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इक साधे सब सधे
राग-विराग से ऊपर रहता है, वीतराग होता है । साक्षित्व को हम बीज मानें, ध्यान की त्रचा माने, अध्यात्म की आत्मा समझें।
साक्षी-बोध के लिए सबसे पहले हम शरीर को देखते हैं । देह-द्रष्टा द्वारा देखते-देखते शरीर से तादात्म्य छूटने लगता है, लेकिन उसके प्रति सौम्यता आ जाती है। ऐसी सौम्यता कि शरीर हमारा साथ निभा सके। अभी हमारे शरीर में ऐसी कोई स्वस्थता-सरलता नहीं है कि वह हमारा साथ निभा सके। जब शरीर के साथ संतुलन स्थापित होता है तभी वह हमारा साथ निभाता है। माना अभी हमारे शरीर में पीड़ा है, तब इस शरीर में जो साक्षित्व देखा जाता है वही साक्षित्व उस पीड़ा में से आनन्द का अंकुर उत्पन्न करता है। यही अंकुर उस पीड़ा के साथ साम्यता लाता है । यह मेरा निजी अनुभव है। आत्मा तो एक है, लेकिन इस शरीर में रोग अनेक हैं। जब-जब भी हम उन रोगों के साक्षी होते हैं तो पाते हैं कि जैसे पहाड़ों में से झरने निकलते हैं वैसे ही उस व्याधि में से समाधि अंकुरित होती है। तन में व्याधि, मन में समाधि । शरीर की संवेदनाओं का, स्पर्श की अनुभूति का साक्षी होना अनंत की यात्रा की ओर कदम बढ़ाना है।
पहले चरण में शरीर का साक्षित्व, दूसरे चरण में विचारों का साक्षित्व। अपने विचारों के प्रति सजगता, उनके प्रति होशपूर्ण होना । क्योंकि व्यक्ति स्वयं के विचारों से ही उद्विग्न है, व्यथित है । वह आत्महत्या भी करता है, तो विचारों से परेशान होकर । वह स्वयं के मन के कारण ही कठिनाई में फँसा है इसलिए विचारों के प्रति साक्षित्व। ध्यान की अवस्था में अपने भीतर चलने वाले ऊहापोह को, विचारों के यातायात को देखो । सजगता के आते ही वे विचार, विकल्प शांत हो जाएंगे। यह नहीं कहा जा सकता कि वे कब तक शांत रहेंगे, पर उनमें शांति तो आएगी। चौबीस घंटे निर्विकल्प नहीं रहा जा सकता, चौबीस घंटे निष्काम रह सकें यह भी संभव नहीं है । आखिर, शरीरगत अनुद्विग्नता चाहिये। मन का मौन चाहिये। मन का निर्वाण चाहिये। आखिर सबके शरीर के वीर्यकण इतने पवित्र नहीं हैं कि साधना पवित्रता की ऊंचाइयों को छू सके।
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