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मन हो मौन, हृदय हो जाग्रत
लगने पर मंद श्वास और दीर्घ श्वास ही प्राणायाम का सही प्रारूप होगा। सजगता पर ध्यान दो । सजगता ही संबोधि की, संबोधि-ध्यान की, विपश्यना की आत्मा है । वृत्तियों के प्रति सजगता और उनकी अभिव्यक्ति की सम्भावना लगे, तो अभिव्यक्ति में विवेक की दृष्टि, विवेक की चेतना का, समझ का पूरा-पूरा उपयोग हो।
पूछते हैं कि “तब ध्यान गहन होता है और एकदम चेतना के वापस आने से सिर भारी-भारी हो जाता है', ध्यान का गहन होना शुभ है, पर उस गहनता में भी हमारा होश और ज्ञाता-दृष्टा-रूप बरकरार रहे । ध्यान का पाँचवाँ चरण, अंतिम चरण सहज स्थिति तक आने के लिए ही है। सहज स्थिति के मायने हैं पूर्ण विश्राम । केवल स्वयं के सम्पूर्ण अस्तित्व में, स्वरूप में, शरीर में चेतनागत ऊर्जा का संचार होने के लिए यह पावन अवसर है, अमृत अवसर । हाँ, अगर सिर में भारीपन लगे, तो स्वयं को पाँच मिनट के लिए सिर से हटा लें,
और हृदय की ओर स्वयं को निढाल हो लेने दें। हृदय में स्थित हो जाएँ। हृदय स्वयं शांति और आनन्द का, प्रेम और श्रद्धा का घर है। वहाँ आ जायें। ध्यान में ही नहीं, वरन् जब भी सिर में तनाव महसूस हो, शरीर में थकावट और संत्रास महसूस हो, दस-बीस दीर्घ श्वास लें और मन को प्रसन्नता से भरकर हृदय में आ जाएँ । हृदय की छाँव बड़ी शीतल है, सुखद है, सौम्य है । हृदय को तुम मध्यबिन्दु समझो । मध्यम मार्ग समझो। यह हर अति की आग से हमें बचा लेता है । हृदय संबोधि के आनन्द का जन्मदाता है।
फिर भी, आप महानुभाव मुझसे बाद में मिल लें । मुस्कराएँ, समाधान आपकी हथेली में होगा।
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