार-सूत्र है। मैंने देखा है जो साक्षित्व के किनारे बैठता है, उसका अन्त:करण खुद-ब-खुद परिवर्तित होने लगता है। कहते हैं किसी नगर में एक चोर ने बहत उपद्रव मचा रखा था। राजा ने सैनिकों को आज्ञा दी कि चोर पकड़ कर दरबार में हाजिर किया जाए। चोर को पकड़ कर दरबार में लाया गया। राजा For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे ने चोर को नगर-निरीक्षक नियुक्त कर दिया। यही उसकी सज़ा थी कि वह चोरों से नगर की रक्षा करे । अब चोर ही अगर चौकीदारी करने लग जाए तो चोरी कैसे होगी? यही मैं भी कहता हूँ कि अपने मन के निरीक्षक तुम स्वयं बन जाओ। अपने मन को ही ध्यान में लगा दो तो मन कहाँ जाएगा? मैं कहता हूँ मन न लगे तो लगाओ ध्यान । मन न टिके तो टिकाओ ध्यान । मन में भटकन प्रतीत हो तो लगाओ ध्यान। मुझे प्रसन्नता है कि ध्यान की लौ उस समाज में लग रही है जो कुछ सूत्रों को पढ़-सुन लेना ही धर्म समझता था। हमारी नज़र उस प्रतिमा की ओर उठनी चाहिए जो अपनी पूजा का नहीं, ध्यान का संदेश देती है। वह प्रतिमा हमें मुक्ति और वीतरागता का संदेश दे रही है। और हम हैं कि धूप-दीप-फल-फूल ही चढ़ाए चले जा रहे हैं। बुद्ध की प्रतिमा देखो, उनका ऊपर की ओर उठा हुआ हाथ, जो केवल प्रेम और करुणा बरसा रहा है, वहाँ से अशेष आशीष उमड़ रहे हैं। हमारा ध्यान जीसस की प्रार्थना पर तो है, लेकिन उस ओर नहीं जिससे जीसस जीसस हए । जीसस का प्रेम पर ध्यान है। प्रेम को पाना है तो बिना ध्यान के उसे नहीं पा सकते । बिना ध्यान के प्रेम की परिभाषा ही नहीं समझ सकते । जीसस कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है । प्रेम है तो परमात्मा है; परमात्मा है तो प्रेम है। ध्यान का सूत्र समझो, चोर को चौकीदार बनाओ। इन इन्द्रियों की चौकसी होगी। मन और आत्मा भी इसके दायरे में आ जाएंगे। यह ध्यान का सुन्दर सूत्र हो सकता है। दुनिया के दरिये में, साक्षित्व के किनारे बैठना, बैठक बनाये रखना, मनोवृत्तियों, कर्मप्रकृतियों से ऊपर उठने का, उनसे मुक्त होने का श्रेष्ठतम गुर है । पलकों को विनत हो लेने दो, भीतर के मौन में उतरो, भीतर के हो जाओ। भीतर बैठा देवता आपसे मिलने को प्रतीक्षारत है। हम सब आएं, अपने में उतरें । अपने में हो लें । अपने हो जाएँ; आत्मवान् हो जाएँ। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर- मौन : मुक्ति की आत्मा [ संबोधि ध्यान-शिविर, अजमेर, १० - ६ - ९६, प्रश्न - समाधान ] सामायिक केवल अड़तालीस मिनट की ही क्यों होती है ? आप कहें तो बढ़ा दें (ठहाके) । आप ज्यादा टिके हुए नहीं रह सकते इसलिए लिमिट कर दी। मैं तो कहूँगा चौबीस घंटे सामायिक में रहो । जीवनभर सामायिक में रहो। वह सामायिक कैसी, जो अड़तालीस मिनट में पूरी हो जाए । अड़तालीस मिनट में अभ्यास होता है कि आप कितनी समता - शांति बनाए रख सकते हैं, आरम्भ - समारंभ से स्वयं को मुक्त रख सकते हैं । यहाँ जो अलग से आसन लगाकर बैठे हैं केवल वे ही सामायिक नहीं कर रहे हैं, बल्कि जो दरी पर बैठे हैं वे भी सामायिक कर रहे हैं। ये कितने शांत हैं, प्रसन्न - सौम्य । कोई लड़ाई नहीं कर रहे, इनकी भी सामायिक हो रही है । कई बार मौका आता है जब कहा - सुनी का वातावरण निर्मित होता है, For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ उस समय अगर आप दस मिनट भी सामायिक का भाव स्वीकार कर लेते हैं, तो वह इस अड़तालीस मिनट की सामायिक से श्रेष्ठ है । हर संध्या को प्रतिक्रमण कर लोगे लेकिन हर सुबह पाप से भरी हुई होती है । ऐसे ही जीवनभर केवल बैठक वाला प्रतिक्रमण करते चले जाओगे तो परिणाम कुछ नहीं मिलेगा । पाप की नींव पर पुण्य की दीवारें खड़ी नहीं की जा सकतीं । अड़तालीस मिनट का अनुबंध केवल उनके लिए है, जिनका चित्त चंचल है ताकि कुछ देर तो शांति रह सके। मैंने देखा है लोग हजारों सामायिक कर चुके हैं पर चित्त की उद्विग्नता यथावत् है । सामायिक तो चित्त की शांति का उपाय है, इसमें समय का अनुबंध महत्त्वहीन है । इक साधे सब सधे हमारे पड़ौस में एक सज्जन रहते थे। उनके बेटे हमेशा उनसे सामायिक करने का आग्रह किया करते थे । मैंने कहा अगर वे नहीं करना चाहते तो क्यों इतना जोर देते हो । उत्तर मिला, कम-से-कम अड़तालीस मिनट तो घर में शांति रहेगी । — नेत्रदान और रक्तदान करना क्या उचित है . I महानुभाव, आप किस दान को उचित समझते हैं । यदि अपने दिए गए रक्त से किसी की जान बच जाती हैं तो इससे बड़ा दान क्या होगा ! हमारी मृत देह जो जलाई जा रही है उसमें से दो आँखें निकालकर अगर किसी नेत्रहीन को लगा दी जाएँ और वह इस दुनिया को देखने के काबिल हो सकता है तो इससे बड़ा दान और क्या होगा ! मैं अधिक कुछ नहीं कहूँगा बस इतना ही कि अगर किसी को रक्त की आवश्यकता हो तो मेरे पास प्रेम से आइए और जितने रक्त की आवश्यकता हो मेरा स्वीकार कीजिएगा। एक बात का और संकेत दूंगा कि जिस दिन यह काया माटी हो जाए उस दिन केवल नेत्र ही नहीं इस काया में से जो अंश मानवता के काम आ सकें जरूर निकलवाइएगा, मानवता को प्रदान कीजिएगा, इससे चन्द्रप्रभ धन्य होगा । (तालियाँ) | For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा 'एकला चलो रे' वाली स्थिति कब उचित है, क्या साथ में चलो रे वाली स्थिति ही सदैव उचित है? 'एकला चलो रे' रवीन्द्रनाथ टैगौर की दी हुई एक सुंदर पंक्ति है, लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं पूँज सकता । प्रकृति में कोई भी वस्तु स्वयं में परिपूर्ण नहीं है। हम सभी एक-दूसरे के परिपूरक हैं। कोई ऐसा आयाम हो सकता है जिसमें मेरी पहुँच अधिक हो और कोई आयाम ऐसा हो सकता है, जिसमें आपकी पहँच ज्यादा हो । क्यों न हम अपने साथ ‘साथ चलो रे' वाला सूत्र अपना लें जिससे एक-दूसरे की योग्यताओं का अधिकाधिक उपयोग कर मानवता की सेवा कर सकें। साधना का परिणाम एकान्तवास नहीं, अपितु एकान्त से निष्पन्न मानवता की सेवा है । मुझे अपने एकाकीपन का बोध है, लेकिन इस एकाकीपन के साथ जितनी औरों की सेवा की जा सके, जरूर की जानी चाहिए। सेवा भी एक आनन्द है। ___ हमें साथ चलना चाहिए। लेकिन ऐसा महसूस हो कि जिनके साथ हम जी रहे हैं हमारे संत्रास और बढ़ते जाते हैं तो उनसे स्वयं को ऊपर करो, निर्लिप्त करो। साथ देने वाला अगर परा सहभागी मालम नहीं पड़े तो भी चिन्ता मत करो। अंधेरी रात में पूनम का चाँद न मिले तो तारों से ही काम चलाएंगे। अंधेरे से तो अच्छा है । इसके बावजूद तारे भी काम न दें तो अपने दिल का दीपक जलाएंगे और उसी की रोशनी में आगे बढ़ते जाएंगे। तुम्हारे लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले सहयोगी मिलते हों, तो ‘संग चलो रे' वाली नीति अपनाना । आखिर मन की बात करने वाला भी चाहियेगा। एक-दूसरे को प्रोत्साहन देने वाला भी चाहिये। तुम कभी फिसलते से लगो, तो सहयोगी तुम्हें थाम ले। एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना, साथी हाथ बढ़ाना । For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ और अगर लगे कि जिनके साथ जी रहे हो, वे केवल भारभूत हैं, छातीकूटा लगते हैं, तुम्हारे मार्ग के बाधक हैं, तो एकला चलो रे की नीति को जीवन में चरितार्थ कर लेना । अपने स्वयं के सहयोगी, स्वयं के गुरु स्वयं बन जाना और जैसा कि बुद्ध ने कहा अप्प दीवो भव, तुम अपने दीप स्वयं ही बन जाना । इक साधे सब सधे पूज्यवर महाराज सा, आप कहते हैं मैं किसी का गुरु नहीं कोई मेरा शिष्य नहीं, दीक्षा दी नहीं जाती, ली नहीं जाती सिर्फ घटित होती है, फिर सद्गुरु क्या करते हैं ? एक प्रश्न और : शक्तिपात जरूरी है ? यह जानते हुए कि शक्तिपात स्थाई नहीं है हमारी रुचि इसमें क्यों रहती है ? क्या Grace (प्रसाद) पूर्ण नहीं ? दीक्षा के तीन रूप हैं : एक, जो दी जाती है; दूसरी, जो ली जाती है और तीसरी जो घटित होती है । तीनों क्रमश:, उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । दीक्षा का घटित होना जीवन की सबसे बड़ी क्रान्ति है । जीवन में पहला सबसे बड़ा चमत्कार है । घटित हुई दीक्षा जीवन को अध्यात्म का, चेतना का, प्रज्ञा और प्रतिभा का, ऊर्ध्वारोहण का, साक्षात्कार और विकास का मौलिक आधार देती है । दीक्षा, जो दी जाती है, वह तो कोई भी दे दिया करता है । देने वाला कितना योग्य है, स्वयं उपलब्ध है या नहीं, इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता । ऐसे दीक्षा-दाता दिनरात संसार की, जीवन की क्षणभंगुरता और दुःख - बहुलता के उपदेश देते रहते हैं, कई लोग उनकी बातों से प्रभावित भी हो जाते हैं और इस तरह वे दीक्षित हो जाते हैं । स्वयं बुद्ध ने अपने भाई तक को ऐसी ही दीक्षा दे दी थी। बुद्ध ने दीक्षा लेने को कहा, भाई सम्मान और लज्जावश इन्कार न कर सका और दीक्षित हो गया। कहने को दीक्षा जरूर हो गई, पर बेचारा भीतर-ही-भीतर जलता रहा । मन में संसार सुगबुगाता रहा । मन काम की ओर गतिशील बना रहा । For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा कई गुरुजन, भले ही उनमें शिष्य होने की भी योग्यता है या नहीं, पता नहीं, पर गुरु का ओहदा पाने के लिए दीक्षा का वातावरण बना ही डालते हैं । मेरी समझ से, अगर तुम जिस चीज की दीक्षा दे रहे हो, उसे तुम स्वयं ही उपलब्ध नहीं हो, तो अंधा अंधे का मार्गदर्शन न करे । तुम बगैर शिष्य के ही गुरु हुए सही, पर किसी के साथ नाइंसाफी तो नहीं होगी। उसकी श्रद्धा तो विचलित और विखंडित नहीं होगी। लोग मन्त्र-दीक्षा देते हैं, कान में कोई मन्त्र सुनाकर उसे अपना शिष्य घोषित कर देते हैं। कान में मन्त्र फूंकने से कोई जीवन बदला है? __ मैं देखता हूँ संत लोग किसी के घर जाते हैं और जबरदस्ती उसे कोई संकल्प दिला देते हैं। कोरे संकल्प देने से, नियम में बाँध लेने भर से मन से उस चीज को निकाला जा सकता है? प्रगट में तुम भले ही छुड़ा दो, अप्रकट में तो, भीतर उसकी जाजम बिछी रही होगी। मन में तो मकड़जाल बरकरार रहेगा। मेरे जाने, दीक्षा देने की बजाय, दीक्षा का दूसरा चरण घटित हो सके, दीक्षा ली जाये । स्वत: दीक्षा स्वीकार की जाये। जो दीक्षा आत्म-प्रेरित होती है, स्वयं की भावना से जो दीक्षा स्वीकार की जाती है, संकल्प स्वीकार किया जाता है, वह कामयाबी का द्वार खोल लेगा। स्वयं की भावना उसमें मुख्य होती है। यह पूर्वापेक्षा श्रेष्ठ है। मैं घटित दीक्षा को इसलिए महत्त्व देता हूँ क्योंकि केवल संकल्प से जीवन रूपान्तरित नहीं होता । संकल्प से हम प्रवृत्ति से बच जाएंगे, पर वृत्ति फिर भी बरकरार रहेगी। वृत्तियों से तुम्हारा संघर्ष जारी रहेगा। दीक्षा का तीसरा रूप है उसका घटित होना – जैसे रत्नावली और तुलसीदास के बीच घटित हुआ । रत्ना के दो शब्द एक जीवित शास्त्र का काम कर गये और तुलसी की मूछित चेतना पलट ही गई। कोई गुरु :नहीं, फिर भी घटित हुई। पत्नी की आँख से दो आँसू, स्नान करते धन्ना के कंधे पर पड़े। धन्ना चौंका; उसकी पत्नी और रोये ! पत्नी ने कहा, मेरा भाई संन्यास लेने जा रहा है । उसके बत्तीस रानियाँ हैं, रोज एक-एक का त्याग किया जा रहा है । धन्ना ने कहा, ऐसे कोई त्याग होता है ! मन में पत्नी का भाव बचा हुआ है, सो एक-एक For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ कर छोड़ रहा है । नपुंसकता है यह ! पत्नी ने कहा, मुँह से ऐसा कहना सरल है, कोई करके दिखाए तो पता चले। और तत्क्षण दीक्षा घटित हो गई । धन्ना खड़ा ही हो गया । क्षण में जीवन बदल गया । दृष्टि बदल गई । भाव बदल गया । धन्ना धन्य हो गया । इक साधे सब सधे भर्तृहरि, वाल्मीकि जैसे लोग ऐसे ही बदले । उनकी दीक्षा को मैं हृदय-परिवर्तन की संज्ञा दूंगा। यह परिवर्तन ही दीक्षा की आत्मा है । तुम कुछ बदले नहीं; तुम्हारी अन्तर्दृष्टि खुली नहीं, लेश्याएँ निर्मल हुई नहीं; अन्तश्चक्र सक्रिय हुए नहीं, तो उसे तुम दीक्षा भले कह दो, वह दीक्षा बस, दीक्षा का व्यवहार भर है । 1 तुम्हारे जीवन का असली गुरु वह, जिससे तुम बदले, तुम ऊँचे उठे । फिर चाहे वह व्यक्ति कोई भी क्यों न हो । आकाश में उड़ता पक्षी भी तुम्हारा गुरु हो सकता है और सागर में उठती लहर भी तुम्हारी गुरु हो सकती है । मैंने तो पत्तों पर भी खिलावट की ऋचाएँ पढ़ी हैं, चिड़ियों की चहचहाट में भी आयतें सुनी हैं, आकाश के शून्य में भी अपनी अभीप्सा को जगते और तृप्त होते हुए पाया हैं । गुरुत्व के सूत्र प्रकृति के कोने-दर- कोने में बिखरे पड़े हैं । जिससे तुम कुछ सीख गये, हो गये, बदल गये, वही तुम्हारा गुरु । हर्मन हैस का उपन्यास 'सिद्धार्थ' बड़ा प्रीतिकार लगा । बुद्धत्व का फूल कहाँ-कैसे जाकर खिल जाता है, कहा नहीं जा सकता । दीक्षा स्वयं एक चमत्कार है, बस, घटित होनी चाहिये । “आप कहते हैं कि मैं किसी का गुरु नहीं, कोई मेरा शिष्य नहीं ।" सभी आत्मवान् बने, मेरे पास आने वाले के प्रति मेरा यही दृष्टिकोण रहता है 1 शिष्य वह बनाता है, जिसे या तो अपनी जमात बढ़ानी हो, या अपना नाम फैलाना हो या अपनी सेवा करवानी हो; मेरी सेवा की व्यवस्था प्रकृति स्वयं करती है। मुझे किसी से सेवा थोड़ी, करवानी है । अगर मैं कभी किसी की सेवा ले लूँ, तो यह महज सामने वाले के आत्म- प्रमोद के लिए । मैंने उसे इनकार नहीं कर रखा है, महामार्ग पर स्वीकार कर रखा है, बस इसलिए सेवा स्वीकार कर लेता हूँ । शेष तो जिसने अपने आपको ही परम शून्य को समर्पित For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा कर दिया है, कर्त्तव्य-कर्म सब उसके, उसके लिए, उसे गुरु-शिष्य की श्रृंखला में क्यों डाला जाये । मेरे लिए तुम एक आत्मा हो, मेरा प्यार और भाव उस आत्मा के लिए ही है, शेष तुम मुझे जैसा, जिस रूप में, मानना चाहो, तुम्हारी मौज ! ___ पूछते हो, 'फिर सद्गुरु क्या करते हैं?' सद्गुरु तुम्हारे भीतर-बाहर जो होना है, उसका ध्यान रखते हैं। तुम्हारी माटी को दीया बनाते हैं और अपनी बाती और ज्योति के संस्पर्श से तुम्हारी बाती को सींचते रहते हैं। तुम्हारे भीतर जो है, उसका जन्म तो स्वत: होगा, सद्गुरु उसे जन्म देने में तुम्हारी मदद करते हैं। सद्गुरु यानी सम्यक् गुरु, अच्छे गुरु । गुरु यानी अंधकार को दूर करने वाला । गुरु यानी प्रकाश-पुंज और सद्गुरु यानी सम्यक् प्रकाश-पुंज । राह में चलते राहगीर के लिए जो काम प्रकाश करता है, वही सद्गुरु करता है। प्रश्न का अगला चरण है : “क्या शक्तिपात जरूरी है?"यह बात तुम्हें किस महापुरुष ने समझा दी है । तुम समझदार हो, समझ के मार्ग से चलो। शक्तिपात की तृष्णा और मनोकामना को मन में पालना, किसी सांसारिक तृष्णा से कम नहीं है। सहज में ऐसी घटना घट जाये, तो आनन्दपूर्वक उसे हो जाने देना। यह तुम्हारे लिए शुभ अवश्य है, गुरु और शिष्य के बीच संबन्ध बनाने के लिए यह अच्छी पहल है, पर ऐसा नहीं है कि बगैर शक्तिपात साधना का बीजारोपण और पल्लवन नहीं होता। सच है। और फिर शक्तिपात तो महज बीजारोपण ही है। अभिसिंचन तो तुम्हें करना पड़ेगा। तुम उसमें प्रमाद खा जाओ, तो शक्तिपात, बीजारोपण फलदायी नहीं हो पायेगा। और फिर, शक्तिपात हर किसी पर थोड़े ही किया जाता है। इसके लिए गुरु का तो सशक्त होना जरूरी है ही, शिष्य का भी कुलयोगी होना आवश्यक है। शक्तिपात के मायने हैं तुम्हारी क्षमता गुरु ने पहचानी, तुम्हारी भवितव्यता और पात्रता को गुरु की ज्ञान-दृष्टि ने देखा और गुरु ने अपने दिव्यत्व का, अपनी साधना का तुम्हारे विकास के लिए उपयोग किया। एक कुर्बानी दी। और इसके बदले में शिष्य अपने आपको गुरु के प्रति कुर्बान करता है । यह कुर्बानी कभी व्यर्थ नहीं जाती। 'समय पाय For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे तरुवर फले' – यथासमय सब फलित होता है। शक्तिपात का प्रभाव, सदा बना हुआ रहता है। तुम अगर मार्ग से च्युत भी हो गए, तब भी प्रदत्त और प्राप्त शक्ति तुम्हें प्रेरित और आन्दोलित करती रहेगी। भले ही भ्रष्ट भी क्यों न हो जाओ, पर जिस श्रद्धा ने तुम्हें ऊँचाई के धरातल पर खड़ा किया था, वह तुम्हें वापस सम्हाल लेगी। तुमने सहजता को असहजता से लिया, इसलिए ऐसा हुआ। 'शक्ति' से तुम विमुख हुए। तुम पूछते हो, “शक्तिपात में हमारी रुचि क्यों रहती है ?" इसलिए कि 'हम चट मँगनी पट शादी' की नीति में विश्वास रखते हैं। समय और श्रम होता नहीं, झट परिणाम चाहते हैं । हम कर्त्तव्यमुखी नहीं, परिणाम को पाने के प्रति जल्दबाजी रखते हैं । “क्या ग्रेस पर्याप्त नहीं।"ग्रेस पर्याप्त है, ग्रेस हमारी श्रद्धा का, भावना का परिणाम है । ग्रेस तो बरस रहा है, हम ही ठंडे हैं तो क्या किया जाये। हम बुद्धि में उलझे हैं, तर्क-वितर्क में घुट रहे हैं, तो ग्रेस कैसे ग्रहण हो। ग्रेस बरसता है उन पर जो हृदय के स्वामी हुए। हृदयवान् प्रसाद-भाव में ही जीता है । ग्रेस बरसा यानी तुम डूबे । तुम नृत्यमय हो उठे। तुम निमज्जित हुए। बूंद सागर में समा गयी। ग्रेस पर्याप्त है, प्रसाद पूर्ण है। ग्रेस बरस रहा है, तुम ग्रहण करो । तुम्हारी खुमारी, तुम्हारी डुबकी ही ग्रेस को ग्रहण कर सकती है। प्रसाद कभी भी घटित हो सकता है, स्नान करते वक्त भी, सब्जी सुधारते वक्त भी, भोजन करते वक्त भी, गीत गाते हुए भी, संगीत सुनते-बजाते हुए भी, ध्यान करते हुए भी, किसी भी काम को करते हुए, किसी भी क्षण। तुम हर काम को बड़े भावपूर्वक, बड़े ध्यानपूर्वक, बड़े डूबे हुए, समग्रता से करो, ग्रेस तुम पर बरसेगा। ग्रेस तुम्हारे लिए पूर्ण होगा। मेरे जाने, शक्तिपात से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है ग्रेस/प्रसाद । रिमझिम-रिमझिम बरसे नूरा नूर जहूर सदा भरपूरा । 'चट मँगनी, पट शादी' की दृष्टि छोड़ो । डूबो, और उबरो । डूबना ही उबरना होगा। उधर डाल पर बैठा पंछी पिऊ-पिऊ बोल रहा है। उसी में डूबा For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर- मौन : मुक्ति की आत्मा I है । उसका पिऊ, उसका प्रिय आ ही रहा होगा। इस दौरान प्रसाद बरस रहा है । अहोभाव के फूल खिलने दो, आनन्द के निर्झर बह लेने दो । हर क्षण तुम्हारे लिए उपहार है । मन के जंजाल में उलझे रहे, तो ये उपहार ठुकराए जाते रहेंगे। तुम प्रसाद से वंचित रहोगे । हृदय को, आँखों को, जीवन को अहोभाव से भर जाने दो। रोम-रोम अहोभाव की झंकार हो जाए ! अहोभाव का मधुरिम चाँद खिला हुआ है, तो प्रसाद का समुद्र बूँद में उतरा हुआ ही लगेगा । बूँद समुद्र में, और समुद्र बूँद में । हमारा अहोभाव, हमारा प्रेमभाव ही अनुग्रह के फूलों को स्वीकार कर पाता है । पूर्ण को पाने के लिए हमें पूर्ण में निमज्जित होना होगा । १०१ ग्रेस पूर्ण है, पर्याप्त है । तन्मयता चाहिये, अहोभाव चाहिये । मुग्ध, आनन्द-दशा चाहिये परम पूज्य महाराज सा, जब हम किसी ध्यान में उतरे हुए व्यक्ति को क्रोध करते देखते हैं या उसमें अन्य किसी भी प्रकार की रुक्षता पाते हैं तो उसके ध्यानी होने पर संदेह होने लगता है । क्योंकि ध्यान तो जहाँ तक हमारा विचार है निर्मलता और सरलता देता है, व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है आप क्या कहेंगे ? 1 ध्यान निश्चय ही निर्मलता और सरलता देता है। ध्यान तुम्हारे वज्र हृदय को सुकुमार बनाता है । वह एक ओर से निवृत्ति कराता है और दूसरी ओर प्रवृत्ति करवाता है । असद् वृत्तियों से, संसार के कीचड़ से, भीतर के दलदल से तुम्हें ऊपर उठाता है । जल में कमल का रूप दे ही देता है, मुक्ति की पाँख खोल ही देता है। जीवन में स्वस्तिकर द्वारों को खोलना ही ध्यान का कार्य है । ध्यान मनुष्य के स्वभाव से ही सीधे रूबरू होता है । स्वभाव किसी का तय नहीं होता । क्षण में क्रोध, क्षण में मुस्कान । अभी प्रेम, अभी नफरत । स्वभाव तो व्यक्ति का जैसा भी है, उसके अतीत के संस्कारों का जमा हुआ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ इक साधे सब सधे रूप है । संस्कार की धारा जैसी होगी, स्वभाव उसी रूप में व्यक्त हो जाएगा। जानवरों का स्वभाव फिर भी निर्धारित होता है, पर आदमी अपने-आपको जैसा बनाना चाहे, वैसा बना सकता है। वह चाहे, और प्रयास करे तो अपने बुरे स्वभाव को बदल सकता है । ध्यान स्वभावगत परिवर्तन के लिए एक बेहतरीन औषधि है। ध्यान का पहला काम है बुरे स्वभाव से अच्छे स्वभाव में बदलना और दूसरा काम है व्यक्ति को स्वभाव से ही मुक्त कर देना। स्वभाव यानी आदत । आदतें चाहे अच्छी ही क्यों न हों, आदत तो आदत ही है। आदत से ही मुक्ति चाहिये। ध्यान तो तुम्हें सहजता देता है। सहजता और सजगता ही ध्यान के आधार हैं। ध्यान तो फूल की तरह खिलता है । फूल से सुवास प्रगट होती है । फूल सुवास देने के लिए नहीं खिला है। वह खिला है और उससे सुवास फैल रही है, यह उसकी सहजता है। और फिर, किसी के द्वारा बरती जाने वाली रुक्षता के कारण तुम उसके ध्यानी होने पर संदेह नहीं कर सकते। उसकी रुक्षता का कारण ध्यान नहीं, वरन् कुछ और है। हो सकता है वह अपने लिए एकान्त की भूमि बनाये रखने के लिए औरों को अपने से न जोड़ रहा हो। मानवता का रूप काफी विकृत हुआ है । व्यक्ति अगर अपने प्रति जागरूक न रहे, तो यह दुनिया उसके जीवन-धन को लूट ही ले जाए। सम्भव है, ऐसी कोई घटना घट गयी हो कि आदमी सतर्कता के लिए भी ऐसा व्यवहार कर सकता है। साधक शान्ति में जीता है। चूँकि उसमें शांति के स्वर पूरी तरह मुखरित नहीं हुए हैं, इसलिए वह बाहर का वातावरण शान्त-सौम्य चाहता है। वह तुम्हारे असद्-व्यवहार को सह जाएगा, तुम्हारी ओर से निर्मित की जा रही अशान्ति और प्रतिकूल परिस्थितियों को भी सह जाएगा, किन्तु जब उसे अपनी शांति पर, आत्म-गौरव पर कुठाराघात होता नजर आएगा, तो वह स्पष्ट शब्दों में तुम्हें बोल सकता है। उसका ऐसा बोलना किसी को क्रोध या रूक्षता लग सकता है, पर वह अव्यवस्था, प्रतिस्पर्धा और फिजूल की उठापटक को पसंद नहीं करेगा। For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर-मौन : मुक्ति की आत्मा अब, अगर कोई ध्यान करता है तो इसका मतलब यह नहीं कि भगवान हो चुका है, सर्वार्थ सिद्ध हो चुका है। उससे भी चूक हो सकती है 1 वह अपने स्वभाव को बदलने के लिए प्रयासरत हो, पर भीतर की वृत्तियाँ, संस्कार की धारा इतनी प्रगाढ़ हो कि ध्यान के रूप में उसके द्वारा किया जा रहा पुरुषार्थ उस प्रगाढ़ता के सामने पूरा सशक्त नहीं हो पा रहा हो। धीरे-धीरे स्वभाव भी बदलेगा । ध्यान भी आखिर कोई जादुई छड़ी नहीं है कि ध्यान में जीने लगे और तुम उसे हर दृष्टि से 'परफेक्ट' देखना चाहो । १०३ और फिर ध्यानी अपने आपको अच्छे-बुरे की तुम्हारी दृष्टि से क्यों बाँधे, अपने अच्छे-बुरे होने का मूल्यांकन तुमसे ही क्यों करवाए। तुम्हारा क्या भरोसा, आज जो तुम्हें अच्छा लग रहा है, कल वही बुरा लगने लगे । ध्यान में रुचि रखने वाला स्वयं को बदलने के लिए, स्वय के उद्धार के लिए ही ध्यान को जी रहा है । तुम उसके प्रति संदेह करो या श्रद्धा, इससे उसे क्या सरोकार | उसने ध्यान के धरातल पर कदम रखा है, कदम जमा है, कदम-दर-कदम चलना भी सीखा है घर वालों को चाहिये, मित्रों को चाहिये कि वे उसका सहयोग करें, उसका स्वागत करें, उसे प्रोत्साहन दें । | ध्यान मनुष्य में सत्य-बोध और समझ का विकास करता है । उस समझ से ही स्वभाव में परिवर्तन होता है। ध्यान एक पूर्ण मार्ग है, पर कभी-कभी कोई पूर्ण मार्ग भी किसी के लिए पूर्ण नहीं बन पाता । पूर्ण मार्ग और भी हैं। जब किसी एक पूर्ण मार्ग से पूर्णता न मिले, तो अन्य पूर्ण मार्गों का सहयोग भी ले लो । मुखिये के साथ सहयोगियों को भी ले लो । एक अकेला राजा काफी है, पर कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जिनमें दूसरे अनुचरों का, सहयोगियों, मन्त्रियों का भी सहयोग और परामर्श लेना पड़ता है। ध्यान को तुम जीओ | पतंजलि यम-नियम पर जोर देते हैं, ये सहयोगी मार्ग हैं। इनका इस्तेमाल करो । लोग तुम्हारे प्रति क्या दृष्टिकोण रखते हैं, इसकी परवाह मत करो । तुम अपने प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते हो, यह महत्त्वपूर्ण है । I तू तो राम सुमिर For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ इक साधे सब सधे जग लड़वा दे। हाथी चलत है अपनी गति से कुतर भुंसत, वां को भुंसवा दे। तू तो राम सुमिर जग लड़वा दे। तुम्हें तो बस आनंदित रहना है, प्रसन्न रहना है, मस्त रहना है - जीवन की हर धूप में, हर छाँव में । परिवर्तन स्वत: होता जाएगा, आत्म-विजय स्वत: होती रहेगी। असत्य का प्रतिकार करने में, सच का स्वीकार और समर्थन करने में कोई तुम पर संदेह करे, परवाह नहीं। लोग समझते ही नहीं कि ध्यानी के किस व्यवहार में, किस शब्द में, क्या रहस्य छिपा हुआ है। लोग तुम पर भले ही संशय करे, तुम नि:संशय रहो । नि:संशय होकर आगे बढ़ो। धीरज धरो, ध्यान के फूल, ध्यान की समझ विकसित करने का यह व्यावहारिक मन्त्र है, कीमिया है। परम पुरुष प्रभु सद्गुरु .... हों वंदन अगणित । प्रभुश्री कोरा कागज भेजूं कि आँखों में पूछु, यह-वह क्या पूछु ? या मौन प्रतीक्षा करूँ? अहोभाव पूर्ण नमन ! – मीरा अतिसुंदर ! आपका प्रश्न, प्रश्न नहीं, हृदय की उत्कंठा है, मौन का मुखरित होना है, अहोभाव और आनंद से टपके आँसुओं की बूंद है । पूछने को तो सारे ही लोग प्रश्न पूछ रहे हैं, तुम तो प्रश्न के पार हो प्रभु ! प्रश्नोत्तर मनोमस्तिष्क की संतुष्टि के लिए हैं। आखिर तुम कुछ भी पूछोगे, सत्य के बारे में ही पूछोगे। मैं जो कुछ कहूँगा सत्य के संबंध में ही कहूँगा। सत्य को कहा नहीं जा सकता । सत्य तो बस, है । सत्य के बारे में कहना या सत्य के संबंध में कुछ कहना सत्य के सागर के ऊपर-ऊपर ही तैरना हुआ। तुम मुझे कोरा कागज भेजो, तब भी मैं तुम्हारे हृदय को पढूंगा। औरों से मैं कुछ कहूँ भी, पर तुम्हें मैं जो पढ़ने के लिए दूंगा, वह कोरा कागज For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर- मौन : मुक्ति की आत्मा ही होगा। कोरा कागज ही तो होना है। आकाश को देखो तो अन्तर्घट में आकाश उतरने लगेगा। कोरे कागज को पढ़ो, तो कोरे कागज-सा ही चित्त उभरेगा। लिखने के नाम पर तो बहुत कुछ लिखा गया । लिखे और छ हुए को तो पढ़कर आदमी केवल तोता रटंत पंडित ही हो रहा । ज्ञान का विकास कहाँ हो रहा है? समझ का सूत्रपात कहाँ हुआ है ? ज्ञान और समझ की सुवास जीवन और उसके वातावरण को सुवासित करे तो ही जीवन के लिए उनकी उपयोगिता है । “कोरा कागज भेजूं कि आँखों में पूछूं” ? आँखों में पूछो, तो तुम्हारी बात में और ज्यादा दम होगा; उस प्रश्न में अपना एक परिपाक होगा; उसमें हृदय की एक गहरी भावभरी सघनता होगी । जब तुम मुझे आँखों में पूछोगे, तो मैं तुम्हें आँखों से ही जवाब दूंगा। वो, जवाब पाने से अधिक, वाणी से अधिक गहरा होगा । भाषा और वाणी की तो अपनी सीमा है । आँखों की भाषा और अधिक सक्षम हैं । जहाँ भाषा हार जाती है, वहाँ आँख कुछ कहने में, कुछ बोलने में अपने आपको समर्थ पाती है । आखिर आँखों की अपनी भाषा । आँखों में तो पूरा आकाश ही साकार है । आँख की भाषा शून्य की भाषा है; आँख की भाषा मौन की भाषा है; आँख की भाषा अन्तर् - आत्मा की भाषा है । आँख को पढ़कर हृदय को पढ़ लिया जाता है । आखिर जो हृदय में होता है, वही आँख में उभरता है I 1 १०५ 1 हृदय सौम्य हो, तो आँख भी सौम्य होगी । मैं ही क्यों, कोई भी, आँख के जरिये किसी के हृदय को पढ़ सकता है । तुम संदेह - रहित और निर्विकार-भाव से किसी की आँख में देखो, तुम उसके अन्तर्मन को पढ़ ही जाओगे | “यह वह क्या पूछूं या मौन प्रतीक्षा करूं ? " पूछने की अगर तरंग उठती हो, तो पूछ ही लो । चित्त निस्तरंग होता जाये, तो प्रश्न स्वत: ही तिरोहित होते चले जाएंगे। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होने से तुम्हें समाधान मिल जायेगा, वरन् यह कहूँगा कि तुम स्वयं ही समाधान हो जाओगे । तुम पूछते हो 'क्या मौन प्रतीक्षा करूं ? ' प्रतीक्षा की जरूरत ही नहीं है, मौन ही काफी है । बीज तो बोया ही जा चुका है, ध्यान में रहे, ध्यान जारी रहे । केवल सजगता का 1 For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ इक साधे सब सधे आनंदमुग्ध सिंचन चाहिये, तरुवर स्वत: फलता है, फल और फूल स्वत: खिलते हैं। संत बोधिधर्म ने यह जानने के लिए कि उसके शिष्यों में सत्य की कितनी पहुँच हुई है, अपने सभी शिष्यों को एकत्र किया और पूछा। एक शिष्य ने कहा कि सत्य के बारे में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह है और यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह नहीं है। स्वीकार-अस्वीकार के पार है सत्य का स्वरूप। बोधिधर्म ने एक रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा – वत्स, तुम्हारे पास मेरी त्वचा है। दूसरे शिष्य ने कहा – सत्य अन्तर्दृष्टि है, जिसे पाने के बाद खोया नहीं जा सकता। गुरु ने कहा – तुम्हारे पास मेरा माँस है । तीसरे ने कहा – पंचभूत और पंचस्कंध – दोनों ही और दोनों से उत्पन्न सारे तत्त्व ही नश्वर और क्षणभंगुर हैं । सब कुछ शून्य है। यह शून्यता ही सत्य है । बोधिधर्म ने कहा – पुत्र, तुम्हारे पास मेरी अस्थियाँ हैं । और अन्त में वह खड़ा हुआ जो हकीकत में जानता था। उसने सद्गुरु के चरणों में अपना सिर रखा, मौनपूर्वक प्रणाम किया और वापस अपने आसन पर जाकर बैठ गया। बोधिधर्म ने देखा, वह चुप था और उसकी आँखें शून्य थीं। बोधिधर्म खड़े हुए। शिष्य के पाय गये, मुस्कराए, उसे अपने गले लगाया, साधुवाद देने के भाव से उसका माथा चूमा और जवाब में इतना ही कह पाये साधुवाद बेटे, साधुवाद ! तुम्हारे पास मेरी आत्मा है। इतना पर्याप्त है। For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ ASPBEANIRRIAGRAMMADHEADMASARDH AADynamARAN | संबोधि-ध्यान-शिविर, प्रभात-सत्र, समय : लगभग सवा घंटा] यान-शिविर सामूहिक प्रयोग होते हुए भी हर व्यक्ति के लिए निजी प्रयोगशाला है । एकाधिक लोगों द्वारा सम्मिलित प्रयास इसलिए किया जा रहा है, ताकि एक-दूसरे का आभामंडल उन्हें भी प्रभावित और तरंगित करे, जो अन्तर्यात्रा के लिए पूरी तरह उत्सुक नहीं हैं। एक-दूसरे को आगे बढ़ते हुए देखकर हमें भी आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिलता है । शारीरिक शुद्धि और सहज स्फूर्ति के लिए स्नान अवश्य कर लें । उज्ज्वलता के प्रतीक स्वरूप श्वेत वस्त्र पहनें तो ज्यादा उपयोगी है । हल्का पीला अथवा गुलाबी रंग भी हमारी भाव-स्थिति को सुकून देता है । श्वेत रंग पवित्रता और आध्यात्मिकता का प्रतीक है, पीला रंग बोधि और निवाण का द्योतक है। उल्लास, उत्सव और अहोभाव का प्रतीक गुलाबी रंग है। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ इक साधे सब सधे भाव-शुद्धि प्रार्थना १० मिनट सभी साधक पंक्तिबद्ध बैठ जाएँ, एक दूसरे से पाँच फीट की दूरी बनाए रखें । करबद्ध होकर 'नमस्कार-महामंत्र' का तीन बार सस्वर पाठ करें। नमस्कार महामंत्र णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं एसो पंच णमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवई मंगलं ।* ध्यान-भावना की समृद्धि के लिए अब हम भावपूर्वक जीवन-गीत गाएँ। जीवन-गीत का भावार्थ हृदय में उतारते हुए सस्वर पाठ करने से आध्यात्मिक संकल्प और अहोभाव का विकास होता है, ध्यान में उतरने की भावनात्मक भूमिका निर्मित होती है। जीवन-गीत मानव स्वयं एक मंदिर है, तीर्थ रूप है धरती सारी। मूरत प्रभु की सभी ठौर है, अन्तर्दृष्टि खुले हमारी ।। * भावार्थ : अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुजनों को नमस्कार हो। यह पंच नमस्कार समस्त पापों का नाश करने वाला और सर्व मंगलों में प्रथम मंगल-रूप है। For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग विधि- १ योगाभ्यास जीवन का सम्मान करें हम, जीवन में भगवान् निहारें । रूपांतरित करें जीवन को जीवन को ही स्वर्ग बनाएँ । मन- मंदिर में, मानवता के सम्बोधि का दीप जलाएँ । अन्तर्-शून्य उजागर करके, आनन्द- अमृत से भर जाएँ ॥ भीतर की नीरवता पाकर, ध्यान - प्रेम की बीन बजाएँ । अपने मन की परम शान्ति को, सारी धरती पर सरसाएँ ॥ शरीर शुद्धि - १५ मिनट योगाभ्यास शारीरिक और मानसिक तनाव - मुक्ति के लिए सहज-सरल उपयोगी क्रियाएँ हैं । ध्यान में उतरने के लिए दो बातें सहायक हैं १. शारीरिक जड़ता की समाप्ति । . २. शारीरिक स्थिरता की प्राप्ति । १०९ ध्यान-मार्ग पर पहले-पहल कदम बढ़ाने वालों का न केवल चित्त चंचल होता है, वरन् उनमें शारीरिक स्थिरता और स्वस्थता का भी अभाव होता है । ध्यान की गहराई में जाने की बजाय तंद्रा में डूब जाने की संभावना रहती है 1 शरीर माध्यम है और माध्यम का स्वस्थ, निर्मल और अनुकूल होना आवश्यक है। ध्यान की प्रारंभिक अवस्था में दैनंदिन अभ्यास के लिए For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० इक साधे सब सधे सबह-शाम दोनों समय लगभग एक घंटे एक ही आसन में तनाव-रहित स्थिरतापूर्वक बैठने की क्षमता साधक में होनी वांछित है । यह तभी संभव है जब हमारे शरीर के अंग-प्रत्यंग में पर्याप्त लोच हो, कोई जकड़न न हो, स्नायविक शांति हो और शरीर के जोड़ों तथा नस-नाड़ियों में दूषित वायु आदि का अन्य विकार अवरुद्ध न हो । प्राणवायु के आगमन, दूषित वायु के निर्गमन एवं रक्त-संचार में कोई बाधा न हो, क्योंकि ये ही हमारे संजीवनी-शक्ति के संचार के माध्यम हैं। अत: ध्यान से पहले सुबह थोड़ा योगाभ्यास करना लाभदायक है। योगाभ्यास को हम निम्न पाँच चरणों में पूरा करेंगे - १. संधि-संचालन ३ मिनट २. स्थिर दौड़ २ मिनट ३. योगासन ३ मिनट ४. योगचक्र ४ मिनट ५. शवासन ३ मिनट १. संधि-संचालन शरीर में मुख्य रूप से गर्दन, कंधे, कोहनी, कलाई, कमर, घुटने, टखने, अंगुलियों के जोड़ -ये संधि-स्थल हैं। दैनंदिन क्रिया-कलापों में इन संधि-स्थलों के अनियमित उपयोग के कारण इनमें जकड़न पैदा हो जाती है, जो शारीरिक स्थिरता और स्वस्थता में बाधक है। इन संधि-स्थलों के मुक्त संचालन के लिए हम निम्न व्यायाम करें (क) पद-संधि संचालन : नीचे बैठ जाएँ। दोनों पैरों को सामने की तरफ फैला लें। हाथों को घुटनों पर रखें। रीढ़ की हड्डी और गर्दन सीधी हो । पैर के पंजों को मिलाकर तीन-तीन बार आगे-पीछे झुकाएँ । तत्पश्चात् दोनों पंजों को तीन बार दाहिनी ओर से बायीं ओर तथा तीन बार बायीं ओर से दाहिनी ओर गोल घुमाएँ। For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ १११ (ख) हस्त-संधि संचालन : हाथों को जमीन के समानान्तर सामने की तरफ फैलाएँ। हथेलियों और अंगुलियों को पूरा खोलें। अब अंगुलियों के प्रत्येक जोड़ पर जोर डालते हुए , मुट्ठियाँ कसते हुए सीने की तरफ ले जाएँ। मुट्ठियाँ खोलते हुए पुन: हाथ फैलाएँ । तीन-तीन बार इस क्रिया को दोहराएँ। हाथों को पूर्ववत् फैला रहने दें । मुट्ठियाँ बंद करें । कलाई के जोड़ों को धीरे-धीरे गोल घुमाएँ । तीन बार दाहिनी तरफ से, तीन बार बायीं तरफ से । ध्यान रहे, हाथ सीधे रहें। (ग) स्कंध-संचालन : हाथों को कोहनी से मोड़कर अंगुलियों की अंजलि-सी बनाकर कंधों पर रखें और कोहनियों के साथ कंधों के जोड़ों को तीन बार आगे से पीछे की ओर तथा तीन बार पीछे से आगे की ओर गोलाकार घुमाएँ । ध्यान रहे कि इस पूरी प्रक्रिया में अंगुलियाँ कंधों पर रखी रहें । (घ) गर्दन-संचालन : गर्दन-संचालन क्रिया के तीन चरण हैं :- पहले चरण में साँस भरें, गर्दन को सामने की तरफ झुकाकर ठुड्डी को कंठ-कूप से लगाने का प्रयास करें । फिर धीरे-धीरे साँस छोड़ते हुए गर्दन पीछे की तरफ ले जाएँ और सिर का पिछला हिस्सा पीठ से लगाने का प्रयास करें। तीन बार आगे-पीछे इस क्रिया को दोहराएँ। द्वितीय चरण में गर्दन को बारी-बारी से तीन-तीन बार दायें-बायें घुमाएँ। तृतीय चरण में गर्दन को पूरा गोल घुमाएँ । तीन बार दाहिनी तरफ से घुमाने के उपरांत तीन बार बायीं तरफ से इसी तरह गोल घुमाएँ। इस क्रिया को सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे करें। गर्दन में कोई झटका/जर्क न आने पाए। (ड) कटि-संधि संचालन : यह कमर एवं रीढ़ का व्यायाम है । खड़े हो जाएँ। इसे दो चरणों में पूरा किया जाता है। पहले चरण में पैरों को परस्पर For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ इक साधे सब सधे जोडे रखें। दोनों हथेलियों को कमरबंध पर रख लें और फिर कमर के निचले हिस्से को तीन बार दायीं ओर से तथा तीन बार बायीं ओर से गोलाकार घुमाएँ। दूसरे चरण में पाँवों के बीच डेढ़ फुट की दूरी रखते हुए हाथों को पंखों की तरह फैला दें और शरीर के ऊपरी हिस्से को क्रमश: दायीं और बायीं ओर से पीछे की तरफ मोड़ें। ध्यान रहे शरीर का नीचे का भाग स्थिर रहे। २. स्थिर दौड़ शरीर के आलस, प्रमाद और तमस् को मिटाने के लिए स्थिर/खड़ी दौड़ की जाती है। इसे पारम्परिक शब्दावली में कदमताल कहते हैं और प्रचलित भाषा में जोगिंग। इससे शरीर में स्फूर्ति और ऊर्जा का संचार होता है। इसके लिए अपने आसन पर ही खड़े-खड़े दौड़ लगाएँ। धीरे-धीरे गति बढ़ाएँ और धीरे-धीरे कम करें। ध्यान रहे पाँवों की पिंडलियाँ जंघाओं से स्पर्श करें। अब हम सुगमतापूर्वक कुछ योगासन कर सकते हैं । ३. योगासन योगासनों में शरीर की प्रत्येक यौगिक क्रिया को सहजता और तन्मयता से किया जाता है और पूरी प्रक्रिया में श्वास-प्रश्वास पर ध्यान केंद्रित रखा जाता है । हम निम्न योगासन संपादित करें - (क) अर्द्ध-कटि चक्रासन– पाँवों को एक-दूसरे से सटाकर सावधान-मुद्रा में खड़े हो जाएँ । साँस भरते हुए दायीं बाँह ऊपर उठाएँ । कंधे की सीध पर हाथ के आते ही हथेली को ऊपर की ओर मोड़ें। फिर बाँह को ऊपर उठाते हुए कान से चिपका लें। ऊपर खिंचाव दें। अब धीरे-धीरे कमर से बायीं ओर झुकें । बायीं हथेली को बायें पैर के घुटने से जितना नीचे संभव हो, ले जाएँ । झुकते हुए साँस छोड़ें। ध्यान रहे कोहनी और घुटने मुड़ने नहीं For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ ११३ चाहिए । सामान्य रूप से साँस लेते हुए अपने सामर्थ्य के अनुसार आसन की स्थिति में रहें, फिर धीरे-धीरे साँस भरते हुए सीधे हों, दायाँ हाथ नीचे ले आएँ । अब यही क्रिया बायीं ओर से दायीं ओर झुककर करें। पूरे आसन के दौरान रक्त-प्रवाह में आते परिवर्तन पर ध्यान रखें। यह आसन रीढ़ को स्वस्थ और लचीला बनाता है, पाचन-क्रिया को सुधारता है, स्नायुओं को सक्रिय करता है। (ख) त्रिकोणासन : सीधे खड़े हो जाएँ। दोनों पैरों के बीच लगभग एक मीटर की दूरी रखें। दोनों हाथों को कंधों के समानान्तर दायें-बायें फैलाएँ । साँस भरें । साँस छोड़ते हए धीरे-धीरे सामने झुकते हए दायें हाथ से बायें पाँव के अंगूठे को स्पर्श करें। बायां हाथ ऊपर आसमान की ओर उठेगा। गर्दन को ऊपर की ओर घुमाते हुए दृष्टि को बायें हाथ की हथेली पर स्थिर करें। सामान्य साँस लेते हए सामर्थ्य भर आसन की स्थिति में रुकें। घुटने नहीं मुड़ने चाहिए। धीरे-धीरे सामान्य स्थिति में आ जाएँ। फिर इसे बायीं तरफ से दोहराएँ। यह आसन जाँघ, पीठ, पेट और पैर के तलुओं की मांस-पेशियों के लिए उत्तम व्यायाम है । मधुमेह, किडनी, लीवर और आमाशय के रोगों पर इससे नियन्त्रण होता है । सम्पूर्ण देह में ऊर्जा और स्फूर्ति का संचार होता है। ४. योग-चक्र योग-चक्र सर्वांग व्यायाम है। यह बारह आसनों और योग-मुद्राओं की एक क्रमबद्ध श्रृंखला है। इसे पारम्परिक शब्दावली में 'सूर्य-नमस्कार' कहते हैं। इसके दैनिक अभ्यास से शारीरिक जड़ता मिटती है। शरीर स्वस्थ, बलिष्ठ और कांतिमय होता है, पाचनशक्ति का विकास होता है, रक्त एवं प्राण का संचार सुचारु होता है ; साथ ही मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों का विकास होता है और आंतरिक पवित्रता बढ़ती है। आवेश और विकल्पों में शिथिलता आती है। आत्मिक तेजस्विता से पूर्ण आभामंडल का विकास होता है। साहस, निडरता और आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है। यह प्रक्रिया For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ इक साधे सब सधे प्रात:कालीन ध्यान से पूर्व की जाती है । विधि : सूर्य अथवा अपने इष्ट की ओर मुँह करके 'नमस्कार-मुद्रा' में खड़े हो जाएँ । हृदय में पूर्ण समर्पण-भाव जाग्रत करते हुए ज्योति-स्वरूप परमात्मा को प्रणाम करें और अग्रलिखित मन्त्र तीन बार उच्चारित करें - तमसो मा ज्योतिर्गमय। असतो मा सद्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय ।* तत्पश्चात् योगचक्र की एक-एक मुद्रा सम्पादित करें। पहली मुद्रा : हस्त-उत्तान आसन साँस भरते हुए दोनों हाथों को ऊपर की ओर उठाएँ । भुजाएँ कान से लगी हुई हों । जितना हो सके, हाथ और सिर को पीछे की ओर झुकाएँ। दूसरी मुद्रा : पादहस्तासन साँस छोड़ते हुए धीरे-धीरे आगे की ओर झुकें। हाथ को पैरों के पास जमीन पर रखने का प्रयास करें। सिर को घुटनों से लगाएँ । घुटनों को सीधा रखें, घुटने मुड़ने न पाएँ । ध्यान रखें जितना झुक सकें, उतना ही झुकें, जबरदस्ती न करें। तीसरी मुद्रा : अश्व-संचालन-आसन हाथों को जमीन पर ही रखें । साँस भरते हुए दायें पैर को पीछे की ओर ले जाएँ और घुटनों को जमीन का आधार दें। बायें पाँव की जंघा को पिंडली से जोड़ें । बायाँ पाँव दोनों हथेलियों के बीच हो । दृष्टि ऊपर की ओर हो । बैठक को नीचे की ओर दबाव दें। * भावार्थ : हे प्रभु,ले चलो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर। For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग विधि- १ चौथी मुद्रा : तुला- आसन तीसरी मुद्रा बायाँ पैर जो आगे रहा, उसे पीछे फैलाकर दायें पैर के पास ले लाएँ और हाथ-पाँव के बल शरीर को सीधा रखें- झुकी हुई तराजू की तरह । ११५ पाँचवीं मुद्रा : शशांक- आसन पंजों और घुटनों के बल वज्रासन में बैठ जाएँ हाथ जमीन से लगे रहेंगे। सिर दोनों हाथों के मध्य रहेगा तथा ललाट भूमि पर । दोनों नितम्ब एड़ियों पर टिके रहेंगे । छठी मुद्रा : साष्टांग प्रणाम- आसन पेट के बल उल्टा लेट जाएँ, हाथ सीधे सामने की ओर रखें । शरीर पूरा ढीला रखें। गर्दन को सीधा करें, ललाट जमीन से स्पर्श हो और प्रणाम-भाव के साथ तीन गहरी साँस लें । सातवीं मुद्रा : भुजंगासन दोनों हथेलियों को पसलियों के पास धरती पर टिकाकर कन्धे और नाभि के हिस्से को साँस भरते हुए ऊपर की ओर उठाएँ - नागफन की तरह आठवीं मुद्रा : धनुरासन जमीन पर उल्टा लेट जाएँ। पैरों को घुटने से कमर की ओर मोड़ें । हाथों से पैरों को टखनों के पास पकड़ें। शरीर को दोनों ओर से भीतर खींचने का प्रयास करें। सिर ऊपर की ओर उठाएँ । * नौवीं मुद्रा : पर्वतासन साँस छोड़ते हुए हथेलियों को सामने फैलाकर जमीन पर रखें। पैरों को सीधा करें । कमर को धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठाएँ । हाथ और पाँव के * सातवीं मुद्रा में भुजंगासन, आठवीं मुद्रा में पर्वतासन और नौवीं मुद्रा में शशांक- आसन भी मान्य हैं । For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ इक साधे सब सधे बल पर्वताकार में स्थिर हों । एड़ियों को जमीन पर लगाने का प्रयास करें । दसवीं मुद्रा : अश्व-संचालन-आसन __यद्यपि यह तीसरी मुद्रा की पुनरावृत्ति है, किन्तु इसमें दायाँ पैर दोनों हाथों के बीच रहेगा और बायाँ पैर पीछे की ओर फैला हुआ। ग्यारहवीं मुद्रा : पाद-हस्तासन - यह दूसरी मुद्रा की स्थिति है । पाँव के अंगूठे से हाथ की अंगुलियाँ स्पर्श करें और सिर घुटनों को। बारहवीं मुद्रा : हस्त-उत्तान आसन साँस भरते हुए धीरे-धीरे सीधे खड़े हों, हाथों को आसमान की ओर उठाकर पहली मुद्रा संपन्न करें। नमस्कार-मुद्रा में खड़े हों। परमात्मा का स्मरण करें और हाथों की अंगुलियों को कमल की पंखुड़ियों की तरह फैलाएँ। बड़े प्रेम और अहोभाव के साथ यह श्रद्धा-सुमन परम पिता परमात्मा को समर्पित करें। ५. शवासन आसनों के बाद शवासन किया जाना चाहिए। यह योगाभ्यास की पूर्णाहुति है। पीठ के बल चित लेट जाएँ। गर्दन अपनी सुविधानुसार दायें या बायें निढाल छोड़ दें। पैरों के बीच एक फुट की दूरी हो। जाँघों, पिंडलियों और पंजों में कोई तनाव न रहे । दोनों हाथों को शरीर से थोड़ा दूर रखें। हथेलियाँ आसमान की ओर खुली हुई हों । आँखें बंद। शरीर से अपनी पकड़ को छोड़ें। पूरे शरीर को मानसिक रूप से देखें। शरीर के कौन-कौन से अंग विशेष तनावग्रस्त हैं, उन्हें देखें, अनुभव करें और ढीला छोड़ें। शिथिलता का अनुभव करें । अब पैर के अंगूठे से प्रारम्भ कर सिर के बालों तक, चित्त को एक-एक अंग पर स्थिर करें और उसे तनाव-मुक्ति का सुझाव दें । जैसे - For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ ____ ११७ ११७ दायें पैर का अंगूठा तनाव-मुक्त हो जाये। तनाव-मुक्त हो रहा है। तनाव-मुक्त हो गया है । (शिथिलीकरण अवश्य करें) प्रत्येक अंग पर ध्यान केन्द्रित कर इसी सुझाव को दोहराएँ। ऐसा अनुभव करें कि हम शरीर नहीं, शरीर से भिन्न चेतन-सत्ता हैं । शरीर से हमारा तादात्म्य छूट चुका है। शरीर को शव की तरह अपने से अलग पड़ा हुआ देखें । साँस की गति को भी स्वसूचन द्वारा शिथिल और मंद करें । कुछ क्षण साँस को पूर्णत: बाहर ही रोके रहें अर्थात् साँस छोड़कर फिर साँस न लें। पूर्ण शिथिलता का, विश्राम का अनुभव करें। यथाशक्ति कुछ देर इसी स्थिति में रुककर धीरे-धीरे गहरी लंबी साँस भरें। पूरे शरीर पर अपनी चैतन्य-दृष्टि दौड़ाएँ और साँस के साथ शरीर में प्रवेश करें । शरीर के प्रत्येक अंग में चेतना का संचार करें। धीरे-धीरे हाथ-पैरों को हिलाएँ । बायीं करवट लेकर धीरे से उठकर बैठ जाएँ। विशेष - शवासन कभी भी किया जा सकता है। जब कभी हम तनावग्रस्त या थके हुए हों, तुरंत पाँच-दस मिनट के लिए शवासन करें । तनाव और थकान से अवश्य छुटकारा मिलेगा। अनिद्रा और उच्च रक्तचाप के समाधान में यह बहुत ही सहायक है। चित्त को शांत कर ध्यान लगाने में उपयोगी है। शिविर के दिनों में स्व-सूचन का, आत्म-निर्देशन का अच्छी तरह अभ्यास कर लें ताकि घर जाकर भी इसे स्वत: कर सकें। प्रत्येक संकेत बड़े प्यार भरे कोमल स्वर में दें। आज्ञापक या आदेशात्मक शब्दों का उपयोग न करें। प्राण-शुद्धि प्राणायाम ५ मिनट आसनों के बाद क्रम आता है प्राणायाम का। हमारा जीवन प्राण-शक्ति से संचालित है। 'प्राण' मन, वाणी और कर्म की सम्पादन-शक्ति For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ इक साधे सब सधे का पर्याय है। प्राण-शक्ति जितनी स्वस्थ, शुद्ध और संतुलित होगी, हमारा चिंतन-मनन और रहन-सहन भी उतना ही स्वस्थ, शुद्ध और संतुलित होगा। प्राण-तत्त्व आत्मा और शरीर का सेतु है ।मनुष्य चौबीस घंटे में लगभग पचीस हजार श्वासोच्छ्वास लेता है। प्राणायाम का मूल उद्देश्य है प्राण को विस्तार देना। हमारी प्राण-शक्ति सध जाए तो श्वास-प्रश्वास की गति घटकर प्रतिदिन लगभग आठ-दस हजार तक लाई जा सकती है, जिसका अर्थ है- अपेक्षाकृत अधिक शांत, आनन्दमय और दीर्घ जीवन । प्राणायाम इस प्राण-शक्ति को साधने का प्रयोग है। हमारा श्वास-प्रश्वास स्वत: जैसा चल रहा है, उसके प्रति हमारी कोई सजगता-सचेतनता नहीं है । कई तरह की अच्छी-बुरी संवेदनाओं का मन पर प्रभाव पड़ता है, जिससे प्राणधारा असंतुलित हो जाती है। प्राणधारा के इस विचलन को समाप्त कर पुन: संयमित, संतुलित करना ही प्राणायाम है। इससे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों से मुक्त होने में मदद मिलती है। प्राणायाम स्वस्थ, सुन्दर और सुदीर्घ जीवन की कुंजी है। यह भटकती हुई मनोवृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित करने का उपक्रम है। प्राणायाम के कई भेदोपभेद हैं, लेकिन ध्यान-साधना के लिए सर्वाधिक उपयोगी नाड़ी-शुद्धि प्राणायाम है, जिसकी विधि इस प्रकार है विधि : सुखासन में बैठे । प्राणायाम करने के लिए हाथ की नासिका मुद्रा बनाएँ । तर्जनी और मध्यमा अंगुली को हथेली की तरफ मोड़ दें। अंगूठा और अनामिका तथा कनिष्ठा अंगुली खुली रहे । दायीं नासिका को बन्द करने के लिए अंगूठे का और बायीं नासिका को बन्द करने के लिए कनिष्ठा और अनामिका अंगुली का प्रयोग करें । बाएँ से साँस भरें, दायें से छोड़ दें। फिर दायें से सांस भरें, बायें से छोड़ दें। रेचक का समय पूरक से कम-से-कम दो गुना या इसके गुणनफल में हो अर्थात् साँस छोड़ने का समय साँस भरने के समय से दो गुना अथवा ज्यादा हो। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ ११९ यह नाड़ी-शुद्धि का एक चक्र है, इसे नौ बार दोहराएँ। साँस भरते हुए उसकी शीतलता और छोड़ते हुए ऊष्मा का अनुभव करें। खाली पेट, शौच से निवृत्त होकर सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के पश्चात् इसका अभ्यास करें । जो लोग योगाभ्यास के लिए समय न निकाल पाएँ, वे नाड़ी-शोधन प्राणायाम अवश्य ही कर लें। लाभ : तीन से छह माह के निरन्तर एवं मनोयोग पूर्ण अभ्यास से इसके लाभ प्रत्यक्ष होने लगते हैं। शरीर हल्का एवं कान्तिमय हो जाता है। आँखों की चमक विकसित होती है। भूख बढ़ती है । शारीरिक एवं मानसिक एकाग्रता का विकास होता है । चित्त की चंचलता और कषायों का शमन होता है। ज्ञान-शक्ति, मेधा, प्रतिभा का प्रस्फुटन होता है। शरीर के मोह से मुक्त होकर चैतन्य अनुभव होता है। चैतन्य-ध्यान ४५ मिनट प्रार्थना, आसन, प्राणायाम के अभ्यास से ध्यान में उतरने की भूमिका बन जाती है। शरीर की जड़ता एवं मन की तंद्रिलता समाप्त होकर प्रफुल्लता का विकास होता है। हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर अभिमुख हुए। इस भाव-भूमि पर ध्यान का अवतरण सहज संभव है। अत: अब साधकों को प्रात:कालीन ध्यान की साधना करनी चाहिए। चैतन्य-ध्यान में प्राणायाम, ओंकार मंत्र और आत्म-सजगता का सम्मिश्रित आधार देते हुए अन्तर्यात्रा की जाती है । चैतन्य-ध्यान एक प्रकार से ‘ओंकार-ध्यान' है । ओंकार बीज-मन्त्र के द्वारा अन्तर्मन की एकाग्रता, स्वच्छता और चैतन्य-जागरण ही चैतन्य-ध्यान का ध्येय है। चैतन्य-ध्यान के पाँच चरण हैं - १ - ओंकारनाद २ - सहज स्मृति ३ - अन्तर्यात्रा ७ मिनट १० मिनट १० मिनट For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० इक साधे सब सधे ४ - अन्तर्मन्थन ५ - चैतन्य-बोध ३ मिनट १० मिनट सर्वप्रथम ध्यान के लिए सुविधाजनक आसन (बैठने की मुद्रा) का चयन करें, जिसमें हम लगभग ४५ मिनट स्थिरता से सुखपूर्वक बैठ सकते हों। पद्मासन, सिद्धासन, वज्रासन, सुखासन ध्यान के लिए उपयुक्त हैं। सिद्धासन विशेष अनुकूल रहता है । खड़े होकर भी ध्यान किया जा सकता है। जिन्हें तंद्रा अधिक सताती हो, उन्हें खड़े होकर ही ध्यान करना चाहिए। अस्वस्थता आदि अपरिहार्य स्थितियों में लेटकर भी ध्यान किया जा सकता है, पर इसे आदत नहीं बनाना चाहिए। उपयुक्त आसन का चुनाव कर सहज स्थिर बैठें। पूरे शरीर का मानसिक निरीक्षण कर यह जांचें कि शरीर के किसी भाग में तनाव या जकड़न शेष है? मानसिक निर्देश से उस अंग के तनाव को शिथिल करें। आंतरिक प्रसन्नता को खिलने दें । नेत्र बन्द करें । अंतरदृष्टि से गुरुदर्शन करते हुए ध्यान का संकल्प लें और चैतन्य-ध्यान में प्रवेश करें। किसी भी कार्य में प्रवृत्त होने से पूर्व संकल्प पूर्व-भूमिका का काम करता है । संकल्प हमें लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है । इसके लिए जरूरी है कि संकल्प दृढ़ हो, संकल्प का सदा स्मरण रहे, एवं संकल्प को क्रियान्वित करें। यह संकल्प वास्तव में ध्यान की दीक्षा है । सद्गुरु के चरणों में बैठकर दीक्षित होने के पश्चात् ध्यानमार्ग में प्रवृत्त हुआ जाता है, क्योंकि यही गुरु और साधक के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। 'शरण-सूत्र' बोलकर उपसंपदा स्वीकार करें - शरण-सूत्र अरिहंते सरणं पवज्जामि। सिद्धे सरणं पवज्जामि। साहू सरणं पवज्जामि। For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ १२१ धम्मं सरणं पवज्जामि। अप्पं सरणं पवज्जामि ॥* प्रथम चरण : ओंकारनाद गहरी साँस भरें । नाभि पर ध्यान केन्द्रित कर ओम् का उच्चार करें । एक बार उद्घोष, फिर तीन बार सहज साँस, फिर उद्घोष । ओंकारनाद की प्रक्रिया में ध्यान नाभि/शक्ति-केन्द्र से प्रारंभ होकर ऊपर उठता हुआ क्रमश: हृदय, कंठ, नासिका मूल, भृकुटि , ललाट से गुजरता हुआ शिखा/सहस्रार तक जाए। प्रत्येक स्तर पर ओंकार ध्वनि के वर्तुल प्रकंपनों को अनुभव करने का प्रयास करें । नाभि, हृदय, कंठ, कान एवं कपाल पर ओम् की अनुगूंज को सुनने का प्रयास करें। निरन्तर अभ्यास से जैसे-जैसे इंद्रियाँ अंतर्मुखी होने लगती हैं, प्रकम्पनों की सूक्ष्म संवेदनाओं को ग्रहण करने की क्षमता विकसित हो जाती है। नाद के प्रति अपनी सजगता बनाए रखें । नाभि, हृदय और कंठ से गुजरते हए 'ओ' एवं भृकुटि-मध्य, ललाट और कपाल पर 'म्' का नाद होना चाहिए। अपने होश को पूरी तरह नाद के साथ जोड़ने पर ही यह संभव होगा। इसलिए पूर्ण सजगता, जागरूकता अत्यंत आवश्यक है। इस तरह साँस भरते-छोड़ते हुए पाँच बार सस्वर ओंकारनाद करें। शनै:-शनै: ओंकारनाद को यथासंभव अधिक-से-अधिक लंबा और गहरा करने का प्रयास करें । पाँच बार इस रीति से ओंकारनाद संपन्न होने पर दो बार उच्च स्वर में ओंकार का उद्घोष करें। ओम् की पराध्वनि और उसके प्रकंपनों के प्रति अपनी सजगता और बढ़ाएँ । इस तरह ओंकार का पाँच बार सामान्य और दो बार तीव्र स्वर से उद्घोष करने के उपरान्त ओम् की अनुगूंज प्रारंभ करें। अनुगूंज ओंकारनाद का दूसरा चरण है । होंठ बन्द हों । जीभ अचल हो । केवल अंदर-ही-अंदर ओम् का गुंजारण करें। इस अनुगूंज को नासामूल/भृकृटि मध्य पर अनुभव करें और चेतना की गहराई में उतरने दें। बाहर की किसी भी ध्वनि पर ध्यान न दें, केवल अनुगूंज पर ही अपनी पूरी चेतना केन्द्रित करें। * भावार्थ : अरिहंत, सिद्ध, साधु, धर्म और आत्मा की शरण स्वीकार करता हूँ। For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ इक साधे सब सधे अनुगूंज भी पहले पाँच बार सामान्य स्वर में और अंत में दो बार उच्च एवं तीव्र स्वर में संपन्न कर एकदम मौन, शांत हो जाएँ। अभी कुछ समय तक ध्वनि के प्रकंपन अनुभव होंगे। अपनी सजगता को पूरी तरह अनुगूंज के प्रकंपनों पर केन्द्रित करें। नाद की परा-तरंगें जब शरीर की प्रतिरोधिगामिनी तरंगों से एकलय होती हैं, तो शरीर में शांति प्रकट होने लगती है, यही प्रथम चरण की पृष्ठ भूमि है । द्वितीय चरण : सहज स्मृति इस चरण में अंदर-ही-अंदर ओम् का मानसिक जाप करते हैं । जाप में निरन्तरता और लयबद्धता होनी चाहिए, अत: ओम् में स्मरण को सहज साँस के साथ जोड़ें। एक साँस में एक बार ओम् का मानसिक जाप करें। ओम् को ही अपने चिंतन का केन्द्र बनाएँ। कोई शारीरिक संवेदना, मानसिक विकल्प, विचार उभरें, तो उन पर ध्यान न दें, न ही उन्हें उठने से रोकें । उन्हें अपना काम करने दें पर स्वयं को उनसे पृथक अनुभव करते हुए केवल ओम् पर चित्त को एकाग्र करें । दस मिनट तक इसी तरह एकाग्रचित्त होकर प्रत्येक सहज साँस के साथ निरन्तर ओम् का स्मरण पूरी समग्रता और गहराई से जारी रखें । भृकुटि मध्य पर प्रकाशमय उज्ज्वल ओम् की आकृति देखें । मस्तिष्क को ओम् की आवृत्तियों से भर जाने दें। इस द्वितीय चरण में मन का कोलाहल शांत होना शुरू होता है और साधक के लिए आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का निर्माण होता है। तृतीय चरण : अन्तर्यात्रा तृतीय चरण में ओम् के स्मरण के साथ श्वास की गति मंद से मंदतर करनी है। साँस धीमी हो और सहयात्री हो ओम् । इस चरण में अन्तर्मन के साथ ओम् की सहयात्रा होती है। द्वितीय चरण की तरह एक साँस के साथ एक ओम् की आवृत्ति जारी रहे, लेकिन अब सहज सांस के स्थान पर मंद साँस हो अर्थात् साँस की गति कम होती जाए। प्रत्येक साँस पर ओम् पूरी तरह फैला हुआ हो । एक भी साँस For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ १२३ बिना ओम् को साथ लिए न आए, न जाए। लगभग पाँच मिनट तक ओम् की मंद साँस के साथ सहयात्रा जारी रहे । सहयात्रा का प्रथम भाग इस तरह संपन्न हुआ। अब साँसों की मंदगति बरकरार रखते हुए साँसों की गहराई बढ़ाएँ । साँसों के स्पन्दन ठेठ नाभि के नीचे तक भी अनुभव करें और ओम् को इस गहराई में उतारें । गहरी दीर्घ साँसों के साथ ओम् का गहरा स्मरण लगातार पाँच मिनट तक जारी रहे। इस चरण में ओम् अवचेतन मन में स्वत: उतरने लगता है एवं शरीर के विभिन्न चेतना-केन्द्र सक्रिय निर्मल होते हैं। चतुर्थ चरण : अन्तर-मंथन अब श्वास-प्रश्वास को तीव्रता प्रदान करें। धीरे-धीरे साँसों की गति बढ़ाएँ और प्रत्येक साँस के साथ ओम् का गहन स्मरण करें। साँसों की गति निरन्तर बढ़ाते चले जाएँ और उतनी ही तीव्र गति से ओम् की आवृत्ति भी । ओम् और साँस, साँस और ओम् । अपने एक-एक अणु, एक-एक रोम, एक-एक स्नायु को साँसों के द्वारा ओम् की चेतना से जाग्रत करें । अनुभव करें, मानस में इस दृश्य को साकार करें कि हमारा कण-कण शुभ्र प्रकाश से चमकने लगा है और हमारे अन्तर्मन के कषाय और विकार साँस के माध्यम से तीव्र गति से बाहर फैंके जा रहे हैं। तीव्र श्वास-प्रश्वास के साथ ओम् के स्मरण को अधिकतम तीन मिनट तक जारी रखें। तृतीय चरण में ओम् अवचेतन मन की गहराई में उतरता है, जबकि चतुर्थ चरण में यह अवचेतन मन को भी शान्त कर साधक को चैतन्य से भर देता है । तन-मन ऊर्जस्वित हो जाता है। पंचम चरण : चैतन्य-बोध श्वास को तीव्रतापूर्वक छोड़कर स्वयं को रिक्त कर लें और अन्तर् के शून्य में डूब जाएँ। विश्राम, परम मौन ! इस चरण में कोई क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रयास नहीं करना है। केवल साक्षी होकर देखना है। संसार से, समाज से, परिवार से, चित्त से, कषायों से भिन्न अपने चैतन्य को देखें, अनुभव करें। स्वयं में ऊर्जा-जागरण और विद्युत For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ इक साधे सब सधे प्रकम्पनों का अनुभव होगा । लगभग दस-पन्द्रह मिनट तक अपने सहज स्वरूप में निमग्न रहें । पंचम चरण की अन्तिम स्थिति है - जीवन की अस्तित्वगत अशांति का सम्पूर्ण समाधान, समस्त चिन्ताओं से मुक्ति और सच्चिदानन्द स्वरूप में अन्तरलीनता, अहोदशा । जब तक यह लीनता बनी रहे, तब तक डूबे रहें । सामान्य स्थिति में आने के लिए तीन गहरे साँस लें । हथेलियों को जोर से रगड़कर हल्के से आँखों पर रखें। हाथों में प्रवाहित हो रही ऊर्जा का अनुभव करें । हाथ आँखों से हटाकर धीरे-धीरे आँखें खोलें । जो भी प्राणी या व्यक्ति सर्वप्रथम सामने नजर आए उसे प्रभु-रूप मानकर मुस्कराकर प्रणाम अर्पित करें । 1 भाव - उत्सव आत्मिक आनंद में डूबकर सामूहिक रूप से सस्वर 'भाव - गीत' का पाठ करें जो मैत्री, करुणा, प्रमुदितता और समता की हम पर अमृत वृष्टि करता है 1 भाव - गीत : परम प्रेम की रहे प्रेरणा, हृदय हमारा रोशन हो । मैत्रीभाव के मधुर गीत से, सारी धरती मधुवन हो । खुद जिएँ सुख से, औरों को सुख पहुँचाने का प्रण हो । हंसता- खिलता हो हर चेहरा, स्वर्ग सरीखा जीवन हो || For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-१ १२५ दीन-दुखी जीवों की सेवा, परमेश्वर का पूजन हो। घर आयों के आँसू पोंछे, खुशहाली हर आंगन हो । पथ-भूलों को पथ दरशाएँ, धर्म-भावना हर उर हो। हर दरवाजा राम-दुवारा, हर मानव एक मंदिर हो। आत्म-बोध की रहे रोशनी, आँखें मन की निर्मल हों। नमस्कार है हुलसित उर से, सकल धरा धर्मस्थल हो । निवेदन - भावगीत के समापन के साथ ही सभी साधकों से निवेदन किया जाये कि हम अपनी दिनचर्या के प्रत्येक कार्य को प्रसन्नता, मनोयोग एवं बोधपूर्वक सम्पादित करें। हर तरह की प्रतिक्रिया से बचते हुए सुख-शांति के स्वामी बने रहें। सबके प्रति प्रेम, पवित्रता और मैत्री का व्यवहार रखें। सात्विक आहार और मित-मधुर वाणी का उपयोग करें । यथासंभव मौन रखें। हर तरह के व्यसन से परहेज रखते हुए जीवन और व्यवहार को शुद्ध-संयमित बनाये रखें । हमारी प्रामाणिकता हमारी पहचान का प्रमुख चरण हो । ___ 'गुरुवंदना' के साथ ध्यान-सत्र का समापन करें एवं गुरुदेव का उद्बोधन (प्रत्यक्ष या कैसेट प्रवचन) सुनकर आत्मबोध उपलब्ध करें। गुरु-वंदना गुरु की मूरत रहे ध्यान में, गुरु के चरण बनें पूजन । For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ इक साधे सब सधे गुरु-वाणी ही महामन्त्र हो, गुरु-प्रसाद से प्रभु-दर्शन ॥ सभी एक-दूसरे को अध्यात्म-पथ का सहयात्री और प्रभु की मूरत मानते हुए, परस्पर अभिवादन करें, नमस्कार करें। For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-२ [ संबोधि-ध्यान-शिविर, सांध्य-सत्र, समय: लगभग सवा घंटा] संबोधि-भाव प्रार्थना १० मिनट गोधूलि वेला में साधकगण पंक्तिबद्ध होकर बैठें और तीन बार नवकार मंत्र का सस्वर सामूहिक पाठ करें, पंच-परमेष्ठि की अंतर्दशा का ध्यान करते हुए - नवकार महामंत्र णमो आवारमा णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं । एसो पंच णमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलं । For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ इक साधे सब सधे नवकार-मंत्र के उपरान्त गुरुदेव की संबुद्ध-प्रज्ञा से सृजित अनूठी रचना 'संबोधि-सूत्र' का संगीतमय गायन ध्यान की समझ को विकसित करने में सहायक होगा । संबोधि-सूत्र अन्तस् के आकाश में, चुप बैठा वह कौन ! गीत शून्य के गा रहा, महागुफा में मौन ॥१॥ बैठा अपनी छाँह में, चितवन में मुस्कान । नूर बरसता नयन से, अनहद अमृत पान ॥२॥ शान्त हुई मन की दशा, जगा आत्म-विश्वास । सारा जग अपना हुआ, आँखों भर आकाश ॥३॥ मेरा-तेरा भाव क्या, जगत एक विस्तार । जीवन का सम्मान हो, बाँहों भर संसार ॥४॥ परम-प्रेम, पावन-दशा, जीवन के दो फूल । बिन इनके यह चेतना, जमीं रजत पर धूल ।।५।। दृष्टि भले आकाश में, धरती पर हों पाँव । हर घर में तरुवर फले, घर-घर में हो छाँव ॥६॥ मंदिर का घंटा बजे, खुले सभी की आँख । दिव्य-ज्ञान के सबद दो, मिले पढ़न हर साँझ ॥७ ।। शुभ करनी हर दिन करें, टले न कल पर काम । सातों दिन भगवान के, फिर कैसा आराम? ॥८ ।। साधु नहीं, पर साधुता, पा सकता इंसान । पंक बीच पंकज खिले, हो अपनी पहचान ॥९॥ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-२ १२९ कोरा कागज़ ज़िंदगी, लिख चाहे जो लेख इन्द्रधनुष के रूप-सा, हो अपना आलेख ॥१०॥ ज्योति-कलश है ज़िंदगी, सबमें सबका राम । भीतर बैठा देवता, उसको करो प्रणाम ॥११॥ काया मुरली बाँस की, भीतर है आकाश । उतरें अन्तर्-शून्य में, थिरके उर में रास ॥१२॥ मन के कायाकल्प से, जीवन स्वर्ग समान । भक्ति से श्रृंगार हो, रोम-रोम रसगान ॥१३॥ मन मन्दिर इंसान का, मरघट, मन श्मशान । स्वर्ग-नरक भीतर बसे, मन निर्बल, बलवान् ।।१४ ।। मन की गर दुविधा मिटे, मिटे जगत्-जंजाल । महागुफा की चेतना, काटे मायाजाल ।।१५ ।। जग जाना, पर रह गये, खुद से ही अनजान । मिले न बिन भीतर गये, भीतर का भगवान ॥१६ ।। 'समझ' मिली, तो मिल गयी, भवसागर की नाव । बिन समझे चलते रहे, भटके दर-दर गाँव ॥१७॥ मोक्ष सदा सम्भव रहा, मोक्ष-मार्ग है ध्यान । भीतर बैठे ब्रह्म को, प्रमुदित हो पहचान ॥१८ ॥ मनोभाव, अन्तर्दशा, समझ सका है कौन? बोले, वह समझे नहीं, जो समझे, सो मौन ॥१९॥ सद्गुरु बाँटे रोशनी, दूर करे अंधेर । अंधों को आँखें मिले, अनुभव भरी सबेर ॥२० ॥ प्रज्ञा-पुरुष प्रकाश दे, अन्तर्-दृष्टि योग। समझ सके जिससे स्वयं, मन में कैसा रोग ॥२१ ॥ For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० इक साधे सब सधे चित्-शक्ति की चेतना, अन्तस् का आह्लाद । मुखरित होता मौन में, शाश्वत सोहं नाद ।।२२ ॥ नया जन्म दे स्वयं को, साँस-साँस विश्वास । छाया दे संसार को, पर निस्पृह आकाश ॥२३॥ मुक्ति मानव मात्र का, जीवन का अधिकार । मन की खट-पट जो मिटे, तो हो मुक्त विहार ॥२४ ॥ समझे वृत्ति-स्वभाव जो, साक्षी-भाव के साथ। तो समझो होने लगा, उर में सहज प्रभात ॥२५ ॥ रूप बने, बन-बन मिटे, चिता सजी सौ बार । जनम-जनम के योग को, दोहराया हर बार ॥२६ ॥ संबोधि से टूटती, भव-भव की जंजीर । जरा झाँककर देख लो, अन्तस् में महावीर ॥२७॥ सोने के ये पीजरे, मन के कारागार । टूटे पर, कैसे उड़े, नभ में पंख पसार ॥२८ ।। हर मानव से प्रेम हो, हो चैतन्य-विकास । आत्मोत्सव के रंग में, भीगी हो हर साँस ॥२९॥ कालचक्र की चाल में, बनतें महल मसान । फिर कैसा मन में गिला, सदा रहे मुस्कान ॥३०॥ बीते का चिन्तन न कर, छूट गया जब तीर । अनहोनी होती नहीं, होती वह तक़दीर ॥३१॥ करना था, क्या कर चले? बनी गले की फाँस । पंक सना, पंकज मिला, बदलें अब इतिहास ॥३२ ।। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-२ १३१ सच का अनुमोदन करें, दिखे न पर के दोष । जीवन चलना बाँस पे, छूट न जाये होश ॥३३ ।। बसें नियति के नीड़ में, प्रभु का समझ प्रसाद । भले जलाये होलिका, जल न सके प्रहलाद ॥३४ ॥ 'कर्ता' से ऊपर उठे, करें सभी से प्यार । ज्योत जगाये ज्योत को, सुखी रहे संसार ॥३५ ।। शान्त मनस् ही साधना, आत्म-शुद्धि निर्वाण । भीतर जागे चेतना, चेतन में भगवान् ॥३६ ॥ शाम के समय शरीर दिनभर की व्यस्त जीवनचर्या की आपाधापी से थका हुआ होता है । प्रवृत्तियों का तनाव तन-मन पर हावी रहता है । अत: ध्यान में उतरने से पूर्व इस तनाव से मुक्त होना आवश्यक है। इसके लिए दो विधियाँ प्रस्तुत हैं - १. कायोत्सर्ग - जब शारीरिक थकान प्रबल हो या जिन लोगों की आजीविका शारीरिक श्रम-प्रधान हो, उनके लिए यह विधि अनुकूल है । २. तनावोत्सर्ग - जिनका मन क्लान्त हो, उदास हो, प्रमाद या मानसिक तनाव से ग्रस्त हो अथवा जिनकी दिनचर्या मानसिक श्रम-प्रधान हो, उनके लिए यह विधि उपयुक्त है। कायोत्सर्ग ५ मिनट मन को हम ध्यान में लगाएँ , उससे पूर्व शरीर को भी ध्यानमय बना लें। इसके लिए हम कायोत्सर्ग-ध्यान करें। कायोत्सर्ग मृत्यु-बोध अथवा विदेह-बोध की प्रक्रिया से गुजरने की कला है। देह-भाव और देह-राग को छोड़ते हुए विदेहानुभूति के लिए कायोत्सर्ग की प्रक्रिया अपने आप में एक विशिष्ट प्रयोग है। यह संबोधि-ध्यान में प्रवेश के पूर्व की तैयारी है। प्रक्रिया से गुजरने के लिए खड़े होकर, बैठकर या लेटकर सर्वप्रथम For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ इक साधे सब सधे धीरे-धीरे श्वास लेते हुए पूरे शरीर में कसावट दें, श्वास को रोकते हुए सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ समस्त मांसपेशियों को नाभि की ओर दो क्षण के लिए खिंचाव दें और तत्क्षण उच्छ्वास के साथ शरीर ढीला छोड़ दें । यह प्रक्रिया कुल तीन बार करें। अब शरीर के प्रत्येक अंग को मानसिक रूप से देखते हुए एक-एक अंग को शिथिल होने के लिए आत्म-निर्देशन दें। प्रात:कालीन सत्र के शवासन की तरह का अनुभव करें। दाहिने पैर के अंगूठे, अंगुलियाँ, तलवा, पंजा, एड़ी, टखना, पिंडली, घुटना, जाँघ, नितंब, कटि-प्रदेश को क्रमश: शिथिल करें । इसी क्रम से बायें पैर को शिथिल करें। फिर क्रमश: दायें और बायें हाथ के अंगूठे, अंगुलियों, हथेली, पृष्ठ भाग, कलाई, हाथ, कोहनी, भुजा एवं कंधों को शिथिलता का सुझाव दें । तदुपरान्त पेट, पेट के अंदरूनी अवयव, विसर्जन-केन्द्र, बड़ी आँत, छोटी आँत, पक्वाशय, आमाशय, किडनी, लीवर आदि, हृदय, फेफड़े, पसलियाँ, अन्न-नली, श्वास-नली, पूरी पीठ, रीढ़ की हड्डी, ईड़ा, पिंगला और सुषम्ना नाड़ियाँ, समस्त स्नायु, कंठ और गर्दन के भाग को शिथिल करें। इसके बाद चेहरे के एक-एक अंग-ठुड्डी, होंठ, गाल, आँख, कान, नाक, ललाट, सिर, बाल, मस्तिष्क के स्नायु और कोषाओं को भीतर तक देखते हुए शिथिल करें । शरीर के तादात्म्य को तोड़ें । निर्भारता का अनुभव करें। अपने आत्म-प्रदेशों को स्थूल काया से बाहर अनन्त आकाश में विहार करते हुए देखें । स्वयं को निरंतर विराट होकर अखिल ब्रह्माण्ड में फैलता हुआ अनुभव करें । धीरे-धीरे अपने विराट हुए अस्तित्व को समेटना प्रारम्भ करें और एक चमकते प्रकाश के अणुरूप में, बिंदुरूप में इस तरह काया में लौटें जैसे हमारा नया जन्म हुआ हो । गहरी साँस के साथ चेतना का संचार करें लेकिन तनाव-मुक्ति बरकरार रखें। तनावोत्सर्ग ५ मिनट कायोत्सर्ग की ही तरह शरीर के एक-एक अंग का मानसिक निरीक्षण For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ ध्यानयोग-विधि-२ करें, लेकिन शिथिलता के स्थान पर प्रत्येक अंग में प्रसन्नता और मुस्कराहट को विकसित करें । पैर के अंगूठे से प्रारम्भ कर सिर तक यानी रोम-रोम को प्रमुदितता और अन्तर्-प्रसन्नता का आत्म-सुझाव दें। अंत में अपने चेहरे पर विशेषकर होंठ, आंख और मस्तिष्क पर आनन्द-भाव को केन्द्रित करें और मन-ही-मन मुस्कुराएँ-खिलखिलाएँ । यदि अब भी तनाव महसूस हो, तो खिलखिलाकर हँसते हुए लोटपोट हो जाएँ। आत्मनिरीक्षण करें और देखें कि यदि अब भी तनाव बाकी है तो हास्य को और विकसित करें और तब तक हँसें, खिलखिलाएँ जब तक थक न जाएँ। हँसते हुए लोटपोट हो जाना अपने आप में तनाव-मुक्ति का सबसे सरल साधन है । जो हर हाल में प्रसन्न, प्रमुदित रहते हैं, वे तनावरहित होते हैं । मनुष्य के शरीर में ६५० मांसपेशियाँ होती हैं, एकमात्र हँसने से ही दो-तिहाई मांस-पेशियों के साथ शरीर की सभी कोशिकाएं एवं केन्द्रीय तन्त्रिका-तन्त्र प्रफुल्लित हो उठता है और मनोमस्तिष्क भी खिल उठता है । हो सकता है इस प्रक्रिया में हंसते-हंसते हमारी रुलाई फूट पड़े और हम जोर-जोर से रोने लगें पर उसे रोकने का प्रयास न करें । खुलकर रो लें। आँसुओं के ये फूल गुरु-चरणों में अर्पित करें और तनाव-मुक्त हो जाएँ। अवसाद के रोगी इस प्रक्रिया को प्रतिदिन अपनाएँ , तो लगातार तीन माह के प्रयोग से वे रोग-मुक्त हो सकते हैं। संबोधि-ध्यान ४५ मिनट सायंकालीन ध्यान के लिए गुरुदेव द्वारा जो विधि आविष्कृत है, उसे संबोधि-ध्यान की संज्ञा दी गई है । संबोधि का शाब्दिक अर्थ है - सम्यक् बोध या सम्पूर्ण बोध । संबोधि-ध्यान की विधि हमारी चेतना पर आच्छादित कषायों के आवरणों को हटाकर शुद्ध, संबुद्ध चैतन्य को प्रकट करने में बहुत ही सहायक हो सकती है। वस्तुत: दिनभर हमारी चेतना सांसारिक प्रवृत्तियों में For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ इक साधे सब सधे लिप्त रहती है, औरों के लिए जीती है। लेकिन जिस तरह साँझ ढले पंछी अपने नीड़ में लौटकर विश्राम पाता है, वैसे ही हमारी आत्मा निजस्वरूप में विश्राम चाहती है, स्व में स्थित– स्व + स्थ होना चाहती है। सम्यक् समझ का अभाव होने के कारण व्यक्ति मन-बहलाव के साधन अपनाता है, पर ये साधन शांति, मुक्ति और आनन्द देने के बजाय, महज मन को भ्रमित ही करते हैं। हम अपनी बेचैनी का कारण नहीं समझ रहे हैं। बेचैनी का कारण है दिन-भर पर-पदार्थों से लिप्त हुई आत्मा परिश्रान्त होकर अपनी निजता में, अपने मूल अस्तित्व में जीना चाहती है। रात के बाहरी अंधकार में अंतर के प्रकाशित होने की, आत्म-प्रकाश के प्रकट होने की संभावना अधिक होती है। क्योंकि साँझ से ही चेतना निजत्व की खोज की बेचैनी और छटपटाहट से भर जाती है । तब इस खोज को आगे बढ़ाने वाले प्रयास अधिक गहरे और सफल हो सकते हैं, क्योंकि उस प्रयास में आत्मा की सहमति भी जुड़ जाती है। 'संबोधि-ध्यान-विधि' ध्यान की बहुत ही गहरी विधि है। परिणाम हमारी अभीप्सा, लगन और प्रयासों की सघनता पर निर्भर करता है । अत: हम प्रमाद त्यागकर अपनी ही अथाह गहराइयों में डूबें । बस चार चरणों की ही तो बात है। पाँचवाँ चरण तो मंजिल की उपलब्धि का चरण होगा। डग भरा कि भोर हुई। प्रयोग-पद्धति ध्यान के लिए अपने अनुकूल आसन का चुनाव करें । उपयुक्त मुद्रा अपनाएँ और ध्यान का प्रयोग प्रारंभ करें । प्रथम चरण : एकाग्रता ५ मिनट प्रथम चरण में अर्धोन्मीलित नेत्रों से अर्थात् आधी खुली, आधी बन्द आँखों से चित्त को नासाग्र पर केन्द्रित करें। यह त्राटक है । नाक के शिरोबिंद को लगातार एकटक देखें और मन को हर विषय से हटाकर इसी बिंदु पर एकाग्र करने का प्रयास करें। यदि आँखें थक जाएँ, दृष्टि और विचार भटकें, तो For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-२ १३५ आँखों को दो-एक बार झपकाकर पुन: प्रयोग करें । आँखों से आँसू बहने लगे तो भी चिंतित न हों, प्रयोग जारी रखें । नाक के अग्रभाग के चारों तरफ उभरते हुए आभामंडल को देखने का प्रयास करें । दिन-प्रतिदिन के अभ्यास से यह आभामंडल, प्रकाशकण, प्रकाश-वर्तुल अथवा प्रकाश-रेखा के रूप में प्रत्यक्ष होने लगता है। __ यह आभामंडल मनुष्य की चित्त-दशा, चैतन्य स्थिति और लेश्या-मंडल का प्रतिबिम्ब है एवं चेतना के प्रवाह की झलक है, साथ ही आज्ञाचक्र एवं प्रज्ञा-केन्द्र के सक्रिय होने का सूचक है। एकाग्रता के इस चरण से चित्त की चंचलता शांत होती है । भावदशा एवं लेश्याओं का बोध होता है । द्वितीय चरण : अन्तर्-सजगता १० मिनट प्रथम चरण से गुजरने के बाद हम अपनी चेतना को साँस के आवागमन के साथ जोड़ें और स्वयं को नासिका मूल स्थित प्रज्ञाकेन्द्र पर केन्द्रित रखें। धीरे-धीरे हम पाएंगे कि हमारी साँसें संतुलित और लयबद्ध हो गई हैं। साँस के प्रति अपनी सजगता बढ़ाएँ। यह दमित मन के जागरण की स्थिति है, अत: इस सजगता से हमारे विचार-विकल्पों में एक बेचैनी, एक उथल-पुथल मचेगी, जिससे साँसों की गति में भी उतार-चढ़ाव आएँगे। वृत्तियाँ, विकल्प, विचार उठते हैं, तो उठने दीजिए। उन्हें रोकने का प्रयास न करें। हम स्वयं को हर वृत्ति, हर विकल्प, हर विचार से, यहाँ तक कि साँसों से भी अलग रखकर उन्हें तटस्थ द्रष्टा और साक्षी होकर ऐसे देखें, मानो वे हमारे विचार न होकर किसी और के हैं, हमारी वृत्ति न होकर किसी और की है। सांस लेने वाला कोई और है और विचारों को देखने वाला कोई और है। इस प्रक्रिया से गुजरते हुए हम स्वयं अनुभव करेंगे कि हमारी अन्तर्-सजगता जैसे-जैसे प्रगाढ़ होती है, विचारों एवं वृत्तियों में होने वाली उथल-पुथल स्वत: शांत होती जा रही है। साँसों में पुन: लयबद्धता और संतुलन स्थापित हो रहा है । विचारों-विकल्पों की आवृत्ति कम होती जा रही है For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक साधे सब सधे और वृत्तियों के आवेग कम होते जा रहे हैं। धीरे-धीरे हम उनसे मुक्त होते जा रहे हैं और हमारा बोधि-केन्द्र जाग्रत होता जा रहा है । __ अन्तर-सजगता के इस चरण से मुख्यत: हमारा अपने अचेतन और अवचेतन मन से सम्पर्क होता है, हम अपनी दमित और उद्दीप्त मनोदशा से परिचित होते हैं । संवेग-उद्वेग, वृत्ति-विकल्प, आर्त-रौद्र मनोपरिणाम शिथिल पड़ते हैं और चित्त-दशा शांत होती है । आत्म-तत्त्व जाग्रत होता है । तृतीय चरण : अन्तर्यात्रा . १० मिनट ____अपने विचारों, वृत्तियों से गुजरने और उनसे मुक्त होने के उपरांत सांसों के मध्य से अपनी चेतना को प्राण-क्षेत्र पर लाएँ अर्थात् नाभि और कमर-प्रदेश के मध्य ले जाएँ। यह स्थान आंतरिक शक्ति का केन्द्र है । नाभि से पीछे सुषुम्ना तक के ऊर्जा-क्षेत्र पर साँसों को, प्राणों के प्रवाह को केन्द्रित करें। चित्त, मन और बुद्धि को नाभि-प्रदेश के प्राण-क्षेत्र पर उलट डालें। श्वास-धारा मंदतर और पुलकभरी हो। पाशविक वृत्तियों का केन्द्र नाभि से नीचे स्थित है, जिसकी जड़ें ठेठ पाँवों तक फैली हुई हैं । सजगता को नाभि से नीचे एक-एक अंग से गुजारते हुए संवेदनाओं का निरीक्षण कर अंगूठे तक पहुँचे और इन संवेदनाओं से मुक्त होते हुए उलटे क्रम से वापस ऊपर नाभि पर स्वयं को केन्द्रित करें। इस प्रक्रिया से हमारी पाशविक वृत्तियाँ शान्त-मौन होने लगी हैं। इस चरण से स्वास्थ्य, प्राण एवं शक्ति केन्द्र सक्रिय होता है और नीचे की उत्तेजक ग्रन्थियाँ शांत एवं परिष्कृत होती हैं। हमारे आन्तरिक रोग क्षीण होते हैं तथा शरीर की जो तीन-चौथाई ऊर्जा काम-क्रोधजन्य संवेग-आवेग में नष्ट होती है, उसकी रक्षा होती है। चतुर्थ चरण : चैतन्य-जागरण १० मिनट गहरे दीर्घ श्वास-प्रश्वास के माध्यम से रीढ़ की हड्डी के अंतिम सिरे के नीचे स्थित शक्ति-कुंड के साथ सभी अन्तस्-केन्द्रों को जगाएं, प्राणों की समग्रता से शक्ति का जागरण करें । नाभि-केन्द्र पर ऊर्जा का स्वागत और संचय करें। और अब अत्यन्त पुलक के साथ अपनी अन्तर-ऊर्जा को ऊपर उठाते चले जाएँ। हृदय-प्रदेश तक पहुँचें For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-२ १३७ और आनन्द का कमल खिलने दें। यदि हम अपनी मूल शक्ति को हृदय-प्रदेश तक उठा पाने में सफल हो गये तो मानो हम अपने विकारों से, निम्नवृत्तियों, अशुद्ध चेतना और अशुभ लेश्याओं से कमलवत् ऊपर उठने लगे हैं और अब आगे की यात्रा सुगम हो गई है । क्रोध आदि शक्तियां, करुणा और पवित्रता में रूपान्तरित हुई हैं। दीर्घ एवं गहरे श्वास-प्रश्वास के माध्यम से थोड़ा और प्रयास करके शक्ति को कंठ पर, ऊर्ध्व-शक्ति-केन्द्र/शुद्धि-चक्र तक ले आएँ। यहां आकर शक्ति गहन शांति और प्रसन्न मौन के रूप में अभिव्यक्त होगी। कंठ से सुषुम्ना तक फैले हुए ऊर्जा-क्षेत्र पर प्राणों के केन्द्रीकरण से इंद्रियगत मौन का विकास होता है । लेकिन अभी यहीं रुकना नहीं है। अभी चेतना का और उत्थान आवश्यक है। आगे बढ़ते जाइये और दोनों भौंहों के बीच तिलकवाले स्थान के लगभग एक इंच भीतर ऊर्जा का समीकरण कीजिए। अपनी चेतना को हर तरफ से हटाकर आज्ञा-चक्र पर केंद्रित कीजिए। बिंदु-रूप आत्म-ज्योति को साकार कीजिए और उस बिंदु को विराट करते-करते संपूर्ण ललाट में, पूरे मस्तिष्क में फैल जाने दें। प्रकाश की एक ज्योति-शिखा को मस्तक के ऊपरी भाग बोधिकेन्द्र सहस्रार तक पहुंचने दें। अधिकतम गहरे दीर्घ श्वास-प्रश्वास से चैतन्य-जागरण के इस चरण को पूर्ण कीजिए। पंचम चरण : मुक्ति-बोध १० मिनट . और अंत में शरीर, मन, प्राण को शिथिल छोड़कर हर प्रयास से मुक्त होकर अन्तरलीन हो जाइये - हृदय में आत्मस्थ । डूब जाइये भीतर के अनन्त आकाश में, मुक्ति के अपरिसीम आनंद में, अर्थात् गहन विश्राम, परम मौन, अपूर्व शान्ति, परमानन्द दशा। सहज स्थिति होने पर परमात्म-रस पगे भजनों का गायन-रसास्वादन करें और भक्तिभाव में रचे-पचे सांध्यकालीन सत्र का समापन करें। अंत में गुरु-वंदना करें और हाथों की कमल-मुद्रा बनाकर भावार्घ्य गुरु-चरणों में अर्पित करते हुए साधनापथ पर आगे बढ़ने के लिए उनका मंगल आशीष ग्रहण करें । आसन से खड़े हों, और सभी को करबद्ध अभिवादन कर For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ इक साधे सब सधे रात्रि-विश्राम के लिए विदा लें। उपसंहार ध्यानयोग की उक्त प्रक्रियाएँ स्वास्थ्य, शांति, संबोधि और आनंद के मंगलमय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हैं। मनुष्य के पाशविक उद्वेगों और व्यवहारों के दिव्य रूपांतरण के लिए ध्यानयोग मूल मार्ग है। जीवन की कलुषताओं को जड़ से मिटाने के लिए यह सहज, सुलभ, सरलतम उपाय है। अन्तस् केन्द्रों के जागरण, निर्मलीकरण और साक्षात्कार के लिए यह जन-मन के लिए उपयोगी है। हमें सुख-सुविधाजनित समृद्धि के अनगिनत साधन उपलब्ध हुए हैं, किन्तु आन्तरिक शांति और समृद्धि के अभाव में हम जीवन के आनन्दमयी वरदान से वंचित हो गये हैं। हमारी शांति, शुद्धि, प्रगति और मुक्ति कुंठित हुई है। संबोधि-ध्यान मनुष्य का कायाकल्प और अभ्युत्थान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे हमारे भीतर स्वत: ही धार्मिकता का उन्नयन होने लगता है । क्रोध-लोभ, भय-स्वार्थ, वैर-व्यभिचार, अपराध-आक्रोध धीरे-धीरे छूटते जाते हैं और सुख, शांति तथा आनंद के स्वस्तिकर लक्ष्य आत्मसात् हो जाते हैं। हम सत्यम् शिवम् सुंदरम् के महामार्ग के ज्योतिर्मान पथिक हो जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग-विधि-२ १३९ परिशिष्ट (१) शिविर में शामिल होने वाले साधकों को प्रात:कालीन सत्र प्रारंभ होने से लगभग ४५ मि. पूर्व जागकर शौच-स्नानादि नित्यकर्मों से अवश्य ही निवृत हो जाना चाहिए। (२) श्वेत वस्त्र धारण करना साधना के लिए उपयुक्त है। (३) पेट खाली रखें। चाय-कॉफी, बीड़ी-सिगरेट, तंबाख या अन्य किसी व्यसन आदि का सेवन शिविर-काल में कतई न करें। शाम को भी सत्र प्रारंभ से कम-से-कम एक घंटा पहले केवल हल्का भोजन, फल या दूध का ही सेवन करें। (४) शिविर-काल में अधिकतम मौन एवं सांसारिक कार्यों से निवृत्त रहने का प्रयास करें। (५) बनती कोशिश शिविर-काल में परिवार के साथ निवास न करें। (६) शिविर-काल में अपने व्यक्तिगत कार्य स्वयं करें एवं शिविर की व्यवस्थाओं में श्रमदान करें। (७) शिविर में अनुशासन बनाए रखें एवं अपने मन-वाणी-कर्म से कोई ऐसा कार्य न करें, जो अन्य साधकों या आयोजकों के लिए कष्टकारी एवं अव्यवस्थाप्रद हो। (८) शिविर में अपने व्यवहार से वातावरण को अधिकतम मैत्रीपूर्ण, निर्मल एवं उल्लासमय बनाने का प्रयास करें । दूसरों की मदद करने का प्रयास करें। (९) आंतरिक कुंठाओं से मुक्त होकर सभी से सद्व्यवहार करें । सदा सजग और प्रसन्न रहें। - शिविर में सम्मिलित होने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ध्यान निलयम्, ७१८ पहली बी रोड़, सरदारपुरा, जोधपुर (राज.) के पते पर पत्र-व्यवहार करें। For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जितयशा फाउंडेशन का उपलब्ध साहित्य (मात्र लागत मूल्य पर) जागो मेरे पार्थ : श्री चन्द्रप्रभ गीता पर दिये गये विशिष्ट आध्यात्मिक अठारह प्रवचनों का अनूठा संकलन । गीता की समय-सापेक्ष विवेचना । पृष्ठ २५० ,मूल्य ३०/प्रभुता का मार्ग : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर मानवीय देवत्व को उपलब्ध करने के लिए दिये गये सीधे-सपाट प्रवचनों का संकलन । पृष्ठ १२८, मूल्य १५/ध्यानयोग : विधि और वचन : श्री ललितप्रभ ध्यान-शिविर में दिये गये प्रवचन एवं अनुभवों का अमृत आकलन; साथ ही ध्यानयोग की सचित्र विस्तृत विधि ।ध्यानयोग पर चर्चित पुस्तक । पृष्ठ १८० ,मूल्य ४०/इक साधे सब सधे : श्री चन्द्रप्रभ जीवन को नई चेतना और दिशा प्रदान करने वाला सहज अनुभूति पूर्ण चिन्तन । पृष्ठ १४८,मूल्य ३०/यह है मार्ग ध्यान का: श्री चन्द्रप्रभ । ध्यानयोग का मार्ग प्रशस्त करने वाली एक श्रेष्ठ लघु पुस्तिका। तनाव-मुक्ति एवं आत्म-समृद्धि के लिए सहज मार्गदर्शिका। पृष्ठ २४,मूल्य ३/महावीर की साधना के रहस्य : श्री चन्द्रप्रभ भगवान् महावीर के जीवन, सिद्धान्त और रहस्यदर्शी सूत्रों के आधार पर साधना एवं मुक्ति के मौलिक मार्ग का दिग्दर्शन करती पठनीय पुस्तक। पृष्ठ १००,मूल्य १५/सो परम महारस चाखे : श्री चन्द्रप्रभ आनन्दघन के विशिष्ट पदों पर आध्यात्मिक प्रवचन । एक लोकप्रिय पुस्तक । पृष्ठ १४० ,मूल्य २०/सार्वभौम है ॐ : श्री चन्द्रप्रभ ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक रहस्यमयी ओंकार पर गहन खोज । एक सारगर्भित संकलन । पृष्ठ ४८,मूल्य ३/रूपान्तरण : श्री चन्द्रप्रभ जीवन के रूपान्तरण के लिए सुझाये गये महत्त्वपूर्ण पहलुओं का मानक संकलन । पृष्ठ १३६,मूल्य १७/अन्तर्गहा में प्रवेश: श्री चन्द्रप्रभ जन-साधारण के लिए धर्म के सरल पथ की तलाश, अस्तित्व के विभिन्न रहस्यों का सहज स्पर्श। पृष्ठ ७६, मूल्य १०/मुक्ति का मनोविज्ञान : श्री चन्द्रप्रभ मनोजगत् की छानबीन करते हुए मुक्ति के मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं का दिशाबोध । पृष्ठ ११२,मूल्य १२/जीवन, जगत और अध्यात्म : महो. ललितप्रभ सागर जीवन-जगत् की समस्याओं के समाधानों को ढूंढ़ने का प्रयास । सटीक प्रवचन । पृष्ठ १८०.मूल्य ३०/संबोधि-ध्यान-मार्गदर्शिका : सुश्री विजयलक्ष्मी जैन संबोधि-ध्यान-शिविर की प्रायोगिक मार्गदर्शिका; ध्यानयोग- विधि की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक। पृष्ठ ५६,मूल्य ५/ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्यात्रा : श्री चन्द्रप्रभ माउंट आबू में सम्पन्न संबोधि-ध्यान-शिविर में दिये गये प्रवचनों एवं जिज्ञासा-समाधानों का अमृत संकलन । साधना का क्रमिक स्वरूप। पृष्ठ १४८,मूल्य २०/फिर मुक्ति के पंख खुले : श्री चन्द्रप्रभ भगवान् महावीर के चुनिंदे सूत्रों को आधार बनाकर अध्यात्म के अनछुए पहलुओं का समाकलन। पृष्ठ १६० ,मूल्य २५/मनुष्य का कायाकल्प : श्री चन्द्रप्रभ । मन और चेतना की विभिन्न गुत्थियों को खोलते हुए ध्यान द्वारा जीवन के कायाकल्प का एक प्रशस्त मार्गदर्शन । साथ में है ध्यान की प्रयोगात्मक विधि। पृष्ठ २०० ,मूल्य २५/स्वयं से साक्षात्कार : श्री चन्द्रप्रभ मन-मस्तिष्क की ग्रन्थियों को खोलने के लिए ध्यान-शिविर में दिये गये अमृत प्रवचन । पृष्ठ १४६, मूल्य १०/विपश्यना और विशुद्धि : श्री चन्द्रप्रभ शरीर, विचार और भावों की उपयोगिता और विशुद्धि का मार्ग दर्शाता एक अभिनव प्रकाशन। पृष्ठ १२२, मूल्य १२/ज्योति कलश छलके : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जीवन-मूल्यों को ऊपर उठाने वाली एक प्यारी पुस्तक । भगवान् महावीर के सूत्रों पर प्रवचन। पृष्ठ १६० ,मूल्य २०/वही कहता हूँ : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर स्तरीय प्रवचनांशों का संकलन । पृष्ठ ४८,मूल्य ३/संबोधि के दीप: श्री चन्द्रप्रभ जीवन-निर्माण एवं अन्तर्यात्रा के सिलसिले में हर व्यक्ति के लिए उपयोगी पुस्तक । पृष्ठ ११२,मूल्य १२/ज्योतिर्गमय : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर भीतर के अंधकार को काटता एक प्रकाशवाही संकलन । ध्यान-शिविर में दिये गये श्रेष्ठ प्रवचन । पृष्ठ ८८,मूल्य १०/शिवोऽहम् : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन की ऊंचाइयों को आत्मसात् करने के लिए एक तनाव-मुक्त स्वस्थ मार्गदर्शन । पृष्ठ १००, मूल्य १०/अमृत-सन्देश : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अमृत सन्देशों का सार-संकलन। पृष्ठ ५६, मूल्य ३/महक उठे जीवन-बदरीवन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर व्यक्तित्व के निर्माण एवं समाज के विकास के लिए बुनियादी बातों का खुलासा। पृष्ठ ३२,मूल्य २/तुम मुक्त हो, अतिमुक्त : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर आत्म-क्रान्ति के अमृतसूत्र । श्री चन्द्रप्रभ जी के छोटे-छोटे सूक्त वचनों का संकलन । पृष्ठ १०० ,मूल्य ७/रोम-रोम रस पीजे : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जीवन के हर कदम पर मार्ग दर्शाता चिन्तन-सूत्रों का दस्तावेज। पृष्ठ ८८,मूल्य १०/ For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसा तो मोती चुगै : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर महावीर के अध्यात्म-सूत्रों पर प्रवचन । पृष्ठ ८८,मूल्य १०/ध्यान : क्यों और कैसे : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर हमारे सामाजिक जीवन में ध्यान की क्या जरूरत है, इस सम्बन्ध में स्वच्छ राह दिखाती पुस्तक। पृष्ठ ८६, मूल्य १०/धरती को बनाएँ स्वर्ग : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर धर्म की आवश्यकता और नारी-जगत पर लगी बेतुकी पाबंदियों पर समाचार-पत्रों को दिये गये विस्तृत साक्षात्कारों का प्रकाशन । पृष्ठ ५२, मूल्य ३/ध्यान की जीवंत प्रक्रिया : सुश्री विजयलक्ष्मी जैन ध्यान की सरल प्रक्रिया जानने के लिए बेहतरीन पुस्तक । ध्यान-शिविर का ब्योरा। पृष्ठ १२० ,मूल्य १०/अप्प दीवो भव : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन, जगत और अध्यात्म के विभिन्न आयामों को उजागर करता चिन्तन-कोष । पृष्ठ ११२,मूल्य १५/चलें, मन के पार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर सक्रिय व तनाव-रहित जीवन प्रशस्त करने वाला एक मनोवैज्ञानिक युगीन ग्रन्थ। पृष्ठ ३०० ,मूल्य ३०/व्यक्तित्व-विकास : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर हमारा व्यक्तित्व ही हमारी पहचान है, तथ्य को उजागर करने वाला बाल-मनोवैज्ञानिक प्रकाशन । पृष्ठ ११२,मूल्य १०/संभावनाओं से साक्षात्कार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन के विविध पहलुओं का स्पर्श करते हुए श्री चन्द्रप्रभ जी के महत्त्वपूर्ण आलेख। पृष्ठ ९२, मूल्य १०/चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ साधकों के लिए महत्त्वपूर्ण पुस्तक; अन्तरतम की हर बारीकी का मनोवैज्ञानिक दिग्दर्शन। पृष्ठ ११२, मूल्य १२/अन्तर के पट खोल : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर पतंजलि के महत्त्वपूर्ण योग-सूत्रों पर पुनर्प्रकाश; योग की अनूठी पुस्तक । पृष्ठ ११२,मूल्य १०/आंगन में आकाश : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर तीस प्रवचनों का अनूठा आध्यात्मिक संकलन, जो आम आदमी को प्रबुद्ध करता है और जोड़ता है उसे अस्तित्व की सत्यता से ।। पृष्ठ २०० ,मूल्य ३०/मन में, मन के पार : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर मन की गुत्थियों को समझाने और सुलझाने वाला एक महत्त्वपूर्ण प्रकाशन, दिशा-दर्शन। पृष्ठ ४८, मूल्य २/ प्रेम के वश में है भगवान : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर मीरा के परमात्म-प्रेम पर एक प्यारी-सी पुस्तक जिसे पढ़े विना मनुष्य का प्रेम अधूरा है । पृष्ठ ४८,मूल्य ३/साक्षी की आँख : श्री चन्द्रप्रभ जीवन-ज्योति से साक्षात्कार करवाती पुस्तक । जीवन के रहस्यों एवं सत्यों से परिचित For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवाते आध्यात्मिक प्रवचनों का संकलन । पृष्ठ ९६, मूल्य १२/बिना नयन की बात : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अध्यात्म-पुरुष श्रीमद् राजचन्द्र के प्रमुख पदों पर मानक प्रवचन ।पृष्ठ १०० ,मूल्य १०/भगवत्ता फैली सब ओर : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर कुन्दकुन्द की गाथाओं पर मार्मिक उद्भावना । कम शब्दों में अधिक सामग्री। पृष्ठ १०० ,मूल्य १०/सहज मिले अविनाशी : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर पतंजलि के प्रमुख योग-सूत्रों की लोकसुलभ विवेचना। पृष्ठ ९२,मूल्य १०/पर्युषण-प्रवचन : श्री चन्द्रप्रभ । पर्युषण-महापर्व के प्रवचनों को घर-घर पहुँचाने के लिए एक प्यारा प्रकाशन ; भाषा सरल,प्रस्तुति मनोवैज्ञानिक । पढ़ें कल्पसूत्र को अपनी भाषा में। पृष्ठ १२० ,मूल्य १७/सोल टू सुप्रीम सोल : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर मानव-चेतना के विकास के हर संभव पहलू पर प्रकाश । विश्व के दूर-दराज तक फैली पुस्तक। पृष्ठ १२० ,मूल्य २०/मेडिटेशन एण्ड एनलाइटमेन्ट : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर ध्यान और समाधि के विभिन्न पहलुओं पर मनन और विश्लेषण; विदेशों में भी चर्चित । पृष्ठ १०८,मूल्य १५/जिन सूत्र : श्री चन्द्रप्रभ भगवान महावीर की अमृत वाणी के नित्य पठन एवं प्रेरणा के लिए तैयार किया गया विशिष्ट संकलन; समणसुत्तं का संक्षिप्त,संशोधित रूप। पृष्ठ १८० ,मूल्य १०/सुयगड सुत्तं : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर एक आदर्श धर्म ग्रन्थ का मूल एवं हिन्दी अनुवाद के साथ अभिनव प्रकाशन । पृष्ठ २६० ,मूल्य ३०/पंच संदेश: महोपाध्याय ललितप्रभ सागर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर कालजयी सूक्तियों का अनूठा सम्पादन। पृष्ठ ३२, मूल्य २/विश्व प्रसिद्ध जैन तीर्थ : श्रद्धा एवं कला: ललितप्रभ सागर सोलह विश्व विख्यात जैन तीर्थों का कला-शिल्प,श्रद्धा-भक्ति की परमोज्ज्वल पृष्ठभूमि पर संप्रदायातीत प्रस्तुति, वस्तुनिष्ठ सचित्र विवरण । नयनाभिराम रंगीन फोटोग्राफ तथा कलात्मक सज्जा। पृष्ठ १६० ,मूल्य २००/शिखरजी तीर्थ दर्शन : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जैन तीर्थ सम्मेत शिखरजी के इतिहास एवं विकास का विस्तृत ब्यौरा । पृष्ठ : ४८, मूल्य ५/संसार में समाधि : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर संसार में समाधि के फूल कैसे खिल सकते हैं, आध्यात्मिक संतों के जीवन से जुड़े सच्चे घटनाक्रमों के द्वारा उसी का सहज विन्यास । पृष्ठ १२० , मूल्य १०/सिलसिला : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर सबके अन्तर्मन को समान रूप से छूने वाली कहानियों का संकलन। पृष्ठ १२० ,मूल्य १०/- ) For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत हरिकेशबल : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अस्पृश्यता निवारण पर रंगीन चित्रकथा / पृष्ठ 32, मूल्य ५/शून्य का सन्देश : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर रहस्य की परतों को उघाड़ती लघुकथाएं / पृष्ठ ३२,मूल्यः ३/सत्य, सौन्दर्य और हम : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर सुन्दर-सरस प्रसंग, जिनमें सच्चाई भी है और युग की पहचान भी। तीस मार्मिक कहानियाँ / पृष्ठ ३२,मूल्य २/कुछ कलियाँ, कुछ फूल : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर संसार के विभिन्न कोनों में हुए सद्गुरुओं की जीवन्त घटनाओं का आलेखन। पृष्ठ 32, मूल्य २/जीवन के झंझावात : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर तीस श्रेष्ठतम लघुकथाओं का संग्रह / पृष्ठ 32, मूल्य २/महक तुम्हारी, ज्योति हमारी : सुश्री विजय लक्ष्मी जैन लोकप्रिय भजनों,गीतों पदों का संकलन / पृष्ठ ४८,मूल्य-४/छायातप : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर अदृश्य प्रियतम की रंगीन बारीकियों का मनोज्ञ चित्रण / रहस्यमयी छायावादी कविताएँ / पृष्ठ १०८,मूल्य १०/जिन-शासन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर काव्य-शैली में जैनत्व को समग्रता से प्रस्तुत करने वाला एक-मात्र सम्पूर्ण प्रयास।। पृष्ठ 80 ,मूल्य ३/अधर में लटका अध्यात्म : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जीवन-अध्यात्म की गहराइयों को छू जाने वाली एक विशिष्ट काव्यकृति / पृष्ठ 152, मूल्य ७/महान् जैन स्तोत्र : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर अत्यन्त प्रभावशाली एवं चमत्कारी जैन स्तोत्रों का विशाल संग्रह। पृष्ठ १२०,मूल्य १०/दादा-गुरु-भजनावली : महोपाध्याय विनय सागर दादा-गुरुदेव के नाम से विश्व-विख्यात चारों दादा गुरुओं के बिखरे स्तोत्रों/भजनों का सर्वांगीण,विराट, अपूर्व संकलन। पृष्ठ 600 मूल्य १५०/भोमिया भावांजली : प्रकाश कुमार दफ्तरी अधिष्ठायक देव श्री भोमियाजी के लोकप्रिय भजनों का प्यारा-सा संकलन / पृष्ठ 80, मूल्य १०/रजिस्ट्री चार्ज एक पुस्तक पर 10/- रुपये, न्यूनतम सौ रुपये का साहित्य मंगाने पर डाक-व्यय से मुक्त / धनराशि श्री जितयशाश्री फाउंडेशन (SRI JIT-YASHA SHREE FOUNDATION) कलकत्ता के नाम पर बेंक-ड्राफ्ट या मनिआर्डर द्वारा भेजें / वी.पी.पी. से साहित्य भेजना शक्य नहीं होगा। आज ही लिखें और अपना ऑर्डर निम्न पते पर भेजें। श्री जितयशा फाउंडेशन 9 सी-एस्प्लानेड रो ईस्ट,(रूम नं.28) धर्मतल्ला मार्केट, कलकत्ता- 700 069 फोन : 220-8725 For Personal & Private Use Only