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हृदय के खुलते द्वार
इन किताबों को अपने जीवन में आचरित करने का संकल्प और दृष्टिकोण नहीं है। इन महान शास्त्रों के अतिरिक्त एक शास्त्र और भी है जो हमारे आसपास रचित है । वे शास्त्र हवा के झोंकों से डोलायमान इन फूलों और पौधों पर लिखे
घास के छोटे-से-छोटे तिनके का भी अपना मौलिक अस्तित्व है । जब हमारी मंगल-मैत्री, अन्तर्-प्रेम, आत्मिक प्रेम विस्तृत होता है तब हमारे अस्तित्व की विराटता खुद ही आत्मसात् होने लगती है। उस स्थिति में केवल परमात्मा से ही प्रेम नहीं होता, हर इन्सान से भी प्रेम होता है । तब इन्सान ही नहीं, जानवर, पौधे, पक्षी, फूल सभी प्रेम के पात्र हो जाते हैं। नदी, झरने, पहाड़ भी अछूते नहीं रह पाते । वे भी प्रिय होते हैं। मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण से यदि मुरझाए हुए पुष्प के पास गए तो वह भी पुन: प्राणवान और जीवंत हो जाएगा। वहीं अगर विपन्न-खिन्न हृदय से किसी खिले हुए फूल के पास जाओ, तो वह फूल भी आपको सूख नहीं देगा।
मंगल मैत्री का विस्तार जीवन के प्रति विधायक दृष्टिकोण रखने से होता है । पदार्थ की पूजा द्वितीय है; जीवन सर्वोच्च है । जीवन के विश्लेषण से ही जीवन में अध्यात्म का अभ्युदय होता है। जीवन चाहे स्वयं का हो या अन्य किसी का, जीवन को पढ़ें, जीवन सबसे बड़ा शास्त्र है। जीवन को निहारें, क्योंकि इससे अधिक सौंदर्यपूर्ण, प्रीतिकर और मंगलमय तत्त्व अन्य नहीं है। जीवन से प्रेम करो क्योंकि इससे बढ़कर प्रेम योग्य अन्य पदार्थ नहीं है। जहाँ-जहाँ चेतना की संभावना है, वहाँ सर्वत्र जीवन है।
बाह्य रूप से तो जीवन बहत लीलामय, रास भरा और सखी दिखाई देता है, लेकिन जब भी किसी की अन्तरात्मा में झाँकते हैं तो पाते हैं वह कितना दुखी और अवसादग्रस्त है। यह दुख चारों ओर फैला हुआ है । जिधर और जितनी दूर निगाह उठाओगे वहाँ दुःख ही पाओगे। और दुःख भी ऐसा जिसमें सुख ढूँढ़ते हैं। परपीड़ा का सुख । मनुष्य ने अपने विनाश का पूरा इन्तज़ाम कर रखा है। एक अणु बम एक तिहाई पृथ्वी को नष्ट करने में सक्षम है और
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