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इक साधे सब सधे
कब तक दूसरों के भरोसे मन को बदलाना चाहेंगे।
जब तक आपका और मेरा नैकट्य बना है, अगर तभी तक का बदलाव घटित होता है तो यह अधिक मूल्यवान् नहीं है; क्योंकि मुझसे बाह्य दूरी आते ही आप पुन: अंधकार में चले जाते हैं, चले जाएंगे। आपकी स्वयं की सजगता और मूल्यवत्ता होनी ही चाहिए। मैं सहायक हो सकता हूँ पर स्वयं को रूपांतरित करने का दायित्व आपका स्वयं का है । दीये को ज्योतिर्मय रखने की जवाबदारी स्वयं आप पर है। बस, यह कर्त्तव्य निभता रहे, तो आप एक अपूर्व आनंद को जीएंगे। सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से अप्रभावित रहकर आनन्दित रहने की कला सीख जाएंगे।
कचरा जन्मों-जन्मों का है, पर बुहारी तो लगानी ही पड़ेगी। जब बुहारी लगाएंगे तो कुछ धूल भी उड़ेगी, मन में उचाटपन भी महसूस होगा। जब ध्यान करोगे तब मन में यह कचरा उड़ेगा, मन नहीं लगेगा क्योंकि अभी तक हमने मन को सुन्दर बनाने का उपक्रम किया ही नहीं, अपने अन्तस् की स्वच्छता का कोई साहसिक अभियान छेड़ा ही नहीं, अपनी अन्त:करण की वीणा को झंकृत करने के लिए अंगुलियाँ चलाई ही नहीं। थोड़ी-सी असुविधा होगी। थोड़ा सजग-सचेष्ट होना होगा। लेकिन जैसे भोजन शरीर के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही ध्यान को जीवन का अनिवार्य अंग स्वीकार कर लो। ध्यान अमृत है, अमृत, जीवन है । ध्यान में समाविष्ट हो जाओ। चाहे मन की चिकित्सा हो, चाहे मन के विकार हों, चाहे मन की शांति हो या अंत:करण की पवित्रता, हमने हर दृष्टि से अब ऐसा मार्ग पा लिया है, जिसमें जब भी चाहा एक डुबकी लगा ली और पुन: कर्म में लग गए। मैं कर्म का, कार्य का विरोधी नहीं हूँ । कर्म करें लेकिन अन्तर्दृष्टिपूर्वक । होशपूर्वक कर्म, होशपूर्वक विचार । गृहस्थी के प्रति भी होश, जागरूकता और सजगता रहनी चाहिए। स्वयं को ऊपर उठाना होगा। साक्षित्व के किनारे बैठक लगानी होगी।
मन को परिवर्तित करने की राह स्वीकार करो। मन को परिवर्तन का सूत्र दो। यह परिवर्तन का सूत्र है साक्षित्व के किनारे बैठना। साक्षित्व के किनारे बैठना ही मन को पहिचानने और मन को परिवर्तित करने का सूत्र है। ध्यान स्वयं को अवलोकित करने की प्रक्रिया है। अनुपयुक्त से बचकर
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