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साक्षित्व के किनारे
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उपयुक्त में जीने की कला है। अपनी मन:स्थितियों को पहचानना ध्यान का पहला अनुभव है । अपने मन का शांत होना, मौन होना ध्यान का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण अनुभव है । ध्यान में होने वाली अनुभूतियों और भावदशा से स्वयं को ऊपर उठाओ तभी शायद तुरीय घट सकता है । ध्यान की सभी क्रियाएँ मन को आघात पहुँचाने के लिए हैं, मन को मौन बनाने के लिए हैं । मन के मौन होते ही, साक्षित्व के उतरते ही ध्यान की प्रक्रियाएँ महत्त्वहीन हो जाती हैं। तब एक ही प्रक्रिया होगी सुबह हो या शाम, दिन हो रात धीमे से आँख बंद की, सांस पर आए, मंद-मंद सांस पर ध्यान केन्द्रित हआ, साक्षित्व के किनारे बैठे, डूबे रहे । बस इतनी-सी प्रक्रिया होगी और ध्यान घटित हो जाएगा। लेकिन, जब तक अंगुलियाँ चलानी न आएं तब तक वीणा और अंगुलियों के बीच लयबद्धता लानी होगी। अभ्यास जोड़ना होगा।
महावीर को जब परमज्ञान घटित हुआ वे एक नदी किनारे बैठे थे। नदी का नाम था ऋजुबालिका। यानी ऐसी नदी जो बालिका की तरह ऋजु, सरल, निश्छल रही। महावीर ऋजुबालिका नदी के किनारे बैठे थे – ऋजु आत्मन् होकर । और यह नदी किनारे बैठना एक बहुत बड़ा प्रतीक है । जिस तरह तीर्थंकर नदी किनारे बैठे हैं तुम भी अपने अन्तस्तल में चलने वाले बहाव से अलग होकर बैठो। यह नदी किनारे होना ही साक्षित्व के तट पर बैठना है। तब होश होता है । सजगता रहती है। एक मधु का प्याला छलकता रहता है। साक्षी-मन सुख की खान है, साक्षित्व सुख का सागर है, साक्षित्व अस्तित्व का अमृत है। साक्षित्व अध्यात्म की चाबी है, ध्यान का गुर है। साक्षी होने की कला हाथ लग जाये तो मुक्ति की 'की' हाथ लग गयी । साक्षित्व सम्यक्त्व का दाता है । साक्षी निरन्तर मुक्ति की ओर बढ़ रहा है, मुक्त हो रहा है । साक्षी के अभाव में जीवन महज मन की खटपट है; शरीर और मन का खेल है।
कोई मुझसे पूछे कि महावीर कौन थे, बुद्ध कौन थे? मैं कहूँगा साक्षी थे। तीर्थंकरत्व और बुद्धत्व साक्षित्व के विकास हैं। चरम विकास ! महावीर चौदह वर्ष तक ध्यानरत रहे । साक्षी बने रहे। जो होता रहा, उससे निरपेक्ष रहे । जो होना था, सो होने दिया। नियति को, कर्म को परिणित होने दिया। खुद साक्षी रहे, द्रष्टा रहे, विनिर्मुक्त रहे । उनके लिए इतना काफी रहा। साक्षी
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