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कृत्य छोटे,
प्रसाद अनुपम
का पिता सिर के छत्र को भारभूत ही बनाते हैं। गुणवान पुत्र हो, तो ही उस पुत्र से माता-पिता की गति है । गुणहीन, झगड़ालु और ईर्ष्या से भरे हुए बच्चों से तो बाँझ रहना कहीं ज्यादा अच्छा है। सूरज तो अकेला ही काफी है । सारी धरती - आसमान को रोशन कर डालेगा। तारों की टिमटिमाहट तो ठीक है मन की तृप्ति के लिए चलेगा ।
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मृत्यु के बाद पुत्रों द्वारा किये जाने वाले तर्पण से अगर तुम अपनी गति, दुर्गति या सद्गति मानते हो, तब तो बात ही अलग है । फिर तो जीवन के लिए पुत्र का कोई अर्थ नहीं है । पुत्र की उपयोगिता पिता की मृत्यु के लिए है, मृत्यु के बाद है । तुम्हें अग्नि देने और तुम्हारे नाम पर दो मुठ्ठी आटा और दो लोटा पानी देने के लिए है । अगर ऐसा है तो तुम्हारे पुत्र तुम्हीं को मुबारक । जो बेटा जीते जी तुम्हारे दो जून रोटी की व्यवस्था करने में भार समझता है, मैं नहीं समझता कि उसके द्वारा तुम्हें तर्पण करने से तुम्हारी आत्मा को किसी तरह की शांति मिल सकेगी। शव को शृंगार देना और जीवित को शव बना देना, क्या इसे तुम अपनी गति कहोगे ।
अच्छा तो होगा, हम अपनी सन्तानों को वे संस्कार और वह वातावरण दें, जिससे हमारे बच्चे अपने माँ-बाप के लिए प्रेम और आदर के साथ अपनी सेवाएँ समर्पित कर सकें। ऐसा वातावरण बनाने के लिए जरूरी है कि हम स्वयं अपने माता-पिता की सेवा करें, घर में उनका आदर- अदब रखें । माता-पिता चाहे जैसे हों, हमारा फर्ज़ यही है कि हमें उन्हें निभा देना चाहिये । अपनी बहू-बेटियों को हमें यह हिदायत देनी चाहिये कि वे बड़े-बुजुर्गों की मान-मर्यादा बनाए रखें। यदि हमें अपनी ओर से कुछ सेक्रिफाइस करना पड़े तो भी कर देना चाहिये । परिवार समूह का नहीं, त्याग का नाम है । जिस समूह में एक-दूसरे के लिए त्याग की भावना है, समर्पण का सरोकार है, वह समूह ही वास्तव में परिवार है ।
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जहाँ तक गति, दुर्गति या सद्गति का सवाल है, उसका सम्बन्ध न तो सन्तान से है, न ही नि:संतान रहने से । हर गति मनुष्य के अपने कर्तृत्व का परिणाम होती है, जैसा करोगे, वैसा भरोगे । प्रकृति का नियम है कि अच्छा
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