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साक्षित्व के किनारे
बीच रहते हुए भरत की तरह जीवन-यापन करने की बात कहता हूँ । हिमालय की गुफाओं में तो ब्रह्मचारी हो ही जाओगे, लेकिन उस ब्रह्मचर्य की आभा कितनी अनूठी होगी जो किसी कोशा वेश्या के यहाँ जाकर स्थूलिभद्र की तरह बेदाग लौटकर आता है | आग के पास जाकर तुम कितने शांत और सौम्य रह सकते हो, यही तुम्हारी परीक्षा है, तुम्हारी कसौटी है । गुफा ब्रह्मचारी का अभ्यास-स्थल है, नियन्त्रण-स्थल है; वेश्यालय ब्रह्मचारी की कसौटी है । सोना कितना कैरेट है, इसकी कसौटी वहीं होगी ।
मैं तुम्हें वेषधर साधु बनने को नहीं कहता। मैं चाहता हूँ तुम्हारा मन जरूर साधु बन जाए। हर व्यक्ति को वेश और बाने से साधु नहीं बनना है, केवल अपने अन्तर्मन को साधु बनाना है । साधुता को तो जीया जाता है । साधुता वेश और कपड़ों में नहीं रहती, साधुता तो अन्त:करण में रहती है 1 हमारी निजता में, सरलता में, सहिष्णुता और समता में रहती है । वह पुरुष धन्य है जो भीतर-बाहर दोनों दृष्टि से साधु है । बचपन में पाठ्य-पुस्तकों में एक श्लोक पढ़ा था.
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शैले-शैलेन माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे- गजे । साधवो न हि सर्वत्र, चंदनं न वने वने ।
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बहुत ही सत्य बात प्रतीत होती है। हर साधु साधु नहीं होता । हर शैल (पर्वत) माणिक्य से अभिमंडित नहीं होता, हर वन में चंदन के वृक्ष नहीं मिलते । हर व्यक्ति साधु होकर भी साधु नहीं होता, उसमें गृहस्थी के बीज रहते हैं और हर गृहस्थ भी गृहस्थ नहीं होता, उसमें भी कहीं साधुता विद्यमान होती है । मन को गृहस्थी का आयाम दो तो मन में तो गृहस्थी बस ही जाएगी और मन को संन्यास का आयाम दो तो मन संन्यासी हो जाएगा । 'आमी संन्यासी मुक्ति बलिया' - हम तो ऐसे संन्यासी हैं जो मुक्ति के पागल हैं । एक तो सांसारिक पागलपन है दूसरा मीरा, चैतन्य, सूर, तुलसी, कबीर का पागलपन है जो परमात्मा के द्वार पर पहुँचाता है । एक पागलपन में भटकाव है दूसरे में प्राप्ति है । एक में विकार और क्रोध है, दूसरे में प्रेम और श्रद्धा है । सिर्फ मन को दिशा देने की आवश्यकता है । स्वयं के गुरु बनें, स्वयं के मार्गदर्शक बनें । हम ही अपने को सुधार सकते हैं, नया आयाम दे सकते हैं 1
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