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इक साधे सब सधे
ने चोर को नगर-निरीक्षक नियुक्त कर दिया। यही उसकी सज़ा थी कि वह चोरों से नगर की रक्षा करे । अब चोर ही अगर चौकीदारी करने लग जाए तो चोरी कैसे होगी? यही मैं भी कहता हूँ कि अपने मन के निरीक्षक तुम स्वयं बन जाओ। अपने मन को ही ध्यान में लगा दो तो मन कहाँ जाएगा? मैं कहता हूँ मन न लगे तो लगाओ ध्यान । मन न टिके तो टिकाओ ध्यान । मन में भटकन प्रतीत हो तो लगाओ ध्यान।
मुझे प्रसन्नता है कि ध्यान की लौ उस समाज में लग रही है जो कुछ सूत्रों को पढ़-सुन लेना ही धर्म समझता था। हमारी नज़र उस प्रतिमा की ओर उठनी चाहिए जो अपनी पूजा का नहीं, ध्यान का संदेश देती है। वह प्रतिमा हमें मुक्ति और वीतरागता का संदेश दे रही है। और हम हैं कि धूप-दीप-फल-फूल ही चढ़ाए चले जा रहे हैं। बुद्ध की प्रतिमा देखो, उनका ऊपर की ओर उठा हुआ हाथ, जो केवल प्रेम और करुणा बरसा रहा है, वहाँ से अशेष आशीष उमड़ रहे हैं। हमारा ध्यान जीसस की प्रार्थना पर तो है, लेकिन उस ओर नहीं जिससे जीसस जीसस हए । जीसस का प्रेम पर ध्यान है। प्रेम को पाना है तो बिना ध्यान के उसे नहीं पा सकते । बिना ध्यान के प्रेम की परिभाषा ही नहीं समझ सकते । जीसस कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है । प्रेम है तो परमात्मा है; परमात्मा है तो प्रेम है।
ध्यान का सूत्र समझो, चोर को चौकीदार बनाओ। इन इन्द्रियों की चौकसी होगी। मन और आत्मा भी इसके दायरे में आ जाएंगे। यह ध्यान का सुन्दर सूत्र हो सकता है। दुनिया के दरिये में, साक्षित्व के किनारे बैठना, बैठक बनाये रखना, मनोवृत्तियों, कर्मप्रकृतियों से ऊपर उठने का, उनसे मुक्त होने का श्रेष्ठतम गुर है । पलकों को विनत हो लेने दो, भीतर के मौन में उतरो, भीतर के हो जाओ। भीतर बैठा देवता आपसे मिलने को प्रतीक्षारत है। हम सब आएं, अपने में उतरें । अपने में हो लें । अपने हो जाएँ; आत्मवान् हो जाएँ।
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