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इक साधे सब सधे
भारतीय परम्परा में अपुत्रस्य गतिर्नास्ति जैसी बात कही गयी है, पर जो नि:सन्तान हैं, क्या वे सद्गति को प्राप्त नहीं कर पायेंगे?
___ 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' – बगैर पुत्र के गति नहीं है । पुत्र ही गति का कारण है, तब तो उनका क्या होगा जो ब्रह्मचारी हैं। बेचारों को भटकना ही होगा। उनका कोई त्राण नहीं। और फिर जरा उनसे भी पूछ लेते जिनकी सन्तानें हैं, उनकी कैसी दुर्गति हो रही है। जिनके सन्ताने हैं वे संतानों के कारण दुर्गति को भोग रहे हैं और जिनके सन्तान नहीं हैं वे बगैर सन्तान के अपनी दुर्गति मान रहे हैं।
सन्तान होना मानवीय सुखी जीवन के लिए जरूरी है, किन्तु अच्छी सन्तान होना पुण्योदय की बात है । वे माता-पिता धन्य हैं जिनके घर में अच्छी सन्तान पैदा हुई है, सन्तानों ने सही संस्कार पाये हैं, घर की सुख-संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। वह संतान तो कोरी भारभूत है जो अपने जन्म देने वालों की उपेक्षा करते हैं, उनके आदर-अदब की अवहेलना करते हैं।
पहले जमाने में कुछ वर्षों पूर्व तक ही, एक माता-पिता के पूरी एक दर्जन संतानें हुआ करती थीं, लेकिन अकेले माँ-बाप उनका पालन-पोषण कर ही लेते थे। पर अगर वे बारह संतानें अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा न सम्हाल पाएँ, वे अथवा उनकी बहुएँ अथवा उनके बच्चे उनकी उपेक्षा करते रहें, तो जरा किसी माता-पिता से पूछना तो वे कहेंगे इससे तो अच्छा था, सन्तान ही न होती । कम-से-कम ‘दरकुत्ता' तो नहीं होना पड़ता।
जीवन और पारिवारिक व्यवस्था के लिए संतान की सहज जरूरत है। अपनी कोख से संतान न जन्मे तो आदमी ममता और वात्सल्य की रसधारा में आकंठ भीग नहीं सकता। ममता ही नहीं तो मातृत्व कैसा ! प्रेम ही नहीं तो पितृत्व कैसा । 'मातरं पितरं हन्त्वा' । बगैर ममता की माँ और बगैर प्रेम
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