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________________ इक साधे सब सधे जो मनुष्य अपने जीवन के सुखों को केवल बाहर ही ढूँढ़ता है, उस मनुष्य के जीवन में राम के उस स्वरूप की बार-बार पुनरावृत्ति होती रहेगी जो परमात्मा का अवतार होकर भी नकली हरिण के पीछे दौड़े। बाहर के सुख तभी सुख हो पाते हैं जब उन्हें अन्तर्दृष्टि से देखा जाए । बाहर की ओर भटकने वाले व्यक्ति को उसके अपने घर में क्या हो रहा है, पता नहीं रहता । मनुष्य का कर्त्तव्य होता है कि वह सब कुछ सुधारे, संसार में शांति लाने के लिए प्रार्थना और प्रयास करे लेकिन उसका पहला दायित्व है स्वयं को सुधारना और शांत मन करना। हम स्वयं शांति के सरोवर न हो पाए तो अपनी ओर से किसे शांति के दो बूंट पिला पाएंगे। ध्यान बाहर से भीतर की ओर मुड़ने की कला है, मार्ग है। ध्यान ही समस्त धर्मों का सार है, पूंजी है, सम्पदा है । जैसे शरीर से सिर को अलग कर दिया जाए या धर्म और अध्यात्म से ध्यान को हटा दिया जाए तो दोनों ही निष्प्राण। जीवन में धर्म और अध्यात्म का उत्थान तभी होता है जब ध्यान हमें आत्मसात् हो जाए। इसलिए भीतर की ओर मुड़ो। भीतर के शोर को सुनो, देखो। उसके साक्षी बनकर उसे समाप्त करो। शोर तो शोर है। मन में जब देखो विचार-ही-विचार, विकल्प-ही-विकल्प । रात-दिन बह रहे हैं। दिन-रात विचारों का तूफान, वृत्तियों का भँवर उलझाए रखता है । इन तूफानों और भँवरों से पृथक करने का काम ही ध्यान है। संबोधि-ध्यान का मकसद ही यही है कि येन-केन-प्रकारेण भीतर का जो शोरगुल है, वह शान्त हो। अगर आपसे दो मिनट के लिए मन से मौन होकर बैठने को कहा जाए तो दो मिनट तो बहुत हुए, आधा मिनट भी मुश्किल से गुजरेगा कि भीतर का यातायात शुरू हो जाता है, विचारों की गाड़ियाँ चलने लगती हैं, विकल्पों की हवा बहने लगती है, विकारों के कीचड़ में पाँव फँसता है। दो मिनट के लिए भी मौन होना मुश्किल होता है। शांति के नाम पर चाहे जितने प्रयास किए जाएँ जब तक हमारा मन शांत नहीं होगा शांति के प्रयास विफल ही रहेंगे। यह दुर्भाग्य रहा कि हम बाहर से भीतर की ओर नहीं मुड़े, कभी स्वयं की सुनी ही नहीं । स्वयं से प्रेम करना न सीखा। दूसरों को, बाहर सभी को प्रेम दिया, लेकिन स्वयं को कभी प्रेम न किया। शिविर ने आपको यह अवसर दिया है कि आप स्वयं से प्रेम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003858
Book TitleEk Sadhe Sab Sadhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1997
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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