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साक्षित्व के किनारे
इन दो चरणों के बाद व्यक्ति को अपनी भाव-दशाओं से ऊपर उठना होता है । कुछ ऐसी दशा जो भले ही गहरी हो, लेकिन अन्त:स्थल के शून्य में घटित होने वाले शून्य के अस्तित्व में पहुँचने के लिए उन भाव-दशाओं से भी ऊपर उठना होगा। विचारों का सम्बन्ध है मन से और भावदशा हृदय से सम्बन्धित है। शरीर से मन की ओर, मन से हृदय की ओर यात्रा करनी होगी। अन्तत: हृदय से भी पार होना होगा। जो अपने हृदय से भी पार लगता है उसके जीवन में मौन आनन्द होता है। ऐसा आनन्द जिसके होने का कोई कारण नहीं है । वह आनन्द जो दूसरे की उपस्थिति-अनुपस्थिति से अप्रभावित है। यह तो वह आनन्द है जो स्वयं से उपजा हुआ उपहार है । इसे तो प्रकृति भी हजारों आशीष के साथ देती है। इसे तो अस्तित्व अपने प्रेम और सत्य के साथ सौन्दर्य सहित आत्मा पर बरसाता है । मेरा तो अभी तक का जाना हुआ यही अनुभव है । और जब तक इसके पार के अनुभव नहीं होते तब तक जीवन के इन अज्ञात, अज्ञेय, मौन, अखूट भंडार में छिपे इन रहस्यों को जी लो। पी लो ! तब आपका जीवन दृश्य से स्वयं को अलग करेगा और नवीन जीवन का शुभारंभ होगा। आपके कदम अरूप की ओर होंगे। साक्षी पर तो आनन्द का अमृत झरता है। परिवेश और परिस्थितियाँ चाहे जो हों, पर वह उनका भी साक्षी ही होता है। साक्षी को परिस्थितियाँ क्या प्रभावित करेंगी। वह परिस्थितियों में सौम्यभाव से जीना और समायोजित होना जानता है। साक्षी मध्यस्थ है, स्थितप्रज्ञ है, तटस्थ है। साक्षी में तीनों का संगम है – बुद्ध की मध्यस्थता, कृष्ण की स्थितप्रज्ञता, महावीर की तटस्थता। साक्षी सबके बीच जाकर भी, सारी स्थितियों-परिस्थितियों से गुजरकर भी न-जीया जैसा है, न-गुजरा जैसा है।
साक्षित्व वीतराग-जीवन जीने का आधार-सूत्र है।
मैंने देखा है जो साक्षित्व के किनारे बैठता है, उसका अन्त:करण खुद-ब-खुद परिवर्तित होने लगता है। कहते हैं किसी नगर में एक चोर ने बहत उपद्रव मचा रखा था। राजा ने सैनिकों को आज्ञा दी कि चोर पकड़ कर दरबार में हाजिर किया जाए। चोर को पकड़ कर दरबार में लाया गया। राजा
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