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इक साधे सब सधे
ऐसे हज़ारों बम मनुष्य ने बना रखे हैं। अगर इन बमों का विस्फोट हो गया तो पृथ्वी पर प्राणी नाम की चीज़ ही नहीं बचेगी, जीवन नाम का तत्त्व ही नहीं रहेगा । विनाश के इतने इन्तज़ाम हैं। जीवन का कितना इन्तज़ाम है यह सोचने जैसा है। यही वह बात है जिसका हमें चिन्तन-मनन करना I
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मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ उसके ही अन्त:करण में हैं। सभी दुष्प्रवृत्तियाँ उसके अपने मन में हैं । यहीं क्रोध, हिंसा, व्यभिचार की गाँठें हैं । तनाव और टकराव है । क्यों न हम अपनें भीतर का निदान करें, उपचार करें । क्योंकि कहा नहीं जा सकता कब हिटलर, ट्रूमेन, स्टैलिन या चाउशेस्कू पैदा हो जाए। यह सब हममें से ही आएंगे। जो अपने भीतर की वृत्तियों को सुधारने में रत है, उसके लिए यहीं से धर्म का शुभारम्भ है ।
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सामान्यतः मनुष्य मन व बुद्धि में जीता है । मन में जीना तनाव को जन्म देना है और बुद्धि में जीना पांडित्य में वृद्धि करना है, पुस्तकीय ज्ञान की अभिवृद्धि करना है । जीवन का आनन्द और उत्सव न तो मन में है और न बुद्धि में है । हमने बड़े-बड़े बुद्धिमानों को बुद्धू बनते देखा है और बुद्ध-से दिखाई देने वाले कभी-कभी अति बुद्धिमानी की बात कर जाते हैं । आपको आनन्द और उत्सव का आस्वादन करना है तो मैं अज्ञात सागर की ओर आमंत्रण देता हूँ ।
वह अज्ञात सागर मनुष्य के ठीक मध्य बिंदु में है । मन और बुद्धि तो परिधि पर है, नाभि भी परिधि पर है । सागर का केन्द्र है मनुष्य का हृदय । हृदय जब नीचे की ओर बहता है तो वह विकार का रूप लेता है । यह एक परिधि हुई। हृदय जब ऊपर बढ़ता है तो बुद्धिमय होता है, यह है दूसरी परिधि। मेरे लिए प्रज्ञा परिधि और हृदय मूल केन्द्र है। मैं तो हृदय में जीता हूँ । और जब व्यक्ति हृदय में जीता है तो महसूस होता है कि उसके सिर तो है
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हीं नहीं । मैं यही चाहता हूँ कि व्यक्ति सिर- विहीन होकर हार्दिक हो जाए । बुद्धि से तुम दूसरों के प्रश्नों का समाधान कर सकते हो, लेकिन हृदयवान होने पर सारे सवाल ही तिरोहित हो जाएँगे । तुम्हारे पास प्रश्न ही नहीं होंगे, बल्कि तुम स्वयं ही एक समाधान हो जाओगे, उत्तरों के उत्तर, जवाबों के जवाब ! प्रज्ञा
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