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हृदय के खुलते द्वार
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के द्वारा मन को जीतेंगे, प्रज्ञा से प्रश्नों के उत्तर देंगे और तर्कों को काटेंगे, पर हृदय से अन्यों को और करीब लाएंगे। हृदय से एक सेतु बनाएँगे। उस संवेदनशीलता का निर्माण करेंगे जिसकी आज जमाने से मृत्यु हो चुकी है।
अगर हृदय के द्वार नहीं खुले तो जीवन अंधकारमय है। फिर चाहे मन कितना ही मौन क्यों न हो या बुद्धि अपनी पूरी गहराई पर हो । हृदय में उतरे बिना जीवन में सरसता नहीं आएगी। मन और बुद्धि में जीने वाले के लिए हृदय विभाव-दशा है और मेरे लिए स्वभाव-दशा। हार्दिक व्यक्ति अपनी ओर से हर समय, हर क्षण प्रेम बरसाता है। जबकि प्रज्ञा-मनीषियों की दृष्टि में यह प्रेम राग है, विभाव-दशा है। तुम्हारे जीवन में सरसता होनी ही चाहिए। जब तुम नितांत एकान्त के क्षणों में हो और हृदय में स्नेह की रसधार न हो, तो जीवन की सार्थकता क्या? जीवन में रस न हो, प्रेम का झरना न हो, हृदय का उत्सव न हो, आनन्द का महोत्सव न हो, तो जीवन में क्या पाया?
हृदय के पास अपनी आँख हैं ऐसी आँख जो सारे संसार को देख सके । संसार से टूट तो सभी सकते हैं पर जुड़ हर कोई नहीं सकता। तुम एक संकुचित दायरे से तो स्वयं को जोड़ सकते हो, लेकिन कहा जाए कि सम्पूर्ण अस्तित्व को अपने में समाविष्ट कर लो तो यह कठिन कार्य होगा। प्रार्थनाएँ जरूर विश्व-कल्याण की कर लेते हो, पर कल्याण न तो कोई करता है, न चाहता है। अपने भाई को जिस समय हम सौ रुपए दे रहे हैं, उसी क्षण कोई जरूरतमंद सहयोग के लिए पहुँच जाए तो हम उसकी उपेक्षा कर बैठेंगे, उसे लौटा देंगे। हमारे हृदय में सभी के लिए प्रेम नहीं है। एक सीमा तक ही प्रेम विस्तीर्ण होता है। हमारा प्रेम बहुत ही छोटा है; वह भी मानसिक या शारीरिक । आपका प्रेम हृदय से उत्पन्न नहीं हुआ है, आपका प्रेम ध्यान से निष्पन्न नहीं हुआ है । जब प्रेम हृदय और ध्यान से आएगा, वह कुछ पाना नहीं चाहेगा, सदा देने को तत्पर होगा। जिस क्षण प्रेम लुटाया जाता है एक नए धर्म का उद्भव होता है जिसे हम करुणा कहते हैं। जब तक लुटने का भाव न आए, लुट जाने की आकांक्षा न हो तब तक करुणा प्रेम रहता है । यही प्रेम जब पाने की इच्छा करने लगता है, तो मन का विकार हो जाता है।
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